गुरुवार, 23 नवंबर 2017

बूढ़े नाग की अधूरी कविता


                    बहुत दिनों बाद बूढ़े नाग को फुरसत मिली और वह अपने दायित्वों से मुक्त हो कर बिल के बाहर निकला । दो घड़ों की रक्षा में कुण्डली मारे-मारे वह उब गया था । हालांकि घड़े उसकी कुण्डली के दायरे में ही थे फिर भी उसे चिंता बनी रहती थी । चिंता को जब उचित आउटलेट नहीं  मिले तो वह दिमाग की नसों को चोक करने लगती है । लिहाजा दीन-दुनिया के चिंतन के अलावा उसके पास को दूसरा विकल्प नहीं था । मजबूरी में उसे प्रगतिशीलता औढनी पड़ी । गरज ये कि घड़ों की चिंता में बैठा नाग दुनिया के जबरिया चिंतन में डूबा रहा । 
          योग-संयोग बना और घड़ों का सही मालिक आ गया । मुक्त बूढ़ा नाग गंगा नहा गया । अब उसके पास सिवा फुरसत के कुछ नहीं था । कुछ दिनों तक वह बिल से जबरन अंदर-बाहर होता रहा लेकिन फुरसत को हरा नहीं पाया । समस्या बराबर बनी हुई थी कि आखिर वह करे तो क्या ? सबसे बड़ी दिक्कत कुण्डली मार कर बैठने की आदत से थी । आदत का ऐसा है कि एक बार पड़ जाए तो अच्छों-अच्छों की नहीं जाती । बिना घड़ों के अर्थहीन कुण्डली मारने का कोई अर्थ नहीं था । परेशान हाल में घूमता एक दिन बूढ़ा नाग एक साहित्यिक गोष्ठी में जा बैठा । उसे बड़ा अच्छा लगा । यहाँ कुण्डली मार कर बैठने का मौका भी था और अर्थ भी । उसने फन ऊँचा करके देखा कि कुछ और भी थे जो कुण्डली मारे बैठे थे । अचानक अपनी बिरादरी में आ कर वह खु हो गया । 
                  गोष्ठी में एक दिन बोलने वाले कम थे तो कुछ लोगों ने बूढ़े नाग से आग्रह किया कि वह भी कुछ बोले । पहले उसे संकोच हुआ लेकिन बाद में उसने फन फैला कर फनवालों के दांत चुन-चुन का गिन दिये । लोग वाह-वाह करने लगे कि एक ‘फनकार‘ कितनी शिद्दत से फनवालों को बेनकाब कर रहा है ! उसे प्रतिबद्ध मान लेने में किसी ने देर नहीं की । बूढ़ा नाग पहली बार सार्वजनिक रूप से फुफकार रहा था और आत्ममुग्ध होता जा रहा था । आत्मविश्वास की पारसमणि जैसे उसके माथे पर चमक उठी । उस शाम वह इतना मस्त हो गया कि रात को सो नहीं सका । नींद नहीं आ रही थी सो मजबूरी में बिल के बाहर शेषनाग जैसी शैया बना कर आका तक रहा था कि अचानक उसकी निगाह चांद पर टिक गई । हिन्दी की पीएचड़ियों से पता चलता है कि चांद ताकने से कविता पैदा हो जाती है । यह बात बूढ़े नाग को पता नहीं थी । होती तो वह कुछ और ताकता या फिर अपनी जवानी के दिनों से ही ताकना शुरू कर देता । खैर, नाग के साथ भी वही होता है जो ईश्वर को मंजूर होता है । रात ढ़लते न ढ़लते एक कविता बूढ़े नाग के फन से पिघल कर कागज पर उतर आई । वह पहले रोमांचित और बाद में रोमांटिक हो उठा । उसे लगा कि अब यह कविता किसी समझदार नागिन को सुनाना चाहिये । उसे अपनी बीवी का ख्याल आया । लेकिन वो सुनेगी ! उसने आज तक कुछ नहीं सुना । शायद बीवियां कुछ सुनती नहीं, या फिर सुनती हुई प्रतीत होती हैं लेकिन सुनती नहीं । कभी सुन भी लेती हैं तो सहमत नहीं होती हैं या फिर सुने हुए पर ऐसी प्रतिक्रिया देती हैं कि सुनाने वाला महीनों तक सुनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए । बूढ़े नाग के लंबे जीवन के लिये हालांकि वे करवा चौथ का व्रत रखतीं हैं और चांद देख कर ही चूहा खाती हैं, किन्तु चांद से उतरी कविता वे आसानी से हजम कर लेंगी इसमें शंका का थी । बूढ़े नाग को लगा कि का उसकी कोई प्रेमिका होती । प्रेमिकाएं सुनतीं हैं , मुग्ध होतीं हैं, प्रेरणा देतीं हैं । वह समझ गया कि साहित्यकार जो भी रचते हैं अपनी प्रेमिकाओं के लिये ही रचते हैं और पारिश्रमिक या रायल्टी के छिलके बीवी के सामने पटकते जाते हैं। लेकिन अब समस्या यह थी कि इस उम्र में बूढ़े नाग को प्रेमिका मिले तो कहाँ ! 
          जिन प्रगतिशीलों की प्रेमिकाएं नहीं होतीं वे अपनी रचनाएं गोष्ठियों में सुनाते हैं । मजबूरी में बूढ़े नाग को भी यही करना पड़ा । गोष्ठियों में दाद एक कर्ज होती है । जैसा व्यवहार आप अपने लिये चाहते हैं वैसा ही दूसरों के लिये करने का अघोषित क्रूर नियम होता है । इस नियम के तहत बूढ़े नाग को काफी दाद मिली । उत्साह से भरा वह दो-तीन कविताएं रोज पेलने लगा ।
          कोई ज्यादा लिखे तो समकालीनों में चिंता बढ़ जाने का रिवाज है । लोग चिंतित होने लगे । बूढ़ा नाग इसी तरह लिखता रहा तो कविता में उसके नाम का जहर फैलने का डर पैदा हो जाएगा । इस पर चिंतन होने लगा, पहले निजी स्तर पर बाद में खुल्लम-खुल्ला सामुहिक रूप से । एक लाइन का सवाल मात्र यह था कि किसी को लिखने से रोका कैसे जाए ? विचार करते रहने से रास्ता मिलता है । दरबारों में विद्वानों को चिंतन करने और रास्ते निकालने की तनख्वाह दी जाती थी । सात प्रगतिशील विद्वान  मिल-बैठ कर पहले समस्या चुनते हैं, नहीं हो तो पैदा कर लेते हैं, फिर उसके समाधान खोजते हैं जो प्रायः समस्या से भी बड़े यानी बड़ी समस्याएं होते हैं । लेकिन ये सब नहीं होता यदि मामला साथ बैठने वाले लेखक का हो । एक दिन कविता अधूरी छुडवा़ कर बूढ़े नाग को सबने वाह-वाह, वाह-वाह करते हुए अपने लेखक संघ का अध्यक्ष बना दिया । 
          अब वह अध्यक्ष था, उसका सारा ध्यान इस कोशिश में लग गया कि कुण्डली मार कर बैठने में गरिमा कैसे पैदा की जाए ? छोटी इकाइयों में उसे स्वागत-सम्मान-पुरस्कार-अलंकरण आदि के लिये बुलाया जाने लगा । धीरे-धीरे मुख्य अतिथि होने की उसे आदत पड़ने लगी । शीघ्र ही उसे लगने लगा कि बिना अध्यक्षता के अब वह जी नहीं सकेगा । इसलिये जिन्होंने उसे सम्मान दिया उसे उसने अपनी अध्यक्षता से सम्मानित किया । जिन्होंने पुरस्कार दिया उन्हें पुरस्कृत किया, जिसने महान कहा उसे महान बताया । जिसने पत्र लिखा उसे पत्र, जिसने फोन किया उसे फोन और जो मौन रहा उसके लिये मौन । गरज ये कि बूढ़ा नाग पूरी तरह से साहित्यिक गतिविधियों में व्यस्त हो गया । अब उसके पास समय बिल्कुल नहीं है, न चांद देखने का और न ही अधूरी कविता को पूरा करने का । 
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बुधवार, 8 नवंबर 2017

विचारधारा की पूंछ


कई बार विचारधारा भी गंगा की धारा की तरह पवित्र होती है. लोग इसमें भी डुपकी लगा कर अपने को साफ कर लेते हैं. जैसे एक थी गाँधी की विचारधाराजिसके कारण सबसे पहले गाँधी साफ हो गए. उसके बाद सत्तर साल का समय लगाएक एक करके हजारों गाँधीवादी सूखतेझरते और साफ होते गए. अब कहीं कोई गाँधीवादी भूले से भी दिखाई दे जाए तो टीवी वाले माइक मुंह में ठूंसते भिड़ जाते हैं कि ‘स्मार्ट सिटी और सुपरफास्ट ट्रेन के बारे में सुन कर आपको कैसा महसूस हो रहा है ?, खादी का कुरता-पजामा खरीद कर पहनते हो या चरखे से कात कर बनाते हो ?, सुबह नाश्ते में आमलेट खाना शुरू कर दिया या अभी विचार करने में और समय लेंगे ?, एफ टीवी पसंद है ?, नचबलिये कैसा लगता है ?’ वगैरह. 
हमारा देश चमत्कारों के लिए भी जाना जाता है. यहाँ विचारधारा के बिना भी आज लाखों गाँधीवादी हैं. जैसे दसवीं फेल किसी राज्य का शिक्षा मंत्री होता है. जैसे खाली होने के बाद भी बोतल शराब की होती है. जैसे सत्तर साल पुराने लोकतंत्र में आज भी श्रीमंत और महाराज दरबार की तमन्ना में सिंहासन जमाये बैठते हैं. नया जमाना है, नयी गाँधीवादी नस्ल आधार कार्ड में दर्ज हो रही है. फर्क सिर्फ इतना है गाँधी वन पीस बकरी को प्रेम करते थेनये गाँधीवादी पीस में इंजॉय करते हैं. गाँधी अगर मूर्ति नहीं होते तो गांधीवादियों के कारण उठ उठ कर भाग रहे होते और यह तय था कि वे न्ना जारे की तरह कहीं ऐसे गुम हो जाते कि किसी को पता भी नहीं चलता कि हैं या नहीं हैं. दो अक्तूबर को टीवी वाले सुभाष चन्द्र बोस की तरह उनके होने न होने के किस्से दिखा दिखा के दिन पूरा कर लेते. दूसरे दिन इस मुद्दे पर पार्टी का युवा नेता दावा करता कि पार्टी में विचारधारा है. जल्द ही इसको खोज लिया जायेगापार्टी का दफ्तर बहुत पुराना और बड़ा है. कौन सी चीज कहाँ पड़ी है किसी को पता नहीं. मिलते ही हम हनुमान चालीसा की तरह विचारधारा का गुटका संस्करण छपवा लेंगे, जो हर पार्टीमेन को जेब में रखना अनिवार्य होगा ताकि जब भी कोई पत्रकार पूछे तो तुरंत निकल कर दिखा सके. देसी पत्रकार चोटी कटवा कीड़ा होता हैकब किसकी काट दे पता नहीं. एक बार विचारधारा का मामला सुलझ जाये तो पार्टी अपने निजी पत्रकारों की एक विंग भी तैयार करेगी और मिडिया में घुसा देगी.  दूसरी पार्टी वाले ऐसा करते हैं इसीलिए वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता और हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम. 
साहित्य के क्षेत्र में भी दल और इलाके हैं. यहाँ भी पूरा दलगत-राजनीतिक माहौल पल्लवित है. गौर से देखें तो केंद्र और राज्य की सत्ताएं भी दिखाई दे जाती हैं. विचारधाराएँ यहाँ भी हैं जो आचरणों में भले ही नहीं दिखें लेकिन लागू शर्तों के तहत भाषणों और छपे शब्दों से चूती-टपकती रहती हैं. बड़े आलोचकलेखक दिल्ली में अपने तय किये लालकिलों  पर अपना झंडा लहराते हैं. इसी तरह बहुमत प्राप्त दल राज्यों में भी अपनी आज़ादी का जश्न मना लेते हैं. विचारधारा यहाँ भी गांधवाद की तरह पुख्ता है. विचारधारा से ही सोया-जागा, अपना-पराया तय होता है. जिनके गले में विचारधारा की लाल-नीली जनेऊ होती है वे अपने को हिंदी साहित्य का सरयूपारी मानते हैं. हर गुट अपने अपने पहलवानों को टॉपटेन घोषित करते हुए इस बात की परवाह नहीं करता कि साहित्य प्रेमी नोटा दबा कर अपने मनोभाव व्यक्त कर रहे हैं. 
पुरस्कार लौटने के बाद सकुचाते कवि अर्सा बाद लौटे हैं. देखा कि लोग विचारधारा से मुक्त हैं. पिछली बार आये थे तब जगह जगह गतिशील विचारधारा के समर्थक हुआ करते थे. रोज शाम को कहीं इकठ्ठा हो कर कविता सुनते सुनाते थे. लेकिन आज कोई दिखाई नहीं दे रहा है ! सोचा कि अशोक नगर चल कर देखते हैं. वहाँ दुलेस यानी दुर्गतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहा करते थे. सौभाग्य से वे मिल गएपूछा- ‘ कामरेड विचारधारा का क्या हुआ ?’ बिना किसी संकोच के उन्होंने बताया – “मैंने तो मुरब्बा बना लिया, .... और ज्यादातर लोगों नेजिनके पास थोड़ी बहुत थी उनमें से कुछ ने आचार डाल लिया,... बाकी ने नगर निगम की कचरा गाड़ी में डाल कर अच्छा नागरिक होने का गौरव हांसिल कर लिया. .... जो लोग कभी कॉफ़ी हॉउस में मिला करते थे अब योग कक्षाओं में सूर्य नमस्कार सीख रहे हैं. इससे उनका पिद्दी सीना इंच दर इंच चौड़ा हो रहा है. देश को मजबूत बनाना है तो शरीर पर ध्यान देना होगा. दिमाग और विचार पर ज्यादा उर्जा खपाना सरकार को भी पसंद नहीं है. वो भी विचारधारा मुक्त देश बनाना चाहती है. जब आम आदमी मशीन की तरह हो जायेगा और बिना सोचे निर्देशों पर काम करेगातब देश तरक्की के राजमार्ग पर दौड़ेगा. रोटी उन्हें ही मिलेगी जो उत्पादन का हिस्सा बनेंगे.”
कवि चौंके- “ बाकी को क्या फांसी पर चढ़ा दोगे !?”
“नहीं, उन्हें बीमार घोषित कर सरकारी अस्पताल में इलाज किया जायेगा. जब कोई मजबूत व्यवस्था में बेकार साबित होने लगता है तो व्यवस्थागत मौत एक स्वाभाविक मौत मानी जाती है. देश को एक ताकतवर देश बनाने के लिए सबसे पहले हमें गरीबों और बेरोजगारों से मुक्त होना होगा.” पूर्व दुलेस अध्यक्ष बोले. 
कविराज को विश्वास नहीं हो रहा था कि वे उस आदमी के सामने खड़े हैं जो कभी दुर्गतिशीलता का झंडा लिए चलता था. बिना कुछ पूछे वे फिर बोले-“कविराजविचारधारा  की दुम पकड़ कर भवसागर पार नहीं किया जा सकता. पार उतरने के लिए गाय की पूंछ पकड़ना जरुरी है.” 

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रविवार, 15 अक्तूबर 2017

कचरा युद्ध


दो घरों के बीच एक खाली प्लाट हो तो दिवाली की सफाई का आनंद दूना हो जाता है. मिसेस तलवार ने मकान किराये पर लेते वक्त खास तौर पर इसका ध्यान रखा था कि घर के पास कम से कम एक खाली प्लाट होना ही चाहिए चाहे किराया दो-चार सौ ज्यादा लग जाये चलेगा. आज दिवाली की सफाई के दौरान जब दूसरे लोग अपना अटाला और कचरा लिए इधर उधर घूम रहे हैं या फिर हल्ला-गाड़ी का इंतजार कर रहे हैं, मिसेस तलवार आराम से टोकरी भर भर के अपना कूड़ा पडौस के प्लाट में डाल रही हैं. मिस्टर तलवार पुलिस महकमें में हैं और इस बात को उन्होंने मोहल्ले के पचास पचास घरों तक सबको बता दिया है. साथ में यह भी कोई उनके पास वाले प्लाट में कचरा नहीं डालेगा, सिर्फ वे ही डालेंगी.
मिसेस तलवार बेहद सफाई पसंद हैं. जो साफ कपड़े महीने भर तक पहने नहीं गए हों उन्हें भी धुलवा लेती हैं चाहे वे पहले से घुले और प्रेस किये रखे हों. बर्तनों का भी ऐसा ही है. बिना वापरे ही हर तीसरे दिन बर्तन मंजवना उनके लिए जरुरी है. उनका तर्क है कि जब कल का नहाया आदमी आज फिर नहाता है तो कपड़े-बर्तन के साथ अन्याय क्यों ? घर में फर्श का हाल यह है कि चाहे कितनी भी ठण्ड क्यों न हो वे दिन में दो बार पोंछा अवश्य लगवाएँगी. कई बार तो लगता है कि फर्श मिसेस तलवार को देख कर कांप रहा है.
इस बार मामला जरा चुनौती का हो गया है. हो यह रहा है कि सामने वाली मिसेस बाघमारे के घर की सफाई चल रही है और वे भी घर का कूड़ा कचरा दनादन खली प्लाट में डलवा रही हैं. कचरा क्या डलवा रहीं हैं लगता है मिसेस तलवार को सीधे चुनौती दे रही हैं. उनके पति यानी बाघमारे जी नेता हैं और हाल ही में पार्टी के नगर अध्यक्ष हो गए हैं. उनका कहना है कि पुलिस-उलिस को तो वे अपनी जेब में रखते हैं. उनकी जेब में मिसेस बाघमारे कभी भी हाथ डाल सकती हैं और मन में आये उसको यहाँ से वहां फैंक सकती हैं. जाहिर है मिसेस तलवार से उन्हें रत्ती भर भी डर नहीं है. बल्कि वे अब चाहती हैं कि मिसेस तलवार उनसे भले ही डरें नहीं पर इज्जत तो करें.
इधर मिसेस तलवार का पारा गरम हो कर लगातार उछालें मार रहा है. कुछ कर नहीं सकतीं लेकिन प्रतिस्पर्धा से बहार होना भी उन्हें गवारा नहीं है. उन्होंने अपना और कचरा प्लाट में फैंकना शुरू किया. लेकिन एक साथ जरुरी कचरा घर में उपलब्ध नहीं था. मजबूरन थाने का कचरा भी उन्हें बुलवाना पड़ रहा है. इस बहाने थाने की सफाई भी हो रही है और सिपाही कचरा ला कर मिसेस तलवार की तरफ ढेर कर रहे हैं. मिसेस बाघमारे ने भी नेतागिरी के प्रभाव से तमाम लोगों का कचरा अपनी साईड ढेर करवाना शुरू कर दिया. दो प्रभावशाली देवियों में कचरा युद्ध चल रहा है. जिसका पहाड़ जितना ऊँचा होगा वो उतना ही दूसरे को नीचा दिखा पाएंगी. एक पावर गेम सा कुछ है जो चल रहा है. लेकिन इस बहाने घर, मोहल्ला यहाँ तक कि थाना भी साफ हो गया है.

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शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

कायनात में बैंक और सुन्दरी

अखबार पढ़ने की आदत अच्छी है, इससे व्यक्ति की सोच और समझ सात कलम, बारह पन्नों की सुरंग में गहरे तक उतरती है. पिछले कई दिनों से पढ़ रहा हूँ कि कैसे समझदार लोग देखते देखते करोड़पति बन गए ! दुनिया में सब तरह के लोग हैं, जिन्हें होना है वो हो जाते हैं और जिन्हें देखनाभर है वे टूंगते रह जाते हैं. मैं इसी श्रेणी में हूँ और अखबार के जरिये देख रहा हूँ और सोच भी रहा हूँ. सोचना एक अच्छा काम है, हालांकि इसको ले कर समाज में मत विभाजन है. कुछ लोग कंधे पर हाथ रख कर हिदायती अंदाज में कहते हैं कि ज्यादा मत सोच पगले, ये अच्छी बात नहीं है. दूसरे मत वाले बोलते हैं कि सोचो, कोई तो रास्ता निकलेगा. मै सोचता हूँ कि मुझे सोचना चाहिए. जबरिया सोचने से भी रास्ते निकल आया करते हैं. जो लंबे रास्ते पकड़ कर यहाँ से निकल लिए हैं निश्चित ही उन्होंने शुरुवात सोचने से ही की होगी. सोचने के लिए हाथ पैर हिलाने जरूरत नहीं पड़ती, इससे अच्छी बात और क्या होगी. बस बैठे रहिये मजे में और सोचते रहिये खरामा खरामा. इस साधना के चलते दुनिया अगर आपको निकम्मा भी समझती रहे तो चिंता मत कीजिये. ये वो समाज है जो आरम्भ में निंदा करता है लेकिन बाद में चरणों में लोटता है. कोई अगर ठान ले तो बिना रियाज के भी सोच सकता है. कलाम साहब ने कहा था कि सपने देखो. सपने तो मुझे भी बहुत आते हैं, ऐसे ऐसे कि आपको क्या बताऊँ !! आज ही एक सपना आया था.... लेकिन छोडो, आपको लगेगा कि हाय मुझे क्यों नहीं आया. जरुरी नहीं कि कोई आदमी सपने में भी पैसों के पीछे ही भागे. विश्व सुंदरियाँ हर किसी के सपने में आती भी कहाँ हैं. आदमी में सौंदर्य बोध भी होना चाहिए. भाई साब सपने देखना भी एक तरह की जिद है. मन लायक सपने देखना सीखने में कई बार एक उम्र खर्च हो जाती है. किसी फ़िल्मी हीरो ने कहा है कि अगर आप दिल से किसी को चाहते हो तो सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश करती है.
अभी ये सोच चल ही रहा था कि फ़ोन आया. उधर से एक सौम्य स्त्री का स्वर सुनाई दिया- मैं फलां बैंक से फलां बोल रही हूँ. आगे कुछ और रटे जुमलों के बाद उसने पूछा क्या आपको लोन की जरुरत है ? मैं समझ गया कि प्रोसेस शुरू हो गई है. कायनात में यह बैंक और सुन्दर युवती भी शामिल है. आपका एक वाजिब सवाल हो सकता है कि यह युवती है और सुन्दर भी है, यह तुम्हें कैसे पता !? तो मैं कहूँगा कि आपकी और मेरी सोच में यही अंतर है. खैर मैंने उसे कहा कि लोन की बहुत जरुरत है जी. हिंदुस्तान में पैसे की जरुरत भला किसे नहीं है. सबसे ज्यादा जरुरत तो पैसे वालों को ही है.
सुन्दर युवती बोली – “बैंक जानती है सर. दरअसल देश में गरीब बहुत हैं और गरीबों को रुपयों की नहीं रोटी की जरुरत होती है और आप भी जानते हैं कि बैंक रोटी नहीं बनाती है. इसलिए हम गरोबों से बात नहीं करते हैं. खैर, जान कर अच्छा लगा कि आपको रुपयों की जरुरत है. सर, क्या मैं ये जान सकती हूँ कि आपको कितना लोन चाहिए.
बोतल-किंग काल्या को कितना दिया था ? मैंने पूछा .
काल्या जी हजार करोड़ से ऊपर ले गए थे.
कुछ और सुविधाएँ भी तो दीं होंगी उसको ?
विलफुल-डिफाल्टर की सुविधा है सबके लिए. लेकिन इसके लिए आपकी तरफ से मजबूत दावेदारी प्रस्तुत करना होगी.
ठीक है, तो आप प्लीज लोन देने की प्रक्रिया शुरू कीजिये.
ओके सर, आपके पास कोई प्रोजेक्ट है जिस पर लोन दिया जा सके ?
प्रोजेक्ट तो नहीं है. लेकिन आपको इससे क्या, आप लोन दीजिए, ये बैंक का काम है.
प्रोसीजर है सर, आप प्रोजेक्ट बनवा लीजिए, आजकल तो बन जाते हैं.
छोडिये, इतना टाइम नहीं है मेरे पास.
आपको ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं सर, बैंक अब हर कदम पर आपके साथ है. प्रोजेक्ट हमारे पास तैयार पड़े हैं , आप बस साइन करें, काम हो जायेगा.
बड़े कस्टमर्स को आप बैंक में बुलाते हैं क्या !?
हम आ जायेंगे सर, आखिर लोन तो हमें देना है. ..... वैसे आपके पास कोई प्रापर्टी तो होगी ?
प्रापर्टी तो तब बनेगी जब आप लोन देंगे. समझिए कि आपका लोन ही प्रापर्टी है. आपको अपने ही लोन को प्रापर्टी समझने में कोई दिक्कत है क्या !?
पहले की कोई प्रापर्टी नहीं है क्या !? इस बार सुन्दर युवती ने सर नहीं कहा .
है तो, पर उन पर आलरेडी लोन ले रखा है.
चलेगा सर, आप हमें यह मत बताइयेगा कि आपने उन पर लोन ले रखा है.
ओह !! सॉरी . मैंने तो अभी आपको बता दिया !
फोन पर बताया सर, पेपर पर नहीं. बैंक के कान नहीं होते हैं, आप चिंता मत कीजिये.
कितनी सुन्दर हैं आप.
थेंक्स सर. ....!!
एक बात और पूछना थी.
जी, पूछिए सर .
बोतल-किंग काल्या का कितना लोन राइट ऑफ किया था आपकी बैंक ने ?
जब बैंक को चिंता नहीं है तो आपको चिंता क्यों सर !! हम देते फास्ट हैं, लेते स्लो हैं. बैंक का व्यवहार सबके साथ सम्मानजनक होता है, बशर्ते वो गरीब न हो.
वाह शुक्रिया आपका, आप वाकई बहुत सुन्दर हैं.
थेंक्स सर.
आपकी बैंक लोन देने में बड़ी फास्ट है !
क्या करें सर, जनता का पैसा बैंक पर बोझ होता है. आखिर हम लोग कितना वेतन ले सकते हैं !! हद होती है किसी चीज की ! आप जैसे लोग ना हों तो बैंकें हाय हाय करते दाम न तोड़ दें.
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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

राजा साहब मुस्कराए !


राजा साहब  के महल के बाहर एक घंटा लगा हुआ है जिसे न्याय-घंटकहा जाता है. आप कहेंगे कि राजा कहाँ हैं अब ? तो भईया देखा जाये तो न्याय भी कहाँ है अब ? जैसे घंटा लटक रहा है वैसे ही राजा भी लटक रहे हैं लोकतंत्र के मंदिर में. जो श्रद्धालु है वे बजा लेते हैं मौके और दस्तूर के हिसाब से.  इसी न्याय-घंट को एक आदमी लगातार बजाए जा रहा है. कायदे से उसे एक बार बजा कर इंतजार करना चाहिए लेकिन वह लगातार बजा रहा है. पूछने पर बोला कि जनहित याचिका के मामले में न्याय के कान में अक्सर तेल पड़ जाता है. रनिवास में व्यस्त राजा साहब का कतई मन नहीं है फिर भी वे कुछ जरूरी काम अधूरे छोड़ कर वे बाहर निकले तो ताक में बैठे उनके दरबारी-रत्न यानी कविराज, वैद्यऔर मस्त-मिडिया चट से उनके पीछे खड़े हो गए. राजा साहब ने फरियादी को घूरा, जिसका मतलब था कि घंटा बजाने की हिमाकत क्यों ?
फरियादी के कहा –“ हुजूर, प्रजा की रक्षा कीजिये मालिक. चोर-उचक्के, गुंडे-मवाली, लुटेरे-हत्यारे सब बेख़ौफ़ हो गए हैं.  घरों में रोज चोरियां हो रही हैं , यात्रियों से सामान लूट लिया जाता है, राह चलती औरतों के गले से चेन खींची जाती है.  बूढ़े मार डाले जा रहे हैं, बच्चे चुराए जा रहे हैं. रिआया अपने  को असुरक्षित समझ रही है.
सुन कर राजा साहब कुछ देर तक विचार मुद्रा में रहे. ऐसे मौकों पर विचार करते दिखने की सुदीर्ध परम्परा रही है हमारे यहाँ. फौरीतौर पर फरियादी की आत्मा को इससे तसल्ली मिल जाती है कि हुजूर उसके पक्ष में सोच रहे हैं. देखा जाये तो लोकतंत्र में जनता तसल्ली में रहे यह बड़ी बात है. भोली रिआया तो इसी बात से खुश हो लेती है कि हुजूर सोचते भी हैं. मौके और दस्तूर के हिसाब से मिडिया ने फ़ौरन कुछ फोटो ले लिए. पास खड़े वैद्यराज और कविराज-कक्कड  से राजा साहब ने पूछा इस फरियाद का यह मतलब क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए कि लोगों  के पास बहुत धन है और उनके अच्छे दिन आ गए हैं ?
ठीक कह रहे हैं हुजूर, अगर लोगों के पास धन नहीं होता तो चोरी जैसे अपराध की गुंजाईश कहाँ रहती, स्त्रियां सोना नहीं पहनती तो चेन खेंचने वालों को अवसर कैसे मिलते. क्राइम रिपोर्ट से प्रमाणित होता है कि प्रजा के अच्छे दिन आ गए हैं. इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है . हुजूर की जय हो. कक्कड ने समर्थन लेपन किया.
वैद्यराज ने अनुमोदन की पुडिया आगे की - राजा साहब आप ठीक कह रहे हैं , अब आमजन भी भोगविलास की ओर उन्मुख हो गए है. इन दिनों वाजीकरण के राजसी नुस्खों की मांग बहुत हो गई  है. अच्छे दिनों का इससे बड़ा प्रमाण कोई नहीं है.
कविराज-मक्कड ने दूसरा पक्ष रखा, क्योंकि वह नया नया कवि है , उसका काम है कविराज-कक्कड की  बात को काटना, बोले– “ राजन, फरियादी सच कह रहा है, आपके संसदीय क्षेत्र में कुछ लोगों ने आतंक मचा रखा है. वे सरगना की तरह काम करते हैं, मार-पीट और हप्ता वसूली भी खूब हो रही है. उन पर कड़ी कार्रवाई होना चाहिए .
इस बार राजा साहब सचमुच सोच में पड़ गए,  बोले –“ अगर हमें टिकिट नहीं मिला होता तो ये सरगनागिरी हमें करना पड़ रही होती. अगली बार अगर टिकिट उन लोगों को मिल गया तो सत्ता में वे होंगे. तब हमारे लल्लों-पिल्लों को रोजगार की समस्या होगी. आज अगर हम उन पर कार्रवाई करेंगे तो कल वे इन पर करेंगे. हमारी सेना का घर कैसे चलेगा.
कुछ तो करना पड़ेगा राजन, फरियादी अभी तक घंटे की रस्सी पकड़े खड़ा है. .... विलम्ब  किया तो ये फिर घंटा बजाने लगेगा, दूसरे तमाम लोग इकठ्ठा हो जायेंगे और बैठे बिठाये ब्रेकिंग न्यूज बन जायेगी . मस्त-मिडिया ने राजा साहब को चेताया.
कविराज कक्कड, बारीकी से विचार करो, कोई नया रास्ता निकालो. तुम्हारा नाम पद-श्री पुरस्कार के लिए आगे बढाया जा रहा है. चिंतित राजा ने कहा .
हुजूर, लोगों को कहा जाये कि वे अपने घर में नगद नहीं रखें, नगद नहीं होगा तो चोरी कैसे होगी. औरतों को नकली चेन पहनने को कहा जा सकता है. उसके बाद भी अगर प्रजा आदेश का उलंघन करती है तो शासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी.
राजा साहब को बात ठीक लगी, सो उन्होंने न्याय की ओर कदम बढाया, बोले- नागरिक तुम्हारी फरियाद पर विचार कर लिया गया है. अब प्रजा अपने घर में दस हजार से ज्यादा नगद नहीं रख सकेगी. अगर चोरी हुई तो माना जायेगा कि चोरी मात्र दस हजार की हुई है. महिलाएं भी नकली चेन पहनें, चेन खींची जाने पर शासन मानेगा कि नकली खींची गई है.
लेकिन हुजूर, फरियाद ये है कि गुंडे बेख़ौफ़ हैं , उसका क्या !?
हाँ गुंडों को दिक्कत तो होगी, लेकिन उनके लिए उचित मुआवजे की व्यवस्था की जायेगी.
लेकिन लोगों के पास दस हजार से ज्यादा रकम होती है. आप तो जानते ही हैं कि नब्बे प्रतिशत बिजनेस दो नम्बर में होता है, गलत सरकारी नीतियों के कारण लोगों को घर में लाखों-करोड़ों रखना पड़ते  हैं .
घरों में लाखों-करोड़ों होते हैं !! फिर तो डाका हमें ही डालना चाहिये. राजा फुफुसये.
कविराज मक्कड ने भी टेका लगाया, हुजूर, आपको डाका डालने कि क्या जरुरत है. आप छापे डलवाइये.
जहां तक इन अपराधों का सवाल है इसके लिए प्रजा ही  जिम्मेदार है. इसलिए इन पर कोई कर या जुर्माना  लगाया जाना चाहिए .
आयकर, संपत्ति कर, स्वास्थ्य  कर, मनोरंजन कर, सफाई कर, पढाई कर, और भी तमाम कर लगे हैं , ..... अब कौन सा कर लगा सकते हैं ? राजा सोच में पड़े या उन्होंने सवाल किया .
सौंदर्य कर या श्रंगार कर लगाना उचित होगा.
प्रदर्शन कर या दिखावा कर भी लगाया जा सकता है.
हुजूर, घंटा-कर ही लगा दें तो कैसा रहेगा. लोग फरियाद करके दोबारा लुटने नहीं आयेंगे .
राजा साहब मुस्करा उठे. सिपाही फरियादी की जेब तलाशी में जुट गए .
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