बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

टमाटर मंडी के बाहर कवि

दोनों वरिष्ठ कवि मंडी से टमाटर खरीद कर लौटे थे. एक जमाना था जब वे दो-चार कविताएं सुना कर टमाटर-बैंगन वगैरह इकठ्ठा कर लिया करते थे. उस समय कविता को ले कर लोगों में जबरदस्त संवेदना थी. कवितायें तो उनकी आज भी वैसी ही हैं, टमाटर भी सस्ते हैं लेकिन लोगों ने बर्दास्त करना सीख लिया है.  ज्वाला जी के पास छब्बीस रूपये थे, उन्होंने तेरह किलो टमाटर खरीदे और इस सफलता पर उनके अंदर तक एक शीतलता उतर आई थी. प्याला जी के पास थे तो तीस रुपये लेकिन पच्चीस रुपये तात्कालिक भविष्य के लिए बचा कर उन्होंने मात्र ढाई किलो टमाटर खरीदे. खबरों से पता तो यह चला था कि किसान मंडी के गेट पर टमाटर फैंक कर चले जाते हैं. लेकिन वो कल की बात थी, आज टमाटर का भाव दो रुपये किलो रहा. प्याला जी की जेब अक्सर बदनाम रहती है इसलिए वे स्वभाव के विपरीत स्थाई गंभीर हैं. बोले- कितनी भीड़ थी मंडी में ! सारा शहर ही उमड़ पड़ा टमाटर खरीदने के लिए. इतने लोग नहीं आये होते तो शायद आज भी किसान फैंक कर चले जाते.
ज्वाला जी को अब कोई टेंशन नहीं था. साल भर की चटनी के लिए वे पर्याप्त टमाटर खरीद चुके थे. लिहाजा अब उनका संवेदनशील हो जाना सुरक्षित था, -- वो तो ठीक है, लेकिन किसान की सोचो. उस बेचारे की तो मजदूरी भी नहीं निकली. प्यालाजी नासमझ नहीं हैं, उन्होंने लापरवाही से जवाब दिया किसान की किसान जाने या फिर जाने सरकार. गेंहूँ,चावल,दाल वगैरह सब दो रुपये किलो मिले तो अबकी बार,रिपीट सरकार.
जरा ये तो सोचो, भाव नहीं मिलेंगे तो किसान आत्महत्या करने लगेंगे. ज्वालाजी जन-ज्वाला होने के मूड में आने लगे.
उन्हें आत्महत्या नहीं करना चाहिए. साहित्य की मंडी में हमारी कविता को कभी भाव नहीं मिले तो क्या हमने आत्महत्या की ?! प्यालाजी अपने अनुभव से ठोस तर्क दिया.
ज्वालाजी को लगा कि उन पर ताना कसा गया है, - दूसरों की तो पता नहीं लेकिन मेरी कविता को तो भाव मिलता है.
हां मिलता है, दो रुपये किलो. .... कल मैंने अखबार की रद्दी तीस रुपये में तीन किलो बेची थी. प्यालाजी ने अपना गुस्सा निकला.
दो रुपये ही सही, पर मैं मुफ्त में अपनी कविता फैंकता नहीं हूँ, कभी फेसबुक पर कभी यहाँ वहाँ . ज्वालाजी ने भी आक्रमण किया.
इस मुकाम पर बात बिगड सकती थी लेकिन दोनों ने हमेशा की तरह गम खाया. कुछ देर के लिए दोनों के बीच एक सन्नाटा सा पसर गया. साहित्यकारों का ऐसा है कि जब भी सन्नाटा पड़ता है तो उनमें समझौते की चेतना जागृत हो जाती है. पहल प्यालाजी ने की - अगर किसान खेती करने के साथ कविता भी करने लगें तो उनमें बर्दाश्त करने की क्षमता का विकास होगा. सुन कर ज्वालाजी ने लगभग घूरते हुए उन्हें हिदायत दी- कैसी बातें करते हो आप !! पहले ही बहुत कम्पटीशन है कविता में. जो भी रिटायर हो रहा है सीधे कविता ठोंक रहा है और काफी-डोसा खिला कर सुना रहा है !! और पता है किसानों के पास बुवाई-कटाई के बाद कितना समय होता है ! वो कविता के खेत बोने लगेंगे और आदत के अनुसार यहाँ लाकर ढोलने लगेंगे तो हमारा क्या होगा !? प्यालाजी को अपनी गलती का अहसास हुआ, बोले मुझे क्या, चिंता की शुरुवात तो तुम्हीं ने की थी. तुम्ही बताओ क्या करें ? ज्वाला जी सोच कर बोले- किसान पर कविता लिखो, और किसी गोष्ठी में ढोल आओ. ... बस हो गया फर्ज पूरा.

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