शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

नए साल पर एक चिकनिया चिंतन


नया साल आ रहा है तो इसमें कोई नई बात तो है नहीं, हर साल आता है. लेकिन इधर फलसफा ये कि सामान सौ बरस का और खबर पल भर की नहीं. एक समय ऐसा आता है जब जीवन पर से विश्वास कम होने लगता है. रोज सुबह उठ के आइना देखते हैं कि हाँ, वाकई हैं अभी. बशीर बद्र ने कहा है कि उजाले अपनी यादों  के साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाये. और इधर सुबह से सातवाँ फोन इस सवाल के साथ आया कि कैसे मना रहे हो ?
हम लोग मनाने के मामले में दुनिया से चार कदम आगे ही होते हैं. जीत मनाना हो या कि उत्सव, हर समय बेगानी शादी में अब्दुल्ले दीवाने. मौका अपना हो या पराया मिलने भर की देर है बस. यों समझिए कि ताक में ही बैठे होते हैं. जिनके जीवन में कुछ भी नया नहीं आता, नया साल उनके लिए भी आता ही है. कोई इस बात को ले कर घिस घिस करे कि नये साल में भला नया क्या है ? तो करता रहे, उसकी समस्या है. लेकिन उनकी बात में कुछ दम तो है, नए साल में पुराना भी कायम रहे तो गनीमत है, किसी से भी पूछ लो यही कहेगा कि पन्द्रह साल पहले जिंदगी अच्छी थी. इस हिसाब से तो नया दुश्वारियां ले कर आता है तो उसका स्वागत क्यों !?
फोन आ रहे हैं तो मित्रों को बताना ही पड़ेगा कि कैसे मना रहे हो ?.
  पुराना कोई लेखक लिखता तो उसकी पंक्तियां  होतीं कि भारत एक मनाऊ देश है, यहाँ लोग मनाने के लिए पैदा होते हैं. आदमी खाने से रह जाये मनाने से नहीं रह सकता है. जिन्हें मनाने का कारण नहीं पता होता है वो दूसरों को देख कर मनाने लगते हैं. जिन्हें कारण पता होता है लेकिन नहीं मनाना चाहते हैं, वे भी डर के मारे मनाने लगते हैं. जो सहमत होते हैं  वे सहमति के साथ मनाते हैं और जो असहमत होते हैं  वे अपनी असहमति के साथ मना लेते हैं. लेकिन मैं इतना पुराना नहीं हूँ, देखता हूँ कि यहाँ जो भी कुछ होता है व्यापक पैमाने में होता है. अब नया साल सामने है तो पैमाना छोटा कैसे हो सकता है. सरकार कहे , या वे ही क्यों न कहें जिनके हाथ में सरकार का रिमोट कंट्रोल है कि हमारा नया साल ये नहीं है, फिर भी नया साल पूरा देश मनाएगा. मनाने वालों को मनाने का बहाना चाहिए. आपने गौर नहीं किया होगा कि नया साल सेक्युलर है, हिंदू ,मुसलमान, गोरे-काले सबके लिए आता है. आमिर हों या गरीब, दोनों एक तरह से मनाते हैं, बोतल-ब्रांड का फर्क हो सकता है तो होता रहे.
फोन फिर आया, - हेलो, क्या यार अभी तक आपने बताया नहीं कि नए साल का क्या प्रोग्राम है ?
पूरे साल का प्रोग्राम कैसे बता सकता हूँ जबकि मैं तो पूरे दिन का प्रोग्राम भी नहीं बनाता. मैंने जानबूझ कर घुमाऊ सा जवाब दिया.
फिर भी, कुछ तो करोगे ? क्या सोचा है ?
सोचा तो कुछ भी नहीं, आप बताओ ?
पार्टी करेंगे और क्या ! कहो तो तुम्हारे यहाँ आ जाएँ ?
सोच कर बताता हूँ . कह कर फोन रखा. सोचने लगो तो कुछ भी विचार आ सकते हैं. अचानक मुझे मुर्गों का ध्यान हो आया जो नए साल में अपनी पुरानी काया छोड़ कर नया शारीर धारण करने के लिए प्रस्थान करेंगे. पता नहीं वे जानते हैं या नहीं नए साल के मायने. जिन्दा मुर्गे मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. क्या तो उनकी किस्मत होती है, तमाम मुर्गियों के बीच अकेला मायकल जेक्सन सा अश्लील हरकतें करता कि देखने वाला रश्क कर जाये. नए साल में कितनी मुर्गियां विधवा होती होंगी पता नहीं. अभी कुछ दिन पहले तक शाहरुख नाम का एक सुंदर बकरा गली में बच्चों के साथ खेला करता था. पता नहीं अब कहाँ होगा. किसी सेलिब्रिटी के यहाँ पैदा हुआ होगा तो सीधे ब्रेकिंग न्यूज और हेड लाइन्स में जिन्दा हुआ होगा. गीता में कहा गया है कि आत्मा पुराने वस्त्र को छोड़ कर नए वस्त्र धारण करती है . क्या इन प्राणियों को आभारी होना चाहिए हमारा-तुम्हारा, नए साल के जश्न का. विडंबना ये है कि गीता वे नहीं जानते. गीता मारने वालों को प्रेरित करती है और जिन्हें मरना है उनके पक्ष में भगवान नहीं बोले. खैर ..... मुझे क्या ! मैं अक्सर गूढ़ प्रसंगों से मुंह छुपा लेता हूँ. समझदारों के बीच बैठो-उठो तो व्यावहारिकता के सारे गुण आ जाते हैं. और फिर मैं कौन सा यमदूत हूँ जो मरने-जीने का हिसाब किताब रखता फिरूं. संसार एक सराय है, जिसे आना है आएगा, जिसे जाना है जायेगा. कुछ फर्क नहीं पड़ता कि साल नया है या कि दिन नया. जब आखिरत होती है तो कुछ भी ठीक नहीं होता. बच्चन कह गए हैं,--इस पर प्रिये मधु है, तुम हो, ... उस पार न जाने क्या होगा.
पत्नी से पूछता हूँ. वो क्या है कि जब कुछ ठीक सूझ नहीं रहा हो तो समझदार लोग अक्सर पत्नी से पूछ लिया करते हैं. इसका लाभ यह होता है कि निर्णय गलत हुआ तो जिम्मेदारी उन पर नहीं आती है. दूसरा ये कि निर्णय को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी से भी वे बच सकते हैं. तीसरा वे सभ्य समाज में नारी को बराबर का महत्व और सम्मान देने वाले प्रगतिशील पुरुष की हैसियत पा जाते हैं. और चौथा ..... अब छोडिये, इतने तो लाभ हैं और आप नहीं जानते ऐसा भी तो नहीं हैं. हाँ तो पत्नी से पूछा कि भई, नए साल में इस बार क्या करने वाली हो ?
कुछ देर बाद वे बोलीं –“ इस बार सत्यनारायण की कथा करवा लें तो कैसा रहे ?
फोन फिर बजा –“ हाँ तो क्या सोचा बे ?
सत्यनारायण की कथा करवाने की सोच रहे हैं.
अबे तू आदमी है कि पजामा .... उधर से फोन पटकने की आवाज आई .
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गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

बालों की चिंता में

साब जी, आपके बाल काफी कम हो गए हैं. पिछली बार और अब में बहुत अंतर है !! नाई, जिसे सब जानी बुलाते हैं, बोला.
ऐसा नहीं है कि बालों के झरने की चिंता अकेले जानी को ही है, थोड़ी बहुत मुझे भी है. किसी ज़माने में इन्हीं बालों की बदौलत देवानंदनुमा फीलिंग ने कितना खयाली रोमांस करवाया याद नहीं. बाद में राजेश खन्ना और अमिताभ के आने तक यही बाल समय के साथ यानी कदम से कदम मिला कर  चलते रहे. लेकिन बाद में पता नहीं क्या हुआ, वे रूठने लगे. शुरुवात शायद दो-चार से हुई हो, अब तो सौ पचास एक साथ पलायन कर रहे हैं. खोपड़ी नहीं हुई गाँव हो गया ठाकुरों का. यही हाल रहा तो कुछ दिनों में बंजर भूमि बिल्डरों के काम की हो जायेगी या फिर हेलीपेड बन जायेगा बाकायदे. इधर सुनाने में आया है कि सोफ्टवेयर कम्पनियां लड़कियों और गंजों को प्राथमिकता से नौकरी देते हैं. बाल न हों तो आदमी मन लगा कर काम करते हैं इसलिए तरक्की भी खूब मिलती है उन्हें. जब तरक्की होती है तो पैसा भी आता है. आप समझ सकते हैं कि जुल्फों वाले आदमी के पास जब दूसरी जगहों पर मन लगाने के अवसर हों तो वह काम में क्यों लगायेगा ! कहते हैं कि कमान से निकला तीर, जुबान से निकला शब्द और सिर से झर बाल वापस नहीं आते हैं. इसलिए कभी कभी सोचता हूँ जाने दो, इस उम्र में अब बालों का करना भी क्या है, ठीक से चले जाएँ तो कुछ साहित्य सेवा कर लें. एक कहानी भी ढंग से लिख ली तो जीवन गुलेरी हो जायेगा. हर चीज की कीमत चुकाना पड़ती है, पाने के लिए कुछ खोना भी पडता है. भगवान भी लिए बगैर देता नहीं है. अब किस्मत खुलने पर अमादा है सो खुल ही जाए तो अच्छा है. आधे तो कमबख्त सफ़ेद हो गए हैं, चुगलखोर कहीं के. आधे हैं जो जमानत देने की असफल कोशिश में मरे जा रहे हैं. आधी फ़ौज से पूरी लड़ाई लड़ना तो वैसे भी संभव नहीं है. ऐसे हालात में अंकल सुनाने की आदत किसे नहीं हो जाती है. हर समझदार आदमी परिस्थितियों में अपने को ढाल लेता है. केशव कह गए हैं अपना दुखडा—“ केशव केसन अस करि,जस अरि हु न कराए; चन्द्र वदन मृग लोचनी, बाबा कहि कहि जाय. अतीत में जीना प्रायः दुखदायी होता है. संत कह गए है कि बीती ताही बिसार दे, आगे की सुध लेय. जानी चिंता व्यक्त कर रहा है और मुझे उसकी चिंता का इतना मान तो रखना ही है.
अब क्या करो भाई, जाने वालों को कौन रोक सकता है. आज बाल जा रहे हैं तो कल किसी दिन आधी रात से बाकी शारीर का भी लीगल टेंडर समाप्त हो जायेगा. उप्पर वाला छापता  ही इसलिए है कि कभी भी रद्दी कागज घोषित कर दे. इसीलिए कहा है जस की तस धर दीन्ही चदरिया.
ऐसा नहीं है साबजी, कोशिश तो करना ही चाहिए इंसान को. लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती.
यार जानी !! तुम तो बड़े ज्ञानी हो ! कविता जानते हो !
कवियों की भी बनाते हैं ना साबजी,  हर तरह का नालेज जरुरी है हमारे धंधे में. यूँ समझ लो कि छोटा मोटा गूगल होता कटिंग आर्टिस्ट. .... तो साबजी कोशिश करो.
ऐसा है जानी इसमे अगर कोशिश काम करती तो कोई गंजा नहीं रहता. वो प्रेम कवि प्यारे मोहन अखंड हैं ना, कितनी कोशिश की उन्होंने !! लेकिन कुछ बचा क्या ! खोपड़ी इंटरनेशनल क्रिकेट का पिच हो गई सो अलग.
उनका बहुत दुःख है साबजी, हमारा एक ग्राहक और कम हो गया. अब छह-आठ माह में एक बार आते हैं झालर बनवाने. पुराने ग्राहक सब ऐसे ही होते जा रहे हैं, यह नहीं रुका तो हम झालर आर्टिस्ट हो कर रह जायेंगे.
जानी के मर्म को अब समझ रहा हूँ. घोड़े और घास की यारी का प्रश्न तो तभी है जब घास हो. कहा –“ तुम्हें क्या फर्क पड़ता है जानी, तुम्हारे आगे तो सब सिर होत एक सामान. कवि गए तो युवा ह्रदय सम्राट मिल जायेगें. आजकल तो गली गली में मक्खी मच्छरों की तरह पैदा हो रहे हैं. ... बनाते तो होगे इनकी भी ?
बनाना पड़ती है, .... धंधा ले कर बैठे हैं तो इनसे कोई बचा है क्या !! लेकिन कभी सुने हैं आप कि मक्खी मच्छर पेमेंट भी करते हैं !!
क्या करो भाई, देशभक्ति का रास्ता बड़ा टेढा है. सिर्फ इंसानियत से काम थोड़ी चलता है. लेकिन तुम्हारी बददुआ लगी तो ये भी गंजे हो जायेंगे एक दिन. देख लेना. मैंने तसल्ली दी.
मुश्किल है, .... ये लोग कई कामों के लिये आयुर्वेद का लाभ लेते है, उससे बाल भी ठीक हो जाते हैं. आप भी ले कर देखो.
तुम्हें कैसे मालूम कि आयुर्वेद में गंजेपन का इलाज है ?
आपने भगवानों के फोटू देखे हैं ना, आज तक एक भी भगवान गंजा देखा क्या ? सबके लंबे बाल हैं , यहाँ तक कि नारद जी के भी . इसका मतलब हुआ कि आयुर्वेद में इसका इलाज है.
भगवान लोग की तो दाढ़ी-मूंछे भी नहीं होती थीं, तो ... ?
साबजी हम लोगों का काम देवकाल से ही चलता आ रहा है ना. वो तो भगवान ने अवतार लिया तो बैधराजों के साथ हमारे पुरखों को भी आना पड़ा.
तुम तो गूगल हो ना, तुम्हीं बताओ क्या इलाज है.
गूगल तो सिर्फ रामदेव का पता बता सकता है. वो तो आप जानते ही हैं .
छोडो यार, अब आया बुढ़ापा, सीनियर सिटीजन हैं, थोड़ा लगना भी तो चाहिए वरना रेल यात्रा में टीसी सारे कागज देखने के बाद भी विश्वास नहीं करता है. फोकट चोर बनना पड़ता है.
इसी लापरवाही के कारण अब जवान भी गंजे हो रहे हैं. कभी सारे आदमी गंजे हो गए तो हमारे बच्चे भूखे मर जायेंगे. रहीम ने कहा है साबजी कि रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार ; रहिमन फिरि फिरि पोइए , टूटे मुक्ता हार.
मेरी कटिंग हो गई, उठते हुए जानी को भरोसा देता हूँ तुम्हारी बात ठीक है जानी, कोई अच्छा सा बैध हो तो बताना, कोशिश करके तो देखा ही जा सकता है.
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बुधवार, 30 नवंबर 2016

जहाँ भक्तों का स्वर्ग गुम है

ज्ञानपति जी के मकान के पास खाली जमीन पड़ी है जिस पर काफी घास और तमाम तरह के पौधे उगे हुए हैं. जैसे आप ज्यादा नाप-जोख के चक्कर में पड़ें बगैर एक आदमी का सीना चौपन इंच से ऊपर मान लेते हैं, ठीक वैसे ही इस खाली जमीन को हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य का नजारा कह सकते हैं. कोई मेहमान जब ज्ञानपति जी से इस खाली जमीन, उसकी हरियाली और खुलेपन वगैरह को लेकर अच्छी टिपण्णी करता है तो वे बस इतना ही कहते हैं कि घर के पास इतना खुलापन हो तो लगता है स्वर्ग यहीं हैं. उन्होंने स्वर्ग नहीं देखा है, लेकिन कहा ना, कोई नाप-जोख के चक्कर नहीं पड़े तो स्वर्ग भी है. वे मानते हैं कि स्वर्ग में कुछ और हो न हो खाली जमीन अवश्य है. इसलिए ग्राम्य जीवन को वे स्वर्ग का जीवन मानते हैं. हालाँकि यहाँ उनके भक्त हैं जिनकी वजह से वे करीब करीब भगवान हैं. उनका स्वर्ग भक्तों के कारण है लेकिन श्रेय वे खुली जमीन को देते हैं. लेकिन अब भीड़ इतनी हो गई है कि कभी कभी उन्हें गुस्सा सा आने लगता है. जब भी वे किसी विवाह में जाते हैं तो बहुत मन करता है कि नवदंपत्ति को कहें कि बच्चा एक ही अच्छा. लेकिन जिसके खुद सात बच्चे हों वो अंदर से कितना कमजोर होता है ये वही जानते हैं. खैर, इस खुली जमीन के भरोसे ज्ञानपति जी ने एक गाय भी पाल रखी  है. वे मानते हैं कि उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी लोगों को पुण्य कमाने के अवसर प्रदान करना है. आज के समय में पाप इतने बढ़ गए हैं कि गाय को गुड-रोटी खिलाये बगैर मुक्ति नहीं हैं. यह बात लोग  समझते हैं. एक तो गाय, ऊपर से खुद ज्ञानपति जी की, ... जिधर से निकलती है सत्ताधारी विधायक की तरह निकलती है. यों तो यहाँ गायें और भी हैं, लेकिन ज्ञानपति जी की गाय को रोटी देना प्रकारांत में ज्ञानपति जी को भोग लगाना है. क्योंकि ज्ञानपति जी इसी के दूध की चाय पीते हैं. इसलिये घरों से निकल कर स्त्रियां गाय को रोटी देती हैं और हाथ जोड़ती हैं, कुछ तो गाय के पैर यानी खुर भी छूती हैं लेकिन गाय ज्ञानपति जी की तरह इस पर ध्यान नहीं देती है. उसका ध्यान सिर्फ रोटी पर होता है. रोटी तो वे कुत्तों को भी देती हैं लेकिन उनके हाथ नहीं जोडतीं है. रोटी में फर्क नहीं है लेकिन देने के इस फर्क को उपेक्षित कुत्ते नोट करते आ रहे हैं. किसी दिन उनकी सरकार बन गई तब हिसाब होगा. बहरहाल, गाय आसपास के तमाम घरों से रोटियां खा कर  खुली जमीन पर आ जाती है. अब यहाँ गुंजाईश निकल कर थोड़ी घास भी चरेगी ताकि उसमें गायपन बचा रहे, क्योंकि गायपन ही उसकी पूंजी है. ठीक इसी वक्त ज्ञानपति जी अपने वरांडे में बैठे पंचांग देख रहे होते हैं. जिस तरह गाय को गाय बने रहने के लिए घास चरना पड़ती है उसी तरह ज्ञानपति जी को ज्ञानपति बने रहने के लिए पंचांग देखते रहना पडता है. उन्हें पंचांग देखते हुए लोग देखें यह जरुरी है. पंचांग उनका हथियार है जिससे वे जीवन की हर जंग लड़ते आ रहे हैं. वे मानते हैं और जानते भी हैं कि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. रोज रोज पंचांग देखते-दिखाते रहने से एक ऐसी पवित्र व्यवस्था कायम हो जाती है जहाँ भक्तों का स्वर्ग गुम है और उसे वे ही खोज सकते है.
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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

हो गई पीर पर्वत सी *

उन्हें पिताजी ने समझया था कि बेटा सतरंगी तिजोरियों वाली इस दुनिया में पैसा एक मास्टर चाबी है. इससे धरती के ही नहीं स्वर्ग के ताले भी खुलते हैं. नगदी जेब का एक जिन्न है जो हर समय जो हुक्म मेरे आका कहता कुछ भी करने को तैयार रहता है. चाहे इससे न्याय खरीद लो या किसी के नाम की सुपारी दे दो. शिक्षा ले लो, स्वास्थ्य खरीद लो. नेता से लेकर चपरासी तक सब तुम्हारे. आसमान में जहाज उड़ाओ या जमीन से तेल निकाल लो. अच्छा हुआ कि वे सिधार गए वरना आज इस मरे जिन्न को बर्दाश्त नहीं कर पाते. स्मृतियों में वे पिघल रहे थे, क्या क्या नहीं करना पड़ा उन्हें इस करारे पर्वत को खड़ा करने के लिए. झूठ, फरेब, बेईमानी, दो नंबर ही नहीं तीन और चार नंबर तक सब किया तब कहीं जा कर पैसे का यह पर्वत बना. फावड़े से खींचते रहे थे लेकिन हमेशा विनम्रता से यही कहा कि भगवान दाल-रोटी दे रहा है. भगवान के नाम पर सरकारें बन जाती  हैं तो पैसा बनाने में भला काहे की दिक्कत. लेकिन अब जा रहा है तो दुःख भी पहाड़ सा है. अंदर गा रहा है कोई तेरा जाना .... दिल के अरमानों का लुट जाना.
नोटों का एक पूरा पर्वत समाया हुआ है उनके शयन कक्ष में. आँखों से देखो तो मृत्यु शैया पर पड़े नोट हैं .... और उनके अंदर देख सको तो पीर का पर्वत है. हम आप जितना देखते हैं उतना ही सोच पाते हैं. हमारे सोने का स्थान अव्वल तो इस काबिल ही नहीं कि उसे शयन कक्ष कहा जा सके, चलन है सो कह भर लेते हैं बस. डिब्बे में जूते पड़े हैं तो वह जूतों का शयन कक्ष तो नहीं हो गया. हम तो अपने शयन कक्ष में घुस पाते हैं . जहाँ तक पहाड़ का सवाल है ज्यादातर मामलों में हमें सिनेमा वालों ने दिखाए है. हाँ तो उनके शयन कक्ष में इस वक्त एक पर्वत है नोटों का जिस पर वे चढे बैठे हैं. हांलाकि शोक में बैठे हैं, लेकिन बैठे तन कर हैं, दूर से लग रहा है मानो साधनारत हैं . इस मध्य रात्रि में जब उनकी हवेली के तमाम फोटो के पीछे  रहने वाली छिपकलियाँ तक दुबक कर सो गई हैं वे अकेले नोटों के पहाड़ पर जाग रहे हैं. आज उनके लिए कालरात्री है और वे शव-साधना में लीन हैं. उन्हें रामकथा याद आ रही है. क्या तो कमाल था पुराने ज़माने में. लक्ष्मण इधर मूर्छित पड़े हैं, उधर हनुमान पूरा पर्वत उठाए चले आ रहे हैं. काश ऐसा कुछ अब हो जाये, तो इस पर्वत को ले कर वे उड़ जाएँ स्विजरलैंड की तरफ, या फिर किसी और देश में. आखिर हमारे प्रधानमंत्री ने दौड़-भाग के तमाम देशों से रिश्ते बनाये हैं तो किस दिन के लिए !! सावित्री ने यम से अपने पति के प्राण सुरक्षित कर लिए थे. आज वही मौका फिर आ पड़ा है. उनके प्राण नोटों में अटके है और नोटों के प्राण एक घोषणा से उड़े जा रहे हैं . सामने होते तो वे भी टांग पकड़ लेते यमराज की. साठ पार हो गए हैं, सोचा था कि सत्तर पूरे कर लें, कुछ करोड़ और कमा लें फिर कहीं मंदिर या स्कूल बनवा देंगे. बना चुके होते तो आज पहाड़ कुछ कम होता, लोग जय जयकार करते सो अलग. लेकिन कमाते समय सोचा नहीं. सच तो यह है कि सोचते तो कमाते कैसे !! ईश्वर ने ही यह व्यवस्था दी है कि सोच लो या फिर कमा लो. सोचने वाले जिंदगी भर सोचते रहते हैं कि कमाएँ या कि नहीं कमाएँ, ..... टू बी ऑर नॉट टू बी. लेकिन किस्मत देखिये ! इस वक्त मजे में सो रहे हैं कमबख्त. वह कमाने वाले थे सो जिंदगी भर कमाते रहे गधों की तरह और आज इस पहाड़ पर ठन्डे बैठे तप रहे हैं. कौन कौन नहीं आया उनके दरवाजे पर, पहले पता होता तो इन्हीं को कहते कि ले जाओ इस पहाड़ से कुछ गिट्टी मुरम, मंदिर वहीँ बनाएंगे. लेकिन मुद्दई सुस्त तो गवाह चुस्त कैसे ! उन्होंने माँगा नहीं, इन्होंने दिया नहीं. बड़े मंदिर बनाने चले थे, घर उजाड़ दिए. उन्हें अचानक अपने सलाहकार ज्योतिषी त्रिकालदर्शी जी याद  आ गए. आज लग रहा है कि जीवन भर वे मूर्ख ही बनाते रहे. साल की आधा दर्जन विशेष पूजाओं से पाप मुक्ति के नाटक से अपनी अंटी गरम करते रहे बस. आधी रात को जिस लक्ष्मी का आवाहन करते थे वही आधी रात को पीले पहाड़ से काले ढेर में बदल जायेगी इसकी कल्पना उन्हें क्यों नहीं थी.
उनका ध्यान अपने हाथों पर गया जिसकी हर अंगुली में ग्रहों को मजबूत करने वाली अंगूठियां हैं. नगीने सोने में जड़े नहीं होते तो तुरंत उतार के फैंक देते आज. उन्हें विश्वास हो गया कि त्रिकालदर्शी एक नबर का फ्राड है और वे महामूर्ख. सोच रहे है कि क्या राजनीति में तो कोई काला नहीं है ? वहाँ सब सफ़ेद हैं, साहूकार हैं ? दो ब्लेक यानी कालों के बीच तो रंगभेद नहीं होता है. एक काला दूसरे काले को आँखें कैसे दिखा सकता है !? इसी को कलियुग कहते हैं. सोचए तो जान लेंगे कि दोनों काले सगे भाइयों से कम नहीं हैं. चलो ना मानों भाई, जात तो एक ही मानों. वे कराह उठे, लगा कि उनकी पीठ में किसी ने छुरा घोंप दिया है. देखा रात के तीन बज रहे हैं.
 उन्होंने तो कहा था कि अच्छे दिन आयेंगे तभी से लग रहा था कि कुछ गडबड होगी. फिर सफाई और शौचालय में देश को हिलगा रखा तो सब भूल गए.  खुद वे ही नहीं समझ पाए कि आखिर गलती कैसे हो गई ! संतों ने कहा है कि काल करे सो आज कर, आज करे सो अब. पल में परले होएगी, बहुरि करेगा कब. रटते रहे, मर्म नहीं समझा. हो गई पल में परले ! वे संत महान आत्मा  थे, उनका कहा सच हो गया. और तो और पत्नी भी पिछले पांच साल से कह रही थी कि कुछ नहीं तो स्विजर लैंड ही घुमा लाओ. उस बेचारी को लक्ष्मी-वाहन समझते रहे और नहीं सुनी. उसी की सुन लेते तो ठीक  होता, लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि. सोचा सरकारें ढोल बजाते आती हैं और चली जातीं है. मन हो रहा है कि हर नोट पर लिख दें सरकार ससुरी बेवफा है .
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*दुष्यंत कुमार की एक गज़ल से प्रेरित                                                                      

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

मरे नोटों की शव-साधना

इस वक्त रात के दो बज रहे हैं और उन्हें नींद नहीं आ रही है. वैसे तो नींद हर किसी को आती है, लेकिन वे हर किसी में शामिल कब थे जो अब होते. और होते तो सो ही रहे होते. उनके कक्ष में कुछ भी बदला नहीं है. उनका डबल बेड वही है जिसकी दराजों में नोटों की वही थाप्पियाँ अभी भी पड़ी हुई हैं. गद्दों और तकियों में भी उतने ही नोट हैं . सोते थे तो लगता था कि साक्षात् माँ लक्ष्मी की गोद में सो रहे हैं कमाऊ पूत. ऐसी कोई रात नहीं थी जब उन्हेंने सोने-चांदी से कम का सपना नहीं देखा हो. भरे मन से माता लक्ष्मी के चित्र को देखा जिसकी पूजा कुछ दिन पहले उन्होंने लोट-लोट के की थी. वे मुस्करा रहीं थीं. कोई और वक्त होता तो हाथ जोड़ते पर आज कूढ कर रह गए. खिन्नता से उन्होंने पलंग की दराज को खेंचा, लगा कि नोटों के बंडल नहीं हजारी शव पड़े हैं. क्या करते, लिपट के रो लिए. सगों से ज्यादा अपने थे, रोना तो आएगा ही. वैसे भी रो देने का बड़ा महत्त्व है आजकल, साख बन जाया करती है. पुरखे बोल गए थे कि मनुष्य जीवन धन कमाने के लिए होता है. जिसके पास धन नहीं वो मनुष्य ही नहीं है.
उनकी धारणाएं तेजी से बदल रहीं हैं, अभी तक मानते थे कि देने वाला छप्पर फाड़ के देता है, अब देख रहे है कि लेने वाला भी कम नहीं है. सोचते थे कि बुरे वक्त के लिए धन जरुरी है सो जोड़ते  गए. ये नहीं सोचा कि धन के कारण ही बुरा वक्त यों टूट पड़ेगा. जिस बिल्ली को टंगड़ी डालते आ रहे थे वही एक दिन अंटियों सी लाल आँखे दिखा कार म्याऊं करेगी ! पहले वाले असल संस्कारी थे, चंदा लेते थे तो काम भी करते थे. उन पर कभी धर्म संकट आया भी तो चवन्नी की बलि चढ़ा कर बरी हो गए. बेचारों ने भगवान से बुराई ले ली लेकिन यजमानों का हमेशा ध्यान रखा. लगता है राजनीति में यारी और वफ़ादारी के दिन लद गए. जिसे दक्षिणपंथी समझा था वो कामरेडों का काका निकला. मन में गुस्सा इतना कि चाय पीने भर से उल्टी होने लगती है.
अचानक उन्हें अपने डाक्टर का ध्यान हो आया, परेशनी में थे सो उन्हें फोन किया. कहा डाक्साब नींद नहीं आ रही है .
मैं क्या करूँ सेठ जी , मुझे भी नहीं आ रही है. वे बोले.
आप तो डाक्टर हो ! कुछ करो ना .
मैं नोटों के ढेर पर बैठा शव-साधना कर रहा हूँ . आप भी करो .
क्या इससे नोटों में जान आ जायेगी !?
नोटों में जान तो नहीं आएगी पर व्यस्त रहेंगे तो हमारी जान जरुर बच जायेगी .

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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

संत चौक की शाम

हाई-वे से लगे इस संत चौक पर दूसरे चौराहों की बनिस्बत कुछ ज्यादा आवाजाही लगी रहती है. एक तो आसपास इतनी कालोनियां बस पड़ी हैं कि लगता है लोग फसलों की तरह उग रहे हैं ! आबादी को लेकर जबसे देश में चिंता का चलन खत्म हुआ है लोगों में पैदा करने की झिझक कम हो गई लगती है. कहते हैं कि देने वाला जब देने पर आता है तो छप्पर फाड़ के देने लगता है. इसलिए जहाँ भी भगवान की देन होती है वहाँ छप्पर की समस्या भी होती है. समय बदल गया है, किसी जमाने में टीवी पर कितना कुछ अच्छा आता था, लेकिन अब  प्राईम टाइम में लोग संत चौक पर दिखाई देते हैं. यहाँ कुछ होटलें हैं जिनमें शाम से ही वन्दनवार की तरह बदनसीब चिकन लटका  दिये जाते हैं. आसपास कुछ दक्षिण पंथी कुत्ते इन वन्दनवारों पर निगाह जमाए बैठे हैं. दरअसल इन कुत्तों में परचेसिंग पावर नहीं है. जैसे कि आम लोग  अक्सर त्यौहार पर छप रहे विज्ञापनों को दिल थाम कर टूंगते रहते हैं. चिकन की आस में ये कुत्ते भौंकते-गुर्राते बाजारवादी व्यवस्था में अपने लिए गुंजाईश तलाश रहे हैं. याद आया, इन्हें देख कर एक पार्षद-पति बोले थे काश कि कुत्ते ही वोट दे पाते तो चुनाव में दारू का खर्च कम हो जाता. उस दिन उनके मन में कुत्तों के प्रति इतना प्रेम उमड़ा कि बिना खरीदे दो तंदूरी चिकन उनमें बाँट दिये.
संत चौक पर कुछेक शराबखाने भी हैं जिन्हें बार कहने से प्रायः भोले मन में आ रहा अपराध-बोध स्थगित हो जाता है. बोध होना बड़ी बात है, और बोध ना होना उससे भी बड़ी. लेकिन इन सबसे बड़ी बात है बोध न होने देना. संत श्रेणी के साधक सब करते हैं लेकिन बोध नहीं होने देते हैं. बार में प्रायः इसी श्रेणी के लोग होते हैं. यहाँ होटलों में बाहर रौशनी होती है जबकि बारों के बाहर अँधेरा रखा जाता है. यह इसलिए कि आने वालों को बाहर निकलने में असुविधा ना हो. लेकिन दोनों जगह अंदर अँधेरा ही रखा जाता है, इससे सुधिजनों को यह पता नहीं चल पता कि वास्तव में उनकी प्लेट या ग्लास में क्या है.  सब यह मान कर चलते हैं कि वे अपना दिया गया आर्डर खा-पी रहे हैं. इसके पीछे यह पवित्र भावना प्रबल होती है कि आत्मिक आनंद ही सब कुछ है और बिल चुकाने के बाद संसार मिथ्या है. हाइवे के कारण होटलों में बिस्तर और कमरों की व्यवस्था है जिनका आसपास वाले पीड़ित पुरुष कभी कभी कोपभवन की तरह भी इस्तेमाल कर लिया करते हैं. मेन रोड से लग के एक सिनेमा हाल है. वैसे तो उसका नाम चन्द्रिका है, लेकिन लोगों के बीच ठाटिया  टाकीज के नाम से मशहूर है. इस टाकीज की खासियत यह है कि इसके संचालकों और दर्शकों में एक तरह की अंडरस्टेंडिंग है, जैसी कि अक्सर सत्ता दल और विरोधी दल के बीच होती है. इसमे प्रायः भक्त प्रह्लाद टाईप फिल्म चलती है जिसके बीच में एक घंटा नीला-सिनेमा पूरे अनुशासन और इस विश्वास के साथ दिखाया जाता है कि देखने वाले, जिनमे ज्यादातर कच्ची उम्र के होते हैं, शिक्षा प्राप्त कर देश को अमेरिका से आगे ले जायेंगे. सिनेमा में गजब की भीड़ देख कर मिडिया ने कई बार रिपोर्ट बनाई है कि लोगों में अपनी संस्कृति और आदर्शों के प्रति बड़ा आकर्षण है.
इस तरफ, बांयी ओर जरा सा आगे बढ़ें तो एक नीम का पेड़ दिखाई दे रहा है. इसके नीचे एक प्याऊ बनी हुई है. जैसा कि आप जानते ही होंगे कि नीम का पेड़ लगाने और प्याऊ बनाने की हमारे यहाँ परम्परा है जिससे बड़े लोग प्रायः टेक्स बचाने के साथ अपना चेहरा भी धोने की कोशिश करते हैं. प्याऊ में सड़क की तरफ एक खिडकी है जिसमें पीतल की एक छोटी कोठी सी रखी दिखाई देती है. इसमें शायद पानी भी है, क्योंकि इस पर आइल पेंट से जल बचाएं लिखा हुआ है.  खिडकी के ऊपर की तरफ पगड़ी बांधे, बड़ी मूंछो वाली, खुदाई में मिली टाइप एक मूर्ति जड़ी हुई है. मूर्ति पर कबूतरों ने अपना सुलभ शौचालय बना कर इसे उपयोगी बनाया है और जनस्वीकृति की मोहर भी लगवाई है. नीचे लगे सफ़ेद पत्त्थर पर लिखा है कि समाजसेवी, राय बहादुर खूबसिंग की स्मृति में उनके चार बेटों ने इस प्याऊ का निर्माण करवाया है. हालात बता रहे हैं कि चारों बेटे प्याऊ बनवाने के बाद अकाउंट-पेयी पुण्य ही ले रहे हैं .पास में ही एक गुमटी है जिस पर पानी के पाउच बिक रहे हैं. आलावा इसके जो दर ओ दीवार को पहचानते हैं उन्हें यहीं पर कच्ची दारू के पाउच भी मिल जाते हैं. बरनियों में कुछ तीखा नमकीन भी है. लेकिन जिनकी साख है वही इस सुविधा का लाभ उठा रहे हैं . इसी से थोड़ा सा हट के पुलिस चौकी है. चौकी में महज पांच सिपाही और एक साहब हैं. साहब के लिए प्लास्टिक की एक कुर्सी और सिपाहियों के लिए दो बेंच हर समय मौजूद रखी गयी हैं. साहब ऊँची जात के नहीं हैं इसलिए प्रायः बेंच ही शेयर करते हैं और कुर्सी पर तभी बैठते है जब सिपाही गश्त पर होते है. अन्यथा ना लें, इसे आस्था व संस्कार कहते हैं. आप जानते ही हैं कि आस्था हमेशा कानून से बड़ी होती है और संस्कार सभ्यता से.
चौकी से करीब चार सौ फुट आगे गाँधी जी की मूर्ति लगी पड़ी है. संत चौक के नजदीक कहीं स्कूल नहीं पड़ता है इस वजह से गाँधी जी के गले में बरसों से फूलमाला भी नहीं पड़ी है. एक बार एक बारात इधर से गुजारी थी, दुल्हे की ही जिद थी शायद, एक माला तब बापू के गले में पड़ी और  महीनों तक आभार सहित लटकी रही. किसी वादे, जुमले या योजना की तरह वह बिखर कर कहाँ चली गयी, किसी को पता नहीं चला. बरातें तो उसके बाद भी आती रहीं पर संत चौक पर वैसा उम्रदराज दुल्हा फिर कभी नहीं आया. मूर्ति के नीचे गोल घेरा सा बना हुआ है जिसमें कभी फूल क्यारियां रहीं होंगी, लेकिन अब प्रायः यहाँ तीन-चार बकरे-बकरियां बंधी रहती हैं. ये बकरियां गाँधी जी की नहीं बल्कि पीछे मटन शाप वाले की हैं. गाँधी जी गर्दन जरा झुकी हुई है, लगता है वे बकरियों को देख रहे हैं, बकरियां मटन शॉप वाले को देख रही हैं, मटन वाला होटलों को तक रहा है , होटल मालिक ग्राहकों के इंतजार में है. खबर है कि ग्राहकों को एरियर और बोनस मिला है. इस खबर से बकरियों की जान सूख रही है.
यहीं, जरा सा लग के रिक्शा स्टेंड है. आने वाले से ड्रायवर पूछता है कहाँ चलना है बाउजी ?   अगर बाउजी कुछ तय नहीं कर पाते तो ड्रायवर तय कर लेता है कि उन्हें कहाँ ले जाना है. संत चौक के रिक्शा वालों की ख्याति है कि वे सही जगह पर ले जाते हैं. चलिए अब लौटते हैं. इधर कुछ ठेले हैं फल वाले. केले वाला यह नौजवान अपने मोबाईल से चेट कर रहा है. थोड़ी थोड़ी देर में वह सेल्फी भी लेता है. सामने की लाइन में कपड़ों की दुकान है, जिसे मालिक अपना शो-रूम कहता है, उसके ऊपर की मंजिल में खिडकी पर बैठी उसकी लड़की भी चेट कर रही है. लड़का अपना सब कुछ (यानी केले का ठेला और बूढ़े माँ-बाप) छोड़ कर उसके साथ जाने को तैयार है यदि लड़की भी अपने साथ बहुत कुछ लाने की हिम्मत करे तो. इस प्रस्ताव में बहुत सारे पेंच हैं जिन पर दिन में कई बार उच्च स्तरीय चेट-चर्चा होती रहती है. पूछने पर डिस्ट्रब होते हुए उसने बताया कि वह रोजाना पांच सौ केले  बेच लेता है. किसी ने चिढते हुए आम आदमी को मेंगो-मेंन कहा था कभी. यह नौजवान बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीददार नहीं हूँ टाइप लोगों को बनाना-पब्लिक कहता है. यहाँ जो घूम रहे हैं, सब केले हैं. वह केलों को केले बेचता है. उसने मुझे दस रूपये के पांच केले दिए और बोला - लीजिए, अब आप आधा दर्जन हो गए. मुझे नहीं पता कि उसने मेरा कद बढ़ाया या कि घटाया. लेकिन उसके इस विचार ने मुझे सोचते रहने पर विवश क्र दिया .
इस बात पर चल देने का मूड हो गया सो मैं रिक्शे वाले के पास जाता हूँ, वो पूछता है बाऊजी कहाँ जाना है ? मै जरा सा सोचने लगता हूँ, और वो कहता है  -- बैठिये बाउजी .

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सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

लाल बिल्ली


कामरेड उस मुकाम पर पहुंच गए थे जब आदमी एक लकड़ी और कुछ अलौकिक कामनाओं के सहारे चलने लगता है । यों देखा जाए तो कामरेड के पास क्या नहीं है । बेटे बाजार के बीहड़ में फावड़े से खींच रहे हैं और बोरियों में ला रहे हैं । बंगले में डाबरमेन, बाक्सर और लेबराडोर उस प्रतिष्ठा को बुलंद करते हैं जिसे कभी कामरेड ने सड़कों पर नारे लगा कर धूल में मिलाया था । अक्सर मोटे कपड़ों और सस्ते जूतों के सहारे वे सच का सामना करने की असफल कोशिश करते पाए जाते हैं । बावजूद बगल से उधड़ा कुर्ता पहनने के वे अपने पर लगाए प्रश्न चिन्हों को परास्त नहीं कर पाते हैं । उनका प्रतिप्रश्न होता कि कामरेड के गाल लाल नहीं हो सकते हैं ऐसा कहां लिखा है ! किसी के मोटा हो जाने से मार्क्सवाद पतला हो जाता है क्या ? कामरेड को उसकी लाल कार से नहीं उसके लाल विचारों से पहचाना जाना चाहिए । कामरेड ने कई दफा बार का छोटा-बड़ा बिल चुकाया है, लेकिन बावजूद इसके साथियों ने उन्हें कभी भी नीट-कामरेडनहीं माना। कभी पूंजीवादी सोड़ा तो कभी दक्षिणपंथी पानी मिला कर उसका असर कम करते रहे। आखिर एक दिन साफ साफ बात हो गई। साथियों ने कहा कि बिल का पेमेंट तो ठीक है लेकिन बैरे को मात्र दो-तीन रुपए की टिप दे कर उसका अपमान करते हो! ये पूंजीवदी आचरण और बुर्जुवा सोच है।
कामरेड सहमत नहीं हुआ- ‘‘ज्यादा टिप देने वाला कामरेड हो जाएगा क्या ? कैसी बातें करते हो ! ...... अपना भाई समझ कर उसे टिप देता हूं भले ही कम हो।’’
‘‘भाई टिप नहीं हिस्सा मांगते हैं कामरेड। ....... हम भी आपके भाई हैं, .... ये सोचा कभी आपने ?’’ पुराना साथी महेश  बोला।
‘‘देखो महेश, बुरे दिन किस पर नहीं आते हैं। न चाहते हुए भी मैं आज धनवान हूं। जबान का स्वाद भले ही बदल गया हो पर विचार तो आज भी वही हैं। लाल झंडा देख कर मैं भड़कता नहीं हूं, इसका क्या मतलब है ?’’ कामरेड रुका .... और दो सांस लेने के बाद फिर बोला- ‘‘उम्र के इस मुकाम पर कुछ भी हो सकता है ...... तुम्हें मैंने हमेशा अपना विश्वसनीय माना है ...... तुमसे एक गुजारिश है, ...... जब मेरी अर्थी निकले .... तुम .... तुम खुद ....मेरे लिए लाल सलामके नारे लगवा देना ..... वरना मेरी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलेगा।’’ कामरेड फफक पड़ा।
‘‘ अरे ! भावुक मत बनो कामरेड ! ..... ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि कामरेड़ों की आत्मा नहीं होती है, न पुनर्जन्म होता है और न ही मोक्ष । दक्षिणपंथियों की सोहबत में मार्क्सवाद को आपने चरणामृत में बदल लिया है ! ’’ महेश ने जेब से रुमाल निकाल कर उनके आंसू पोंछे और इस बात को याद रखने के लिए कहा कि वक्त और जरूरत पड़ने पर हम लोगों के बीच आंसू पोंछने की परंपरा अभी बची हुई है ।
‘‘ मैं जिन्दगी भर तुम लोगों के बीच रहा , यह जानते हुए कि तुम वो नहीं हो जिसका दावा करते रहे हो । ’’ कामरेड के आंसू फिर बह पड़े ।
‘‘ कामरेड, क्या आप अपनी गलती पर रो रहे हैं ? ’’
‘‘ गलती पर नहीं .... मूर्खता पर । मुझे नहीं पता था कि एक बार कामरेड़ हो जाने के बाद कोई विकल्प नहीं बचता है । ’’
‘‘ जो अपने लिए विकल्प की चाह रखते हैं वे कामरेड नहीं रहते हैं । ’’
‘‘ मैं जिंदगी के तीस साल भुलावे में रहा, ..... बावजूद इसके मुझे लाल सलामचाहिए । मुझसे वादा करो महेश  । ’’ कामरेड ने महेश  का हाथ पकड़ लिया ।
‘‘ देखिये, आप हमेशा बिल चुकाते रहे हैं ..... मैं कोशिश करूंगा । ’’ महेश  ने कहा ।
‘‘ कोशिश नहीं वादा करो । ...... और याद रखो ..... तुम्हारा वादा एक बार-साथी का वादा है । ’’
‘‘ ठीक है .... मैं वादा करता हूं । ’’
‘‘ शुक्रिया महेश  ..... अब मैं निश्चिन्त हो कर जा सकूंगा । ’’
‘‘ कहाँ जा रहे हो कामरेड !? ’’
‘‘ चार धाम की यात्रा पर । ...... पर कहना मत किसी से । ’’
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

सब खाएंगे तो सोच बदलेगी

जिस वक्त देश में आतंकी हमला हुआ और हमारे जवानों के  शहीद हो जाने से लोग आहत थे, तब उनका बयान आया कि भईया, मेरे खिलाफ मुकदमा इसलिए दर्ज करवाए जा रहे हैं क्योंकि में देश के गरीबों, बेरोजगार युवाओं और  किसानों के हक के लिए लड़ रहा हूँ . किसी ने बीच में बोल कर याद दिलाया कि देश के हमारे सिपाही सीमा पर लड़ रहे हैं. आप क्या कहना चाहेंगे ?
वे बोले –“ आतंकी हमले हों या चुनाव सर पर हों, जवाबदार लोगों को लडना ही पड़ता है. दोनों इज्जत के लिए जी जान लगा देते हैं . लेकिन एक के साथ सरकार होती है, देश होता है और दूसरे के साथ पार्टी के लोग भी नहीं होते हैं . आसानी से समझा जा सकता है कि बड़ी लड़ाई कौन लड़ रहा है. .... देखो भईया, ऐसा है कि आपके प्रधानमंत्री जी करते तो बड़ी बड़ी बातें हैं लेकिन अभी तक अच्छे दिन आये नहीं हैं . आरोप नहीं लगा रहा हूँ, पूरे यकीन  के साथ कह रहा हूँ , मेरे तो नहीं आये हैं. आपकी आप लोग जानें. लेकिन पार्टी कार्यालय में किसी ने मुझे बताया कि जनता के भी अच्छे दिन अभी नहीं आये हैं. सच बात तो ये है कि हम भी नहीं चाहते हैं कि जब तक हम सत्ता में नहीं आते किसी के अच्छे दिन आयें . मम्मी कहती है कि एक बार तुम कुर्सी पर बैठ जाओ तो हमारे अच्छे दिन आ जायेंगे. रोज रोज के मुकदमों से वो भी बहुत तंग आ चुकी हैं. मम्मी को मैं कहता हूँ कि देखो भईया मै पूरे प्रयास कर रहा हूँ. प्रयास करना बड़ी बात है, हार-जीत तो जनता के हाथ  में होती है.
एक पत्रकार ने पूछा - कुंवर जी, गरीबों, बेरोजगारों और किसानों के लिए आपके पास क्या योजनाएं  हैं ?
देखो ऐसा है, गरीबों को हम कहेंगे कि भईया गरीब लोगों, तुम सबसे पहले अपनी सोच बदलो. जो लोग सोच नहीं बदलते वो आलरेडी गरीब होते हैं , गरीब बने रहते हैं. सोचने के लिए हम उन्हें चाकलेट की सुविधा देंगे. आप जानते होंगे कि चाकलेट खाने से सोचने कि छमता बढ़ जाती  है. ... आप मुझे देखिये , आज मैं जो भी हूँ चाकलेट के कारण हूँ. अगर हमारी सरकार बनी तो हम चाकलेट को टेक्स फ्री कर देंगे. गरीबों, किसानो और बेरोजगारों को चाकलेट फ्री बाँटेंगे ....
लेकिन सर, कुछ सरकारें लेपटाप और स्मार्ट फोन फ्री बाँट रही हैं !! किसी ने सवाल दागा .
देखो भईया, आप लोग भी अपनी सोच बदलो. लेपटोप और स्मार्ट फोन कोई खा सकता है क्या ? खाने से सोच बदलती है. जिनको खाने के बारे में ठीक ठीक ज्ञान नहीं है वही राजनीति को भी गन्दी कहते हैं. सब खाएंगे तो सोच बदलेगी, देश बदलेगा. जनता को हम खाना सिखाएंगे और इसकी शुरुवात चाकलेट से करेंगे. हमारा देश साधू-संतों और फकीरों का देश है. उनके पास  खाने पहनने को नहीं होता है लेकिन मस्त रहते हैं. ऐसा सोच के कारण होता है. एक बार पार्टी ने नारा दिया था कि गरीबी-हटाओ, अब हमारा नारा होगा अपनी सोच-बदलो.
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सोमवार, 26 सितंबर 2016

फटकार वही जो सुप्रीम कोर्ट लगाये


सुप्रीम कोर्ट घर में भी होती है और मौके-बेमौके फटकार भी लगती है . यहाँ बात की बारीकी को समझें जरा, जो लोग मौका देते हैं उन्हें मौके मौके पर फटकार लगती है लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो मौका नहीं देते हैं वे बकायदा बेमौके फटकारे जाते हैं. देश की सुप्रीम कोर्ट का काम भी इन दिनों बढ़ गया लगता है. लगभग रोज ही किसी न किसी को फटकारे जाने की खबर छप रही है. हाल ही में किसी बेसहारा हो चुके समूह के मुखिया अपने वकील समेत फटकारे जा चुके हैं. बड़ा आदमी फटकारा जाये तो ब्रेकिंग न्यूज बनती है. सुप्रीम कोर्ट की फटकार से छोटा आदमी भी फट्ट से महान हो जाता है तो फिर बड़े आदमी के क्या कहने. अखबार में उसकी कलर फोटो छपती है और लोग देखते हैं कि वह चमकीले दांतों के साथ मुस्करा भी रहा है. हमारे यहाँ ऐसे पहुंचे हुए बाबा हो चुके है जिनकी लात खा कर लोग सांसद तक बन गए. करोड़पतियों ने भी लात खाई और अरबपति हो गए. लेकिन गरीब ने लात खाई तो वह और गरीब हो गया. बाबा से शिकायत की तो वे बोले जिसके पास जो होता है उसे लात मार कर मैं और बढा देता हूँ. गरीब से कहो कि वह अपनी गरीबी ले कर नहीं आये. कुछ चोर-उचक्के किस्म के लात खा आये, उनमें से अनेक आज डान, भाई या बाहुबली नाम से पहचने जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट की फटकर लात से काम नहीं है, पड़ते ही जेल जाते आदमी की जमानत हो जाती  है और वो दो ऊँगली दिखता बहार आ जाता है.
इधर बिहार में तो फटकार आशीर्वाद का काम करती दिखाई देती है. किसी जमाने में परिवार नियोजन को लेकर दुनिया भर की फटकार सहेजने वाला आज अपने पूरे कुनबे के साथ राजनीति करते हुए जनता की सेवा कर रहा है. यह कोई छोटी बात नहीं है, होनहार वो देख लेते हैं जो दूसरे नहीं देख पाते हैं. अब देखिये, सुप्रीम कोर्ट ने इधर भी तेजपाल नाम के एक मंत्री को फटकार लगाई और नोटिस दिया कि उन्होंने अपराधियों को पाल रखा है, खासकर उन अपराधियों को जिन पर हत्या के आरोप हैं. सुप्रीम कोर्ट में विद्वान बैठते है, जमीनी हकीकत से वो दूर होते हैं. उन्हें यह नहीं पता कि नेता अपराधियों को पालते हैं या अपराधी नेताओ को पालते हैं . किसी नामालुमुद्दीन के बारे में सुना होगा आपने. बताइए जरा, उसे नेताओं ने पाल रखा हैं या कि उसने नेतटट्टे पाल रखे हैं. सुनने में तो यह आता है कि हर अपराधी की जेब में दो-चार नेतटट्टे पड़े रहते हैं. विद्वानों को क्या पता, न अपराधियों से उनका नाता, न ही नेताओं से. उनका काम फटकारना है सो फटकार दिया. इधर फटकार पड़ते छुटके से मंत्री बड़का गए और दन्न से बोल दिए कि हमको क्या पता कि कौन अपराधी है और कौन नहीं. किसी के माथा पर तो लिखा नहीं होता है. हमारे साथ रोजाना ह्ज्जारो आदमी फोटू खिंचवाता है, हमको कोई याद रहता है कि कौन आ कर पास में खड़ा हो गया. पप्पाजी बयान सुने तो खुस हो गए, बोले लरिका एक्को फटकार में गियानी हो गया है, सुवास्थ मंत्रालय छोटा पड़ रहा है. मूखमंत्री नहीं तो कम से कम होम मिनिस्टर तो बनाना तो बहुते जरूरी हो गया है. सुप्रीम कोर्ट का फटकार ऐरे गेरे को नहीं ना पडती है.


रविवार, 18 सितंबर 2016

एक जिम्मेदार आदमी का अंतिम पत्र



पुलिस ने सुसाइट-नोट पढ़ा।
शुरू में लिखा था .....‘‘ प्यारी जोजो ....।’’
‘‘ ये जोजो कौन है बे !? ’’ साहब ने सामने खड़े व्यक्ति से पूछा।
‘‘ हमारी भाभी हैं, ..... भइया भाभी को जोजो नाम से ही बुलाते थे। ’’
‘‘ जोजो क्यों !? इस तरां का नाम तो होता नहीं है इधर !’’
‘‘ वो क्या है सर जी, भाभी हर बात में जो हेकि, जो हेकिबोला करती थी। इसलिए .....’’
‘‘ तुम्हारे भाई की राइटिंग अच्छी नहीं है ! तुम पढ़ सकते हो ?’’
‘‘ हां जी ।’’
‘‘ पढ़ के सुनाओ तो जरा।’’
हमाई पियारी जोजो,
हमें माफ कर देना, अब हम जा रए हें । जे दुनिया अच्छे आदमी के लाने तो हइये नईं। हमाई तो दुस्मन बनी पड़ी है, भर पाए हम तो। पर देखो तुम चिंता करना मती, और टैम पे खा-पी लिया करना नहीं तो बीमार पड़ जाओगी। घर में अम्मा लगी पड़ी हैं खाट से और दद्दा भी उठै-बैठै से टोटल-लाचार चल रए हैं। काम तो तुम बीमार पड़ै में भी कर लेती हो दिन-रात। पर तुम ठीक रहोगी तभी ना उनका ख्याल रख सकोगी अच्छे से। सास-सुसुर हैं तुमारे, सेवा का फरज तो बनतई है, ...... है कि नईं। खाबै के मामले में तुमाई आदत अच्छी नईं है। एक तो सबसे आखरी में खाती हो, इसलिए कम मिलता है, कभी कभी तो मिलताई नईं है। तुम तो हमें बताती नईं हो ....... पर हम जानते सब हैं। अब तुम तो जे नियम-घरम, सरम-वरम सब छोंड़ दो, ...... हमीं नईं रहे तो आखरी में खाबै का मतलब का है, बताओ  ? सई हैकि नईं ? हमाई  मानो तुम तो पहले खा लिया करो चुप्पे से। नहीं तो उप्पर स्वरग में हमें तुमाई बड़ी फिकिर लगी रहेगी। और जे तुम जान लो कि फिकिर में हम कोई आराम थोड़ी कर पाएंगे वहां। तुमै, पता नईं है, हमारे लाने स्वरग में भोत काम लगा पड़ा रैगा। उप्पर से तुमाई फिकिर। वहां तो मरै का मौका भी नईं मिलेगा, ये सोची हो तुम । बहुत मुस्किल जिनगी होती है मरै के बाद की। इत्ता तो जानती होगी .... कि नईं।
एसा नईं ना सोचना कि तुमको हम बेसहारा छोड़े जा रए हें। सात बच्चे हैं, जो आगे चल के तुमारा सहारा बनेंगे। चार ठौ मोड़े हें ..... राज करोगी तुम तो .... और तीन ठौ मोड़ियां हैं। तो जान लो कि अपनी सरकार भी कै रही है कि मोड़ा-मोड़ी सब बरोबर होत हैं। ...... खुस तो हो ना तुम ? ...... देखो भागवान, जित्ता हमसे बना उत्ता कर दिया हमने। ...... तो समझ लो कि सातों के सातों मोड़े हैं तुमारे। अच्छे इसकूल भेजना सबको। खूब पढ़ाना लिखाना, हाँ । फिर देखना बिरादरी में कित्ती इज्जत होती है तुमाई। बिरादरी वाले आदमी को देख के कल्लाते हें पर गरीब ओरत की तो बड़ी इज्जत करते हें। फिर तुम तो अब बिधवा हो जाओगी .... तो बैसेई पंच पियारी रहोगी।
जान लेओ कि छोटू और जग्गू की फिकिर हमको बहुत है। जरा कमजोर हैं। तुम ठीक से अपना दूध पिलातीं तो निकल आते ससुर के नाती, पर तुमने हमाई सुनी कब। चलौ जो हो गया सो हो गया, गलती इंसान सेई होती है। अब हो सके तो उनके लिए एक ठौ गइया पाल लेना। दूध पीयेंगे तो टनटना जाएंगे गबरू समान। .... हमै का, हम तो जा रए हें, तुमाए ही काम आएंगे। हम हमाए लाने तो कुछ कै नहीं रए।
और देखो रानी, ... गुलाबो और गेंदा दोनों का ब्याह टैम पे कर देना। जवान होने बाली हैं। तुम तो जानती हो आजकल जमाना अच्छा नईं है। दबंगों के लौंडे बहुत बिगड़े हुए हैं। उनके लाने गारी निकरती है मुंह से, हमैं तो उन लोगों ने दो कौड़ी का नईं समझा। पर तुम बड़ी हिम्मत वाली हो। मोर्चा ले लोगी उन सबही से। और देखो, ..... सादी-ब्याह की चिंता तो समझो कि हैयेई नईं, .... सरकार मामा है, करवा देगी मजे में। .... घर-बर अच्छा ढूंढना, ऐरे गैरे के पल्ले मत बांध देना। बिन बाप की लड़कियां हैं तो दयालू घर भी मिल जाएंगे आराम से। इतना तो नाम है हमारा। ... और जो भी सुनेगा कि फांसी लगा के मरे हैं तो पसीज जाएगा। अरे हां, फांसी से याद आया कि घिसिया की दुकान से हम रस्सी ले लिए हैं उधार, लटकने के वास्ते। उसका पैसा मांगे तो नईं देना, रस्सी लौटा देना। .... पर बापस करने से पहले एक बार अम्मा और दद्दा से पूछ लेना। पता नहीं रस्सी के लाने ही बैठे कल्ला रहे हों।
जोजो रानी, तुमाए से हमने कभी कुछ छुपाया नईं ..... पर अब जाते जाते बता दें कि तुमाए चांदी के कड़े जो तिपाई वाले कोने में तुम गाड़ रखी थीं वो हमने बहुत पहले खोद के बेंच दिए थे। रमईराम से कर्जा लिए हैं ये तो तुमैं पता है ना। अरे पचीस हजार बताए थे ना हम ? देखो तुम बरदास कर जाओ इसलिए पचीस बताए थे, सच्ची बात तो जे है कि पच्चास हजार लिए थे और अब बढ़ के दो लाख हो गया है। तुम जानती तो हो साहुकरों का ब्याज बट्टा। हमाए बस की बात नहीं थी और ना हम दोसी हैं इस रकम के। इसी चिंता में हम घुले जा रहे थे। पर तुम चिंता मत करना और रोना भी नहीं। .... बने तो धीरे धीरे चुका देना मजे में। लछमी हो तुम तो, ..... नहीं बने तो वो खुद ही घर ले लेगा, ..... हमने घर गिरवी लिखा दिया है, तुमको कुछ परेसानी नईं होगी। रकम से हमने दारू वाले का पूउरा चुकता कर दिया है, नईं तो वो बदमास तुमैं परेसान करते, मानते थोड़ी। हां, थोड़ी रकम जुए में चली गई है, सो उसके लिए हाथ जोड़ के माफी मांगते हैं। तुम अगर बरत-उपवास करतीं, पूजा-पाठ और नेम-धरम करतीं तो पासे हमारी तरफ गिरते और घर के दलिद्दर दूर होते, तुम और तुमाए बच्चा-बुच्ची आराम से रहते। पर ठीक है जैसी तुमाई इच्छा, हम तो जा रहे हैं अब, तुमाए मन में जैसा आए वैसा करो। हमारा कोई दखल नईं रहेगा किसी काम में। तुम खुस रहो और हमको क्या चहिए। येई फिकिर में मरै जा रए हैं हम।
हमारा-तुमारा साथ इत्ताई था, देखो रोना नईं ..... पर सुनो तनिक, ..... जे नईं रोने का बोल दिया तो लकीर की फकीर मती हो जाना, .... लोक दिखाबे के लाने थोड़ा रो लेना, नहीं तो मस्त हो जाओ ..... अरे हां, ....तुम ठहरी मजबूत औरत, कई दफे तो हमेई पीट चुकी हो। हमने बताया नहीं पर सच्ची कहते हैं तुमाए हाथन की बड़ी जोर की लगती है। वो तो हमई रहे कि जे बात किसी को बाहर पता नहीं चली, ...... तुमाई इज्जत की लगी रहती थी इसके लाने किसी के आगे मूं नईं खोला। सोच लो कोई और होता तो तुम तो बदनाम हो गईं होती। पिछले हप्ते पीठ पे जो लात तुमने जमाई थी, सच्ची अभी तक दुख रही है। हल्दी-चूना लगाया तो था पर तुमाए आगे हल्दी-चूना की कुछ चलती क्या ? पता नहीं तुमाई लात में ब्रहम्मा जी अपनी लात घुसाए देते हैं। अब उप्पर जा रए हें तो उनसे जे पूछेंगे जरूर।
तो अब चलैं जोजो रानी, सच्ची मन तो नईं हो रहा, पर मरद जात एक बार कुछ ठान ले तो पीछे हटै से हेटी होती है। तुम तो जानती हो छाती में  कित्ते सारे बाल हैं हमाए। असली मरद हैं, मौत से डर तो नईं जाएंगे। कल जब बात निकले तो मोड़ा-मोड़ी को हमाई बहादुरी के किस्से सुनाना। देखो अगर भूत बन गए तो तुमारी रच्छा जरूर करेंगे.... आखिर हमारा भी फरज है.... पीछे नहीं हटने वाले हैं हम, देख लेना अमावस की रात इमली के झाड़ के नीचे खड़े मिलेंगे तुमारे लाने। ...... और हांएक बात और कह दें, ... तेरा दिन बाद हमारा नुक्ता अच्छे से करना। पैसों की फिकिर मत करना, सरकार मुआवजा देती है लाख-दो लाख। नुक्ते में इससे ज्यादा नईं लगेगा। .... देख लो जोजो रानी, तुमपे कुछ बोझा छोड़े के नईं जा रए हैं हम। ..... अच्छा राम राम, ध्यान रखियो सबका। ...... तुमारा हिम्मत सिंग।
‘‘ बस इत्ताई लिखा है साहब। ’’
‘‘ कितना भला आदमी था रे तेरा भाई । अबे हमको रोना आ रहा है, जा जोजो को बुला ला, उससे लग के थोड़ा रो लें, सरकारी हुए तो क्या हुआ, कुछ जिम्मेदारी हमारी भी बनती है।’’

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