शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

संत चौक की शाम

हाई-वे से लगे इस संत चौक पर दूसरे चौराहों की बनिस्बत कुछ ज्यादा आवाजाही लगी रहती है. एक तो आसपास इतनी कालोनियां बस पड़ी हैं कि लगता है लोग फसलों की तरह उग रहे हैं ! आबादी को लेकर जबसे देश में चिंता का चलन खत्म हुआ है लोगों में पैदा करने की झिझक कम हो गई लगती है. कहते हैं कि देने वाला जब देने पर आता है तो छप्पर फाड़ के देने लगता है. इसलिए जहाँ भी भगवान की देन होती है वहाँ छप्पर की समस्या भी होती है. समय बदल गया है, किसी जमाने में टीवी पर कितना कुछ अच्छा आता था, लेकिन अब  प्राईम टाइम में लोग संत चौक पर दिखाई देते हैं. यहाँ कुछ होटलें हैं जिनमें शाम से ही वन्दनवार की तरह बदनसीब चिकन लटका  दिये जाते हैं. आसपास कुछ दक्षिण पंथी कुत्ते इन वन्दनवारों पर निगाह जमाए बैठे हैं. दरअसल इन कुत्तों में परचेसिंग पावर नहीं है. जैसे कि आम लोग  अक्सर त्यौहार पर छप रहे विज्ञापनों को दिल थाम कर टूंगते रहते हैं. चिकन की आस में ये कुत्ते भौंकते-गुर्राते बाजारवादी व्यवस्था में अपने लिए गुंजाईश तलाश रहे हैं. याद आया, इन्हें देख कर एक पार्षद-पति बोले थे काश कि कुत्ते ही वोट दे पाते तो चुनाव में दारू का खर्च कम हो जाता. उस दिन उनके मन में कुत्तों के प्रति इतना प्रेम उमड़ा कि बिना खरीदे दो तंदूरी चिकन उनमें बाँट दिये.
संत चौक पर कुछेक शराबखाने भी हैं जिन्हें बार कहने से प्रायः भोले मन में आ रहा अपराध-बोध स्थगित हो जाता है. बोध होना बड़ी बात है, और बोध ना होना उससे भी बड़ी. लेकिन इन सबसे बड़ी बात है बोध न होने देना. संत श्रेणी के साधक सब करते हैं लेकिन बोध नहीं होने देते हैं. बार में प्रायः इसी श्रेणी के लोग होते हैं. यहाँ होटलों में बाहर रौशनी होती है जबकि बारों के बाहर अँधेरा रखा जाता है. यह इसलिए कि आने वालों को बाहर निकलने में असुविधा ना हो. लेकिन दोनों जगह अंदर अँधेरा ही रखा जाता है, इससे सुधिजनों को यह पता नहीं चल पता कि वास्तव में उनकी प्लेट या ग्लास में क्या है.  सब यह मान कर चलते हैं कि वे अपना दिया गया आर्डर खा-पी रहे हैं. इसके पीछे यह पवित्र भावना प्रबल होती है कि आत्मिक आनंद ही सब कुछ है और बिल चुकाने के बाद संसार मिथ्या है. हाइवे के कारण होटलों में बिस्तर और कमरों की व्यवस्था है जिनका आसपास वाले पीड़ित पुरुष कभी कभी कोपभवन की तरह भी इस्तेमाल कर लिया करते हैं. मेन रोड से लग के एक सिनेमा हाल है. वैसे तो उसका नाम चन्द्रिका है, लेकिन लोगों के बीच ठाटिया  टाकीज के नाम से मशहूर है. इस टाकीज की खासियत यह है कि इसके संचालकों और दर्शकों में एक तरह की अंडरस्टेंडिंग है, जैसी कि अक्सर सत्ता दल और विरोधी दल के बीच होती है. इसमे प्रायः भक्त प्रह्लाद टाईप फिल्म चलती है जिसके बीच में एक घंटा नीला-सिनेमा पूरे अनुशासन और इस विश्वास के साथ दिखाया जाता है कि देखने वाले, जिनमे ज्यादातर कच्ची उम्र के होते हैं, शिक्षा प्राप्त कर देश को अमेरिका से आगे ले जायेंगे. सिनेमा में गजब की भीड़ देख कर मिडिया ने कई बार रिपोर्ट बनाई है कि लोगों में अपनी संस्कृति और आदर्शों के प्रति बड़ा आकर्षण है.
इस तरफ, बांयी ओर जरा सा आगे बढ़ें तो एक नीम का पेड़ दिखाई दे रहा है. इसके नीचे एक प्याऊ बनी हुई है. जैसा कि आप जानते ही होंगे कि नीम का पेड़ लगाने और प्याऊ बनाने की हमारे यहाँ परम्परा है जिससे बड़े लोग प्रायः टेक्स बचाने के साथ अपना चेहरा भी धोने की कोशिश करते हैं. प्याऊ में सड़क की तरफ एक खिडकी है जिसमें पीतल की एक छोटी कोठी सी रखी दिखाई देती है. इसमें शायद पानी भी है, क्योंकि इस पर आइल पेंट से जल बचाएं लिखा हुआ है.  खिडकी के ऊपर की तरफ पगड़ी बांधे, बड़ी मूंछो वाली, खुदाई में मिली टाइप एक मूर्ति जड़ी हुई है. मूर्ति पर कबूतरों ने अपना सुलभ शौचालय बना कर इसे उपयोगी बनाया है और जनस्वीकृति की मोहर भी लगवाई है. नीचे लगे सफ़ेद पत्त्थर पर लिखा है कि समाजसेवी, राय बहादुर खूबसिंग की स्मृति में उनके चार बेटों ने इस प्याऊ का निर्माण करवाया है. हालात बता रहे हैं कि चारों बेटे प्याऊ बनवाने के बाद अकाउंट-पेयी पुण्य ही ले रहे हैं .पास में ही एक गुमटी है जिस पर पानी के पाउच बिक रहे हैं. आलावा इसके जो दर ओ दीवार को पहचानते हैं उन्हें यहीं पर कच्ची दारू के पाउच भी मिल जाते हैं. बरनियों में कुछ तीखा नमकीन भी है. लेकिन जिनकी साख है वही इस सुविधा का लाभ उठा रहे हैं . इसी से थोड़ा सा हट के पुलिस चौकी है. चौकी में महज पांच सिपाही और एक साहब हैं. साहब के लिए प्लास्टिक की एक कुर्सी और सिपाहियों के लिए दो बेंच हर समय मौजूद रखी गयी हैं. साहब ऊँची जात के नहीं हैं इसलिए प्रायः बेंच ही शेयर करते हैं और कुर्सी पर तभी बैठते है जब सिपाही गश्त पर होते है. अन्यथा ना लें, इसे आस्था व संस्कार कहते हैं. आप जानते ही हैं कि आस्था हमेशा कानून से बड़ी होती है और संस्कार सभ्यता से.
चौकी से करीब चार सौ फुट आगे गाँधी जी की मूर्ति लगी पड़ी है. संत चौक के नजदीक कहीं स्कूल नहीं पड़ता है इस वजह से गाँधी जी के गले में बरसों से फूलमाला भी नहीं पड़ी है. एक बार एक बारात इधर से गुजारी थी, दुल्हे की ही जिद थी शायद, एक माला तब बापू के गले में पड़ी और  महीनों तक आभार सहित लटकी रही. किसी वादे, जुमले या योजना की तरह वह बिखर कर कहाँ चली गयी, किसी को पता नहीं चला. बरातें तो उसके बाद भी आती रहीं पर संत चौक पर वैसा उम्रदराज दुल्हा फिर कभी नहीं आया. मूर्ति के नीचे गोल घेरा सा बना हुआ है जिसमें कभी फूल क्यारियां रहीं होंगी, लेकिन अब प्रायः यहाँ तीन-चार बकरे-बकरियां बंधी रहती हैं. ये बकरियां गाँधी जी की नहीं बल्कि पीछे मटन शाप वाले की हैं. गाँधी जी गर्दन जरा झुकी हुई है, लगता है वे बकरियों को देख रहे हैं, बकरियां मटन शॉप वाले को देख रही हैं, मटन वाला होटलों को तक रहा है , होटल मालिक ग्राहकों के इंतजार में है. खबर है कि ग्राहकों को एरियर और बोनस मिला है. इस खबर से बकरियों की जान सूख रही है.
यहीं, जरा सा लग के रिक्शा स्टेंड है. आने वाले से ड्रायवर पूछता है कहाँ चलना है बाउजी ?   अगर बाउजी कुछ तय नहीं कर पाते तो ड्रायवर तय कर लेता है कि उन्हें कहाँ ले जाना है. संत चौक के रिक्शा वालों की ख्याति है कि वे सही जगह पर ले जाते हैं. चलिए अब लौटते हैं. इधर कुछ ठेले हैं फल वाले. केले वाला यह नौजवान अपने मोबाईल से चेट कर रहा है. थोड़ी थोड़ी देर में वह सेल्फी भी लेता है. सामने की लाइन में कपड़ों की दुकान है, जिसे मालिक अपना शो-रूम कहता है, उसके ऊपर की मंजिल में खिडकी पर बैठी उसकी लड़की भी चेट कर रही है. लड़का अपना सब कुछ (यानी केले का ठेला और बूढ़े माँ-बाप) छोड़ कर उसके साथ जाने को तैयार है यदि लड़की भी अपने साथ बहुत कुछ लाने की हिम्मत करे तो. इस प्रस्ताव में बहुत सारे पेंच हैं जिन पर दिन में कई बार उच्च स्तरीय चेट-चर्चा होती रहती है. पूछने पर डिस्ट्रब होते हुए उसने बताया कि वह रोजाना पांच सौ केले  बेच लेता है. किसी ने चिढते हुए आम आदमी को मेंगो-मेंन कहा था कभी. यह नौजवान बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीददार नहीं हूँ टाइप लोगों को बनाना-पब्लिक कहता है. यहाँ जो घूम रहे हैं, सब केले हैं. वह केलों को केले बेचता है. उसने मुझे दस रूपये के पांच केले दिए और बोला - लीजिए, अब आप आधा दर्जन हो गए. मुझे नहीं पता कि उसने मेरा कद बढ़ाया या कि घटाया. लेकिन उसके इस विचार ने मुझे सोचते रहने पर विवश क्र दिया .
इस बात पर चल देने का मूड हो गया सो मैं रिक्शे वाले के पास जाता हूँ, वो पूछता है बाऊजी कहाँ जाना है ? मै जरा सा सोचने लगता हूँ, और वो कहता है  -- बैठिये बाउजी .

-------

1 टिप्पणी: