शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

ऊंट की लीद में जीरा

अमीरी के लिए पैसों पर निर्भर होने की परम्परा पुरानी है. अब जमाना बदल गया है, जो एसिडिटी के मामले में अमीर होते हैं वे ही सच्चे अमीर होते हैं. अमीर आदमी खाज-खुजली से ख़ुर्र ख़ुर्र करता किसे अच्छा लगेगा.  देखा जाये तो एसिडिटी का मामला डाक्टरी का एक मसला है. इस पर किसी को बोलना है तो डाक्टर बोले या फिर मरीज.  लेकिन भाई साब बीमारियाँ अब स्टेट्स सिम्बल हो गयीं है. सत्ता, समृद्धि और एसिडिटी आज सुखी और सफल लोगों की पहचान है. जहाँ तक गरीबों का सवाल है उनकी सबसे बड़ी बीमारी गरीबी है. भले दुनिया हजार कष्टों से भारी पड़ी हो लेकिन आदमी एक बार कायदे का गरीब हो ले यानी तय की गई रेखा के नीचे आ जाये तो सारे कष्ट बौने हो जाते हैं.
उन्होंने आते ही अपना नया विजिटिंग कार्ड आगे कर दिया कि वे चाय-वाय नहीं पियेंगे, एसिडिटी हो जाती है. इस सूचना के साथ फुट नोट में उनके एश्वर्य के बारीक़ अक्षर समझे जाने योग्य हैं.
“हाँ भई , बड़े लोगों के पास भला एसिड की क्या कमी है जो उन्हें ऊपर से भी पीना पड़े.”
“अरे नहीं, ऐसी बात नहीं है. जब से ये जीएसटी हुआ है ना तब से एसिडिटी की दिक्कत बढ़ गयी है.  ठीक से कुछ खा ही नहीं पा रहे हैं. हम खानदानी लोग हैं, पेट के अन्दर एक नंबर की जेब और दो नंबर की थैली ले कर पैदा होते हैं. इसी को आप फैमिली हिस्ट्री कह लीजिये. लेकिन अब बड़ी दिक्कत है. लोग समझते हैं कि सरकार हमारी है और हम मजे कर रहे हैं ! लेकिन हमारी हम ही जान रहे हैं. फोन में डायल टोन की जगह आवाज सुनाई देती है कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा.”
“फिर इन दिनों खाने में क्या लेते हैं आप ?”
“कभी १८%, कभी २८%. जितना हाथ लग जाये. यों समझिये कि सच्चे व्यापारियों का पेट तो खाली ही रह जाता है. बिना दूसरी परत के कारोबारी शोभा भी नहीं देता है. अब क्या बोलें, .... विकास का मन्त्र मरने वालों को समझना चाहिए कि ऊंट के मुंह में जीरा डालोगे तो लीद में जो निकलेगा उसे वोट तो नहीं कह पायेगा कोई.”
“आप दुखी ना हों, सरकार शायद यह चाहती है कि अमीर भी ‘स्लिंम और फिट’ हों और जीवन का आनंद लें. ये क्या कि सुबह से शाम तक कोल्हू का बैल बने रहें. अब देखिये ना मात्र एसिडिटी की वजह से बीपी, शुगर, हार्ट वगैरह कहाँ कहाँ असर दिखाई नहीं देता है. आपको तो प्रसन्न होना चाहिए कि सरकार बिना किसी बीमा के आपकी सेहत का ध्यान रख रही है.”
“अब सरकार का क्या कहें ! क्या सोचा था और क्या हो गया. हम तो आज भी कह दें  कि छोरा चाय ला तो छोरा दौड़ा चला आता है. इसी मुगालते में रह गये, अब कोई सुनने वाला नहीं है. जिससे टेबल पर कपड़ा मरने की उम्मीद लिए बैठे थे वो झाड़ू मर देता है बार बार !! वो भी कभी पीठ पर कभी कमर के नीचे.”
उनके चेहरे पर नाराजी और पछतावे का भाव उतर आया. अगर भूल सुधार का कोई मौका मिल जाये तो वे शायद चूकें नहीं. अब देखो, अगले चुनाव में ऊंट किस करवट बैठता है और लीद में क्या करता है.”
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