बुधवार, 28 जून 2017

जनहित में डोनेशन की डकैती



आप खुद देखिए सर जी, स्कूल की फीस, बस फीस, लंच फीस, किताबें, ड्रेस, जूते, ट्यूशन फीस, और भी न जाने क्या क्या लगता है !! उस पर पता नहीं किस मीठे में आपने प्रायवेट स्कूलों को डोनेशन लेने की छूट दे दी !!
वे कुछ देर चिंतन-योग के बाद बोले राष्ट्रहित के लिए सरकार को कुछ कठोर निर्णय लेना पड़ते हैं. एक अच्छे नागरिक के तौर पर आपको सहयोग और समर्थन करना चाहिए,  वरना.
अपनी जेब कटवाने में कौन सहयोग करता है सर !! आपके बच्चे भी तो होंगे, वे भी तो पढते होंगे. फरियादी ने वरना पर ध्यान दिए बगैर अपनी बात जारी रखी.
तुम प्रदेश से बाहर रहते हो क्या !? जनरल नालेज तक नहीं है तुम्हें ! ये भी नहीं जानते कि सरकार मामा है और उसके भांजा-भांजी होते हैं.
एक तो यह पता नहीं चलता कि कब आप मामा हो लेते हो और कब सरकार बन जाते हो !! और मामा हो तो पढाने नहीं दोगे क्या भांजा-भांजी को !? स्कूल वाले पूरे एक लाख डोनेशन मांग रहे हैं !!
देखो हम बच्चों के मामा जरुर हैं लेकिन आप जीजा बनने की कोशिश तो करो मत. प्रदेश का कोई भी स्कूल एक लाख नहीं मांग रहा है. आप झूठ नहीं बोलिए, वरना. लगा सरकार बकायदा नाराज होने जा रही है.
सर, निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे रूपये का क्या मतलब होता है !!
देखिए वे लोग तो एक लाख से कम पर मान ही नहीं रहे थे. लेकिन सरकार ने दबाव बनाया. जनहित में जितना कर सकती थी सरकार ने किया.
क्या आप चाहते हैं कि किसानों की तरह पेरेंट्स भी आत्महत्या करने लगें !? लोग कैसे दे पाएंगे इतनी बड़ी रकम !! आप मामा हो या कंस मामा हो !?
शांत हो जाओ जीजाजी, सरकार को पता है कि नहीं दे पाएंगे. लेकिन सरकारी स्कूलों के दरवाजे खुले हैं. फीस कम है, डोनेशन तो है ही नहीं. वहाँ सबका स्वागत है. यू नो, मामा सिर्फ ब्याव करवाने के लिए नहीं है.
सिर्फ सरकारी स्कूलों में एडमीशन के लिए आपने उन्हें लूट की छूट दे दी !!
ऐसा नहीं है, सब जानते हैं कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. देश में पचास हजार बच्चे रोज पैदा हो रहे हैं. कितने ?! ... पचास हज्जार !! पता है ना कितनी मिंडी लगती है पचास हजार में !! फेमिली प्लानिंग योजना भी इस डोनेशन योजना में शामिल है. जबरन नसबंदी-सेवा तो जनता को पसंद आती नहीं है. लोग जब एक बच्चे को पढाने में पस्त हो जायेंगे तो दूसरे बच्चे का विचार सपने में भी नहीं आएगा. इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ? सरकार जो करती है जनहित में ही करती है . प्रायवेट स्कूल देश सेवा के लिए आगे आये हैं और जनहित में डोनेशन स्वीकार रहें हैं तो उनका अभिनन्दन किया जाना चाहिए.
हम जानते हैं बच्चों के मामा कि जल्दी ही चुनाव आने वाले हैं !?
हाँ, ये भी एक कारण है. बल्कि मज़बूरी कहिये इसको. आप लोग जानते ही हैं कि असल जिंदगी में मंहगाई बहुत बढ़ गई है. बिना खर्चा किये जनता वोट भी नहीं देती है. आप लोगों को ही पिलायेंगे-खिलाएंगे. राम की चिड़िया राम का खेत. हमारा कुछ नहीं, सब आप लोगों के लिए ही है. आपको जो भी देना पड़ेगा वह लौट कर आपके पास ही आएगा. इसलिए मानों कि जो भी हो रहा है जनहित में है .
-----

गुरुवार, 15 जून 2017

भीगा आंगन, एक खिड़की और दो उदास चेहरे

प्रेम जैसे मामलों में स्मृतियों के द्वार तभी खुलते हैं जब संभावनाओं के दरवाजे बंद हो जाते हैं । एक उम्र के बाद बारिश के साथ पुरानी प्रेमिकाओं को याद करने का मौसम शुरू हो जाता है । मैं खिड़की के पास बैठा हूं और बाहर पानी के साथ यादें बरस रही हैं । मन गूंगे का गुड हो चला है , किसी को बता भी नहीं सकता कि किस चीज से भीग रहा हूं । बल्कि अभी कोई आ कर ताड़ ले तो छुपाना मुश्किल । हवाएं चुगलखोर हैं वरना बरसात के मौसम को कौन अहमक बेईमान कह सकता है । जाने क्यों गरमी या ठंड के मौसम में प्रेमिकाएं याद नहीं आतीं । ना सही गरमी में पर ठंड़ में तो आ ही सकती हैं । एक बार तो स्मृति के प्रतीक स्वरूप उनके भेंटे स्वेटर में घुसने की कोशिश की, जो बड़े जतन से सम्हाल कर रखा हुआ था । पता चला कि स्वेटर के साथ स्मृतियां भी टाइट हो गई हैं । दम घुटने लगा तो तौबा के साथ बाहर निकले और पूरी ठंड़ वैधानिक स्वेटर में काटी । यों देखा जाए तो गरमी का मौसम इस काम के लिए मुफीद है । उमस भरे दिनों में वैसे भी कुछ और करने का मन नहीं होता । फुरसत से उदास हो पंखे के नीचे बैठो और याद करो मजे में । लेकिन संविधानाअपनी सारी दफाओं के साथ इस उम्मीद से सामने होती हैं कि आप निठल्ले न रहें, बैठे-बैठे तसव्वुरे-जाना किए रहें । लेकिन पसीना बहुत आता है कमबख्त, कुछ गरमी से और उससे ज्यादा दीदार-ए-हुस्न-ए-मौजूद से । ज्यादातर वक्त सुराही-लोटा बजाते गुजर जाता है । लेकिन बारिश की उदासी मीठी होती है , जैसे हवाओं में आम की मीठी महक घुली हो ।
तजुर्बेकार स्मृतिखोर बारिश  के चलते खिड़की पर उदास बैठने से पहले हाथ में एक मोटी किताब ले लेता है । मोटी किताब का ऐसा है कि वे पढ़ने के काम कम , सिर छुपाने के काम ज्यादा आती हैं । हाथ में मोटी किताब हो तो ज्यादातर मामलों में होता यह है कि लोग आपसे बात नहीं करते, पत्नी भी नहीं । गोया कि किताब न हो राकेट लांचर हो । कालेजों में प्रोफेसरान मोटी किताब थामें निकल भर जाएं तो भीड़ रास्ता दे देती है । ये तजुर्बे की बात है, चाहें तो इसे राज की बात भी समझ सकते हैं । अक्सर मोर्चों से स्थूलांगिंनियां मोटी किताब देख कर सिकंदर की तरह लौटती देखी गईं हैं ।
हां तो मैं बारिश  शुरू होते ही हाथ में मोटी किताब ले, बाकायदे क्लासिक उदासी के साथ खिड़की के किनारे बैठ जाता हूं । अब आगे का काम मधुरा को करना था । मधुरा ! समझ गए होंगे आप । वो जहां भी होगी, उसे अवश्य पता होगा कि बारिश का मौसम है और वादे के अनुसार खिड़की पर उदास बैठा मैं उसे याद कर रहा हो सकता हूं । ठीक इसी वक्त आकाश  में एक बदली एक्स्ट्रा आ जाती है और साफ दिखाई देता है कि आंगन कुछ ज्यादा भींग रहा है । इसका मतलब कनेक्टिविटी बराबर है ! अब फालतू हिलना-डुलना , चकर-मकर होना रसभंग करना है । जैसे एक बार ट्रांजिस्टर  बीबीसी पकड़ ले तो जरा सा हिलने खिसकने से आप विश्व समाचारों से वंचित हो जाते हैं । बरसात में ऐसे ही यादों के सिगनल होते हैं, जरा एन्टिना हिला कि गए ।
‘‘ सुनो ..... क्या कर रहे हो ? ’’ इधर कान में शब्द  चेंटे उधर आकाश  में बिजली कड़की ।
‘‘ किताब पढ़ रहा हूं ...... दिखता नहीं है क्या !?’’ जाने स्त्रियां पत्नी बनते ही थानेदार क्यों हो जाती हैं ।
‘‘ किताब ! .... हाथ में तो भगवत् गीता है ! ’’
‘‘ हां ! ..... तो ? ’’
‘‘ आपने उल्टी पकड़ी हुई है । ’’
‘‘ अं .... हां , पता है । मैं अभी सीधी करने ही वाला था कि बिजली कड़क गई । ’’
‘‘ झूठ ..... सच सच बताओ उसी कलमुंही को याद कर रहे थे या नहीं ? ’’
‘‘ नहीं ... मेरा मतलब है कि किस कलमुहीं  को !!?’’
‘‘ तुम्हारे हाथ में गीता है , कसम खाओ कि जो कहोगे सच सच कहोगे । ’’
‘‘ इसमें कसम खाने वाली क्या बात है !?.... तुम भी बस ।’’
‘‘ ठीक कहते हो , रंगे हाथ पकड़े जाने पर कसम की क्या जरूरत है । ’’
‘‘ अब ऐसे बारिश  के मौसम में कोई याद आ जाए तो गुनाह थोड़ी है । ’’
‘‘ गुनाह नहीं है !? खाओ गीता की कसम । ’’
‘‘ हां गुनाह नहीं है , गीता की कसम । ’’
‘‘ तो ठीक है , थोड़ा उधर खसको, जगह दो । मुझे भी किसी की याद आ रही है । मेरा आंगन भी भीग रहा है । कुछ देर मैं भी उदास हो लूं । ’’
आंगन लगातार भीग रहा था, खिड़की उतनी ही खुली थी, भीतर दो उदास बैठे थे । लेकिन मेरी उदासी अब उतनी क्लासिक नहीं थी ।   

-----