बुधवार, 30 नवंबर 2016

जहाँ भक्तों का स्वर्ग गुम है

ज्ञानपति जी के मकान के पास खाली जमीन पड़ी है जिस पर काफी घास और तमाम तरह के पौधे उगे हुए हैं. जैसे आप ज्यादा नाप-जोख के चक्कर में पड़ें बगैर एक आदमी का सीना चौपन इंच से ऊपर मान लेते हैं, ठीक वैसे ही इस खाली जमीन को हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य का नजारा कह सकते हैं. कोई मेहमान जब ज्ञानपति जी से इस खाली जमीन, उसकी हरियाली और खुलेपन वगैरह को लेकर अच्छी टिपण्णी करता है तो वे बस इतना ही कहते हैं कि घर के पास इतना खुलापन हो तो लगता है स्वर्ग यहीं हैं. उन्होंने स्वर्ग नहीं देखा है, लेकिन कहा ना, कोई नाप-जोख के चक्कर नहीं पड़े तो स्वर्ग भी है. वे मानते हैं कि स्वर्ग में कुछ और हो न हो खाली जमीन अवश्य है. इसलिए ग्राम्य जीवन को वे स्वर्ग का जीवन मानते हैं. हालाँकि यहाँ उनके भक्त हैं जिनकी वजह से वे करीब करीब भगवान हैं. उनका स्वर्ग भक्तों के कारण है लेकिन श्रेय वे खुली जमीन को देते हैं. लेकिन अब भीड़ इतनी हो गई है कि कभी कभी उन्हें गुस्सा सा आने लगता है. जब भी वे किसी विवाह में जाते हैं तो बहुत मन करता है कि नवदंपत्ति को कहें कि बच्चा एक ही अच्छा. लेकिन जिसके खुद सात बच्चे हों वो अंदर से कितना कमजोर होता है ये वही जानते हैं. खैर, इस खुली जमीन के भरोसे ज्ञानपति जी ने एक गाय भी पाल रखी  है. वे मानते हैं कि उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी लोगों को पुण्य कमाने के अवसर प्रदान करना है. आज के समय में पाप इतने बढ़ गए हैं कि गाय को गुड-रोटी खिलाये बगैर मुक्ति नहीं हैं. यह बात लोग  समझते हैं. एक तो गाय, ऊपर से खुद ज्ञानपति जी की, ... जिधर से निकलती है सत्ताधारी विधायक की तरह निकलती है. यों तो यहाँ गायें और भी हैं, लेकिन ज्ञानपति जी की गाय को रोटी देना प्रकारांत में ज्ञानपति जी को भोग लगाना है. क्योंकि ज्ञानपति जी इसी के दूध की चाय पीते हैं. इसलिये घरों से निकल कर स्त्रियां गाय को रोटी देती हैं और हाथ जोड़ती हैं, कुछ तो गाय के पैर यानी खुर भी छूती हैं लेकिन गाय ज्ञानपति जी की तरह इस पर ध्यान नहीं देती है. उसका ध्यान सिर्फ रोटी पर होता है. रोटी तो वे कुत्तों को भी देती हैं लेकिन उनके हाथ नहीं जोडतीं है. रोटी में फर्क नहीं है लेकिन देने के इस फर्क को उपेक्षित कुत्ते नोट करते आ रहे हैं. किसी दिन उनकी सरकार बन गई तब हिसाब होगा. बहरहाल, गाय आसपास के तमाम घरों से रोटियां खा कर  खुली जमीन पर आ जाती है. अब यहाँ गुंजाईश निकल कर थोड़ी घास भी चरेगी ताकि उसमें गायपन बचा रहे, क्योंकि गायपन ही उसकी पूंजी है. ठीक इसी वक्त ज्ञानपति जी अपने वरांडे में बैठे पंचांग देख रहे होते हैं. जिस तरह गाय को गाय बने रहने के लिए घास चरना पड़ती है उसी तरह ज्ञानपति जी को ज्ञानपति बने रहने के लिए पंचांग देखते रहना पडता है. उन्हें पंचांग देखते हुए लोग देखें यह जरुरी है. पंचांग उनका हथियार है जिससे वे जीवन की हर जंग लड़ते आ रहे हैं. वे मानते हैं और जानते भी हैं कि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. रोज रोज पंचांग देखते-दिखाते रहने से एक ऐसी पवित्र व्यवस्था कायम हो जाती है जहाँ भक्तों का स्वर्ग गुम है और उसे वे ही खोज सकते है.
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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

हो गई पीर पर्वत सी *

उन्हें पिताजी ने समझया था कि बेटा सतरंगी तिजोरियों वाली इस दुनिया में पैसा एक मास्टर चाबी है. इससे धरती के ही नहीं स्वर्ग के ताले भी खुलते हैं. नगदी जेब का एक जिन्न है जो हर समय जो हुक्म मेरे आका कहता कुछ भी करने को तैयार रहता है. चाहे इससे न्याय खरीद लो या किसी के नाम की सुपारी दे दो. शिक्षा ले लो, स्वास्थ्य खरीद लो. नेता से लेकर चपरासी तक सब तुम्हारे. आसमान में जहाज उड़ाओ या जमीन से तेल निकाल लो. अच्छा हुआ कि वे सिधार गए वरना आज इस मरे जिन्न को बर्दाश्त नहीं कर पाते. स्मृतियों में वे पिघल रहे थे, क्या क्या नहीं करना पड़ा उन्हें इस करारे पर्वत को खड़ा करने के लिए. झूठ, फरेब, बेईमानी, दो नंबर ही नहीं तीन और चार नंबर तक सब किया तब कहीं जा कर पैसे का यह पर्वत बना. फावड़े से खींचते रहे थे लेकिन हमेशा विनम्रता से यही कहा कि भगवान दाल-रोटी दे रहा है. भगवान के नाम पर सरकारें बन जाती  हैं तो पैसा बनाने में भला काहे की दिक्कत. लेकिन अब जा रहा है तो दुःख भी पहाड़ सा है. अंदर गा रहा है कोई तेरा जाना .... दिल के अरमानों का लुट जाना.
नोटों का एक पूरा पर्वत समाया हुआ है उनके शयन कक्ष में. आँखों से देखो तो मृत्यु शैया पर पड़े नोट हैं .... और उनके अंदर देख सको तो पीर का पर्वत है. हम आप जितना देखते हैं उतना ही सोच पाते हैं. हमारे सोने का स्थान अव्वल तो इस काबिल ही नहीं कि उसे शयन कक्ष कहा जा सके, चलन है सो कह भर लेते हैं बस. डिब्बे में जूते पड़े हैं तो वह जूतों का शयन कक्ष तो नहीं हो गया. हम तो अपने शयन कक्ष में घुस पाते हैं . जहाँ तक पहाड़ का सवाल है ज्यादातर मामलों में हमें सिनेमा वालों ने दिखाए है. हाँ तो उनके शयन कक्ष में इस वक्त एक पर्वत है नोटों का जिस पर वे चढे बैठे हैं. हांलाकि शोक में बैठे हैं, लेकिन बैठे तन कर हैं, दूर से लग रहा है मानो साधनारत हैं . इस मध्य रात्रि में जब उनकी हवेली के तमाम फोटो के पीछे  रहने वाली छिपकलियाँ तक दुबक कर सो गई हैं वे अकेले नोटों के पहाड़ पर जाग रहे हैं. आज उनके लिए कालरात्री है और वे शव-साधना में लीन हैं. उन्हें रामकथा याद आ रही है. क्या तो कमाल था पुराने ज़माने में. लक्ष्मण इधर मूर्छित पड़े हैं, उधर हनुमान पूरा पर्वत उठाए चले आ रहे हैं. काश ऐसा कुछ अब हो जाये, तो इस पर्वत को ले कर वे उड़ जाएँ स्विजरलैंड की तरफ, या फिर किसी और देश में. आखिर हमारे प्रधानमंत्री ने दौड़-भाग के तमाम देशों से रिश्ते बनाये हैं तो किस दिन के लिए !! सावित्री ने यम से अपने पति के प्राण सुरक्षित कर लिए थे. आज वही मौका फिर आ पड़ा है. उनके प्राण नोटों में अटके है और नोटों के प्राण एक घोषणा से उड़े जा रहे हैं . सामने होते तो वे भी टांग पकड़ लेते यमराज की. साठ पार हो गए हैं, सोचा था कि सत्तर पूरे कर लें, कुछ करोड़ और कमा लें फिर कहीं मंदिर या स्कूल बनवा देंगे. बना चुके होते तो आज पहाड़ कुछ कम होता, लोग जय जयकार करते सो अलग. लेकिन कमाते समय सोचा नहीं. सच तो यह है कि सोचते तो कमाते कैसे !! ईश्वर ने ही यह व्यवस्था दी है कि सोच लो या फिर कमा लो. सोचने वाले जिंदगी भर सोचते रहते हैं कि कमाएँ या कि नहीं कमाएँ, ..... टू बी ऑर नॉट टू बी. लेकिन किस्मत देखिये ! इस वक्त मजे में सो रहे हैं कमबख्त. वह कमाने वाले थे सो जिंदगी भर कमाते रहे गधों की तरह और आज इस पहाड़ पर ठन्डे बैठे तप रहे हैं. कौन कौन नहीं आया उनके दरवाजे पर, पहले पता होता तो इन्हीं को कहते कि ले जाओ इस पहाड़ से कुछ गिट्टी मुरम, मंदिर वहीँ बनाएंगे. लेकिन मुद्दई सुस्त तो गवाह चुस्त कैसे ! उन्होंने माँगा नहीं, इन्होंने दिया नहीं. बड़े मंदिर बनाने चले थे, घर उजाड़ दिए. उन्हें अचानक अपने सलाहकार ज्योतिषी त्रिकालदर्शी जी याद  आ गए. आज लग रहा है कि जीवन भर वे मूर्ख ही बनाते रहे. साल की आधा दर्जन विशेष पूजाओं से पाप मुक्ति के नाटक से अपनी अंटी गरम करते रहे बस. आधी रात को जिस लक्ष्मी का आवाहन करते थे वही आधी रात को पीले पहाड़ से काले ढेर में बदल जायेगी इसकी कल्पना उन्हें क्यों नहीं थी.
उनका ध्यान अपने हाथों पर गया जिसकी हर अंगुली में ग्रहों को मजबूत करने वाली अंगूठियां हैं. नगीने सोने में जड़े नहीं होते तो तुरंत उतार के फैंक देते आज. उन्हें विश्वास हो गया कि त्रिकालदर्शी एक नबर का फ्राड है और वे महामूर्ख. सोच रहे है कि क्या राजनीति में तो कोई काला नहीं है ? वहाँ सब सफ़ेद हैं, साहूकार हैं ? दो ब्लेक यानी कालों के बीच तो रंगभेद नहीं होता है. एक काला दूसरे काले को आँखें कैसे दिखा सकता है !? इसी को कलियुग कहते हैं. सोचए तो जान लेंगे कि दोनों काले सगे भाइयों से कम नहीं हैं. चलो ना मानों भाई, जात तो एक ही मानों. वे कराह उठे, लगा कि उनकी पीठ में किसी ने छुरा घोंप दिया है. देखा रात के तीन बज रहे हैं.
 उन्होंने तो कहा था कि अच्छे दिन आयेंगे तभी से लग रहा था कि कुछ गडबड होगी. फिर सफाई और शौचालय में देश को हिलगा रखा तो सब भूल गए.  खुद वे ही नहीं समझ पाए कि आखिर गलती कैसे हो गई ! संतों ने कहा है कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब. पल में परले होएगी, बहुरि करेगा कब. रटते रहे, मर्म नहीं समझा. हो गई पल में परले ! वे संत महान आत्मा  थे, उनका कहा सच हो गया. और तो और पत्नी भी पिछले पांच साल से कह रही थी कि कुछ नहीं तो स्विजर लैंड ही घुमा लाओ. उस बेचारी को लक्ष्मी-वाहन समझते रहे और नहीं सुनी. उसी की सुन लेते तो ठीक  होता, लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि. सोचा सरकारें ढोल बजाते आती हैं और चली जातीं है. मन हो रहा है कि हर नोट पर लिख दें सरकार ससुरी बेवफा है .
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*दुष्यंत कुमार की एक गज़ल से प्रेरित                                                                      

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

मरे नोटों की शव-साधना

इस वक्त रात के दो बज रहे हैं और उन्हें नींद नहीं आ रही है. वैसे तो नींद हर किसी को आती है, लेकिन वे हर किसी में शामिल कब थे जो अब होते. और होते तो सो ही रहे होते. उनके कक्ष में कुछ भी बदला नहीं है. उनका डबल बेड वही है जिसकी दराजों में नोटों की वही थाप्पियाँ अभी भी पड़ी हुई हैं. गद्दों और तकियों में भी उतने ही नोट हैं . सोते थे तो लगता था कि साक्षात् माँ लक्ष्मी की गोद में सो रहे हैं कमाऊ पूत. ऐसी कोई रात नहीं थी जब उन्हेंने सोने-चांदी से कम का सपना नहीं देखा हो. भरे मन से माता लक्ष्मी के चित्र को देखा जिसकी पूजा कुछ दिन पहले उन्होंने लोट-लोट के की थी. वे मुस्करा रहीं थीं. कोई और वक्त होता तो हाथ जोड़ते पर आज कूढ कर रह गए. खिन्नता से उन्होंने पलंग की दराज को खेंचा, लगा कि नोटों के बंडल नहीं हजारी शव पड़े हैं. क्या करते, लिपट के रो लिए. सगों से ज्यादा अपने थे, रोना तो आएगा ही. वैसे भी रो देने का बड़ा महत्त्व है आजकल, साख बन जाया करती है. पुरखे बोल गए थे कि मनुष्य जीवन धन कमाने के लिए होता है. जिसके पास धन नहीं वो मनुष्य ही नहीं है.
उनकी धारणाएं तेजी से बदल रहीं हैं, अभी तक मानते थे कि देने वाला छप्पर फाड़ के देता है, अब देख रहे है कि लेने वाला भी कम नहीं है. सोचते थे कि बुरे वक्त के लिए धन जरुरी है सो जोड़ते  गए. ये नहीं सोचा कि धन के कारण ही बुरा वक्त यों टूट पड़ेगा. जिस बिल्ली को टंगड़ी डालते आ रहे थे वही एक दिन अंटियों सी लाल आँखे दिखा कार म्याऊं करेगी ! पहले वाले असल संस्कारी थे, चंदा लेते थे तो काम भी करते थे. उन पर कभी धर्म संकट आया भी तो चवन्नी की बलि चढ़ा कर बरी हो गए. बेचारों ने भगवान से बुराई ले ली लेकिन यजमानों का हमेशा ध्यान रखा. लगता है राजनीति में यारी और वफ़ादारी के दिन लद गए. जिसे दक्षिणपंथी समझा था वो कामरेडों का काका निकला. मन में गुस्सा इतना कि चाय पीने भर से उल्टी होने लगती है.
अचानक उन्हें अपने डाक्टर का ध्यान हो आया, परेशनी में थे सो उन्हें फोन किया. कहा डाक्साब नींद नहीं आ रही है .
मैं क्या करूँ सेठ जी , मुझे भी नहीं आ रही है. वे बोले.
आप तो डाक्टर हो ! कुछ करो ना .
मैं नोटों के ढेर पर बैठा शव-साधना कर रहा हूँ . आप भी करो .
क्या इससे नोटों में जान आ जायेगी !?
नोटों में जान तो नहीं आएगी पर व्यस्त रहेंगे तो हमारी जान जरुर बच जायेगी .

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