गुरुवार, 17 मार्च 2016

हाथ में कीचड़, मुंह में आग

                         
जब से राजनीति में कपड़ा फाड़ने, कालिख पोतने और कीचड़ उछालने की उज्जवल परंपरा का विकास हुआ है तब से लोगों के लिए टीवी पर हर दिन होली है। जब देखो तब फाग, कुछ कालिख पोत रहे हैं कुछ धो रहे हैं। जिन्हें कीचड़ में लोटना आनंददायी लगता है वे होलियापा करने में जल्दी सफल होते हैं। हृदय सम्राटों को बारहों मास होली खेलने का सुख मिल रहा है। जिस तरह ‘‘सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत’’ उसी तरह ‘‘हाथ में कीचड़, मुंह में आग, लीडर की बाहर मास फाग’’। 
                    राजनीति की तरह, होली जलाने का त्योहार है और खेलने का भी। पुराने खेलने वाले पहले जलाते हैं उसके बाद लंबे समय तक खेलते रहते हैं। एक बुझती है तो फौरन दूसरी जला देते हैं। कुछ के लिए जलाना ही खेलना है। अक्सर उनकी जलाई हप्तों तक सुलगती रहती है और राजधानी के खबरखोर अधनंगे बच्चे तापते रहते हैं। जलाने का ऐसा नहीं है कि उठाई माचिस और लगा दी और हो गया। उसके लिए अनुभव और प्रतिभा दोनों चाहिए। होली जलाने और आग लगाने में बड़ा अंतर है। 
                               होली जलाने का महूरत होता है, तैयारियां भी खूब लगती हैं। सबसे जरूरी एक ‘डांडा’ होता है, जो एक झाड़ी विशेष  का यानी खानदानी होता है। डांडा भी सामान्य डंडे जैसा ही होता है लेकिन उसको डांडा कहते हैं। जैसे मुख्यअतिथी सामान्य आदमी जैसा ही होता है लेकिन उसे मुख्य अतिथी कहते हैं। यह डांडा हरा होता है, जाहिर है ताजा होता है, थोड़ा कच्चा भी होता है। यह लाठी की तरह न उपयोगी होता है न ही काम में लिया जा सकता है। लेकिन होली उसके बिना सजती नहीं है इसलिए वह सम्मानित डांडा होता है। होली सजाने वाले उसे ठीक बीच में स्थापित कर देते हैं, बिल्कुल अध्यक्ष या उपाध्यक्ष की तरह। माला वगैरह पहना कर उसका सम्मान भी कर दिया जाता है। यहां देखने वाली बात यह है कि डांडा कहने भर को डांडा होता है लेकिन उसमें कहीं से भी डांडापन नहीं होता है। सामने वाले को लग सकता है कि उसे जबरन डांडा बना कर खड़ा कर दिया है। डांडे की अपनी कोई इच्छा नहीं होती कि होली की जिम्मेदारी सिर ले ले और अपने को आग में झौंक दे। लेकिन परिस्थितियों के कारण वह विवष होता है। यों समझ लीजिये कि वह पकड़ में आ गया है बस। वो हमेशा  उहापोह में रहता है, डांडा बनूं या कि नहीं बनूं। लेकिन उसकी एक नहीं चलती है। जोष आ जाने पर कभी कभी वह कोषिष करता है कि खानदानी और आत्मविष्वास से भरा हुआ दिखे लेकिन सफल नहीं हो पाता है। स्थापित होने के दूसरे तीसरे दिन ही वह मुरझा जाता है। हालांकि टोले में ऐसे कई हैं जो बेहतर डांडे सिद्ध हो सकते हैं लेकिन वे प्रहलाद के प्रतीक कैसे बनाए जा सकते हैं।  सो वे डांडा थे, डांडा हैं और डांडा ही रहेगे। 
                           इधर डांडा ने कार्यभार लिया और उधर मीडिया वाले अपनी पिचकारी भरने दौड़ पड़े। पूछा- ‘‘ सर लोग कह रहे हैं कि आपकी होली ठंडी है आप क्या कहेंगे इस बारे में ?’’
                            ‘‘ ये एक साजिश  है हमारे खिलाफ। सूट-बूट वालों को होली खेलने से डर लगता है। लेकिन हम होली के पुराने खिलाड़ी हैं। हमारी होली में लकड़ी कम है लेकिन देश  देख रहा है कि आंच और अंगारे ज्यादा हैं। आपको पता ही है कि हमारी होली इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। सब जानते हैं कि हमने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। आप लोगों को भी पता होगा ? और देखिए आजादी मिल गई।’’  डांडाजी ने तन कर कहा।
                              ‘‘ सर मनरेगा पिचकारी तो दूसरों ने छीन ली है, अब आप लोग होली कैसे खेलेंगे ?’’ बायीं तरफ से सवाल आया। 
‘‘ मायावती जी से बात चल रही है, वो नीले रंग पर अड़ी हुई हैं, ममता जी भी लाल खेलना चाहती हैं। .... कोषिष कर रहे हैं। आप देखेंगे कि हम अच्छी होली खेल पाएंगे। ’’ कह कर उन्होंने दायां ओर गरदन घुमाई।
                              ‘‘ सर, दूसरे लोग दावा कर रहे हैं कि उनके पास बहुत सारे डांडा हैं नागपुर से लगा कर दिल्ली तक। लेकिन इधर आपके अलावा कोई नहीं है !? ’’
                               ‘‘ वे झूठ बोलते हैं। यू टर्न लेने में उनका कोई मुकाबला नहीं है। उनके पास डांडा नहीं है, हां डांडू बहुत सारे हैं। वे होली नहीं जलाते, बात बेबात पर भड़काउ बयान दे कर आग लगाते रहते हैं। लेकिन देष जानता है कि होली आपसी प्रेम और भाईचारे का त्योहार है। बात बात पर आग उगलना होली नहीं है। ’’ अच्छे उत्तर पर पीछे से एक बुजुर्ग महिला ने पीठ थपथपा दी। वे मुड़ कर जाने लगे।
                        ‘‘एक अंतिम सवाल सर, प्लीज।’’ आवाज सुन कर वे रुक गए।
                        ‘‘क्या आप आगे भी कीचड़ से ही खेलेंगे ?’’
                       ‘ हां, बिल्कुल। हम जमीन से जुड़े हुए लोग हैं। .... और दूसरों पर इसलिए कीचड़ डालते हैं ताकि वे भी इस पवित्र माटी से जुड़ जाएं किसी तरह। ’’ बाय कहते हुए वे चल दिए।
                                                                                         -----