मंगलवार, 8 अगस्त 2017

आज़ादी आज़ादी


एक बार किसी को ठीक से ठांस भर दिया जाये कि वो गुलाम है तो सबसे पहले वह ठांसने वाले का गुलाम हो कर अपने आज़ाद होने की घोषणा कर सकता है. हमारे यहाँ बड़ा आज़ाद वह है जो जानता है कि उसे किसका गुलाम होना है. जब देश गुलाम था तब भी बहुत से लोग आज़ाद थे और आज़ादी में भी आज बहुत से लोग गुलाम हैं. जो अंग्रेजो के गुलाम थे वही अपनी जमींदारी में गरीब-गुरबों के सामने पूरे आज़ाद थे. दैनिक जीवन में जो ब्राह्मणों के सहर्ष गुलाम रहे वे अपने से छोटी जाति वालों पर जूते से अपनी जबरिया आज़ादी छापते रहे. जो एक जगह गुलाम दिखाई देता है वह अक्सर दूसरी जगह आज़ाद हुआ करता है. एक जगह से अपमानित हो कर आया हुआ अक्सर दूसरों को, जो उससे कमजोर होते हैं, अपमानित कर अपनी धूल झाड़ता है.
यों देखा जाये तो दुनिया भर में मर्द आज़ाद दिखाई देते हैं लेकिन .... घर में !... कुछ कहा नहीं जा सकता. इसी तरह औरतें, मानी जाती हैं कि घर में गुलाम हैं, लेकिन बाहर ? ....पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता !  बुद्धिमान यानी विद्वान् लोग बहुत सोचविचार के बाद गुलामी करते हैं. इस तरह की गुलामी उनके लिए एक हथियार की तरह होती है. अगर गुलामी सुविचारित है तो प्रायः कई तरह की आज़ादी के अवसर प्रदान करती है. कहते हैं कि बोलने की आज़ादी सबसे बड़ी होती है. इसलिए लोकतंत्र में बोलने पर बहुत जोर दिया जाता है. सो अपने यहाँ जो जुबान चला ले वह आज़ाद, और जो सभ्य बने रहे वो शराफत के गुलाम. विश्वास न हो तो किसी भी गृहणी से पूछ लो आपको उत्तर हाँ में ही मिलेगा. पढ़े-लिखे, समृद्ध-सुखी लोग अंग्रेजी में आज़ादी की मांग करते देखे जाते हैं. जो बाज़ार में बैठ कर लूटते हैं, सत्ता में रहते हुए समेटते हैं, उन्हें प्याज-टमाटर मंहगा मिले तो गुलामी का अहसास होने लगता है. आज़ादी तो कुछ करने की भी है हमारे यहाँ, लेकिन जब करना पड़ता है तो वो हमें गुलामी लगती है. इसलिए आदमी तभी तक काम करता है जब तक कि नौकरी में वह टेम्पररी है. जैसे उसके हाथ में परमानेंट होने का लेटर आता है वह काम यानी गुलामी बंद कर देता हैं. नया जमाना- नये लोग,  वेतन की इज्जत कर लेते हैं, नौकरी की नहीं.
हाल के वक्त में आज़ाद देश के कुछ नौजवानों को उच्चशिक्षा के अधिकार के साथ देश के श्रेष्ठ विश्वविध्यालय में अध्ययन करते हुए सबसे पहले यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि वे गुलाम हैं और यह भी कि उन्हें तुरंत आज़ादी भी चाहिए. यानी अब्भी के अब्भी, होम डिलीवरी, बिलकुल पित्जा-बर्गर की तरह. उन्हें किसी ने याद दिलाया कि आप लोग तो बाकायदा आज़ाद मुल्क में पैदा हुए है. कहीं  भी रह सकते हैं, घूम-फिर सकते हैं, धंधा-रोजगार कर सकते हैं. संविधान के दायरे में रहते हुए हर कोई आज़ाद है. उन्होंने नकार दिया कि हम तो गुलाम होने और महसूस करने के लिए स्वतंत्र है. अगर कोई विचारधारा उन्हें गुलामी का सही रास्ता दिखा रही है तो बाकी सभी तरह की आज़ादी उनके लिए ढकोसला मात्र है.. उस्ताद लोग जानते हैं कि आज़ादी मात्र एक नारा है जो भेड़-बकरियों से कहीं भी, कभी भी, यहाँ तक कि शैक्षणिक परिसर में भी लगवाया जा सकता है. कबूतरों को ठीक से सिखा कर उन्हें कितना भी खुला छोड़ दीजिये वे अपने पिंजरे से प्यार करना नहीं भूलते है. पेड़ों पर बैठा तोतों का झुण्ड जब ‘हमें चाहिए आज़ादी-आज़ादी’ के नारे लगता है लेकिन अपने पंख नहीं फैलता है तो उनकी नियत और हौसलों पर संदेह होने लगता है. शिक्षा सही को सही और गलत को गलत समझने का सलीका पैदा करती है. लेकिन जब सलीके का ही संकट पैदा हो गया तो आगे कैसे बढ़ा जाये ! शिक्षित नौजवान दुनिया बदलने निकले यह ठीक है, उसे यह तो पता होना ही चाहिए कि क्या बदलना है ! दुनिया में बदलाव की गुंजाईश तो उनके प्रयासों के बाद भी बनी रहेगी. जब वे अपना काम खत्म करके सुस्ता रहे होंगे तब भी कुछ लोग आज़ादी-आज़ादी चिल्लाते हुए निकल आयेंगे.

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