रविवार, 27 दिसंबर 2015

आमआदमी के कंधों पर सवारी

                          अखबारों में सुर्खियां लगी कि वे आमआदमी की तरह ‘पेश ’ हुए हैं।  वे बताना चाहते हैं कि आमआदमी मासूम होता है और उसकी पेशी  अकारण होती रहती है और यही उनके साथ हुआ है। वे भोले हैं, उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं, उनका पिछला रेकार्ड देखा जा सकता है, वे कुछ करते ही नहीं। वे मानते हैं कि उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। जितना पहले वालों ने कर दिया वही उनके लिए बोफोर्स है। इसी से देश को मान लेना चाहिए कि लोगों ने षडयंत्र पूर्वक उन्हें फंसाने की कोशिश  की है। जिस तरह आमआदमी पर अत्याचार होते हैं और उसकी कोई सुनता नहीं है उसी तरह की पीड़ा से वे भी गुजर रहे हैं। खूब ना नुकुर की मगर जबरिया पेशी  हो गई। इससे बड़ी असहिष्णुता भला क्या होगी ?
                    आमआदमी की ‘तरह’ वाली इस बात में जब कुछ खास नहीं है  तो यह खबर बनी क्यों ! क्या उन्होंने पेश  हो कर न्यायालय पर कृपा की !? कहीं उन्होंने यह उम्मीद तो नहीं लगा रखी थी कि जमानत का नजराना लिए न्यायालय खुद पेश  होगा उनके दरबार ! वे ऐसा क्यों जताते रहे कि न्यायालय ने खुद जुर्म कर दिया है उन्हें पेश  होने का आदेश  दे कर !! या ये उम्मीद रही होगी कि देश  की सवा सौ करोड़ जनता उनके पक्ष में खड़ी हो जाएगी हाय हाय करते हुए। वक्त जरूरत सब करना पड़ता है, किया ही  है  राजनीति में। मन मार कर किसी गरीब के घर रोटी भी तोड़ना पड़े तो तोड़ी  हैं। अपनी उबकाई रोकते हुए अधनंगे सेमड़े बच्चे को उठा कर चूमना पड़े तो चूमते ही हैं, लेकिन ऐसे वक्त की उम्मीद में ही।  प्रजा विश्वास  पर चलती है प्रमाण पर नहीं। वे चाहते हैं कि माहौल बने और न्यायव्यवस्था प्रजा की भावना का न केवल सम्मान बल्कि अनुकरण भी करे। मीडिया कह रहा है कि जमानत का जश्न  मनाया जा रहा है ! जबकि  वे चाहते रहे  कि एक बार वातावरण बन जाए तो हल्दीघाटी मचा के रख दें। 
                       अब मुद्दे की बात, अदालत तो अदालत है, उसके सामने आम क्या और खास क्या। जब पेशी  है तो है, नखरों की गुंजाइश  पार्टी की अदालत में हो सकती है वहां नहीं। वैसे किसी खास को जब पेश  होना पड़ता है तो वह आमआदमी की ‘तरह’ ही पेश  होता है। आजकल खीजे हुए पुलिस वालों का कोई भरोसा नहीं, वे अपनी वाली पर आ जाएं और किसी खास को नहीं पहचानें । इसलिए आमआदमी होना किसी मायने में सुरक्षित होना भी है, हाथ जोड़ो और निकल्लो चुपचाप। आपने देखा होगा कि ऐरेगैरे और चोर उचक्केे पेश  होते वक्त विक्ट्री की दो अंगुलियां दिखाते हैं, मुस्कराते हैं, जिससे अक्सर लोगों को उनके खास आदमी होने का भ्रम होता है। ऐसे में खास आदमी की तरह पेश होना जोखिम भरा भी है। इधर खास आदमी जब आम आदमी बनता है तो अपनी कालिख सब में बांट देता है। राजा काना हो तो आम जन को एक आंख ढंकने के लिए कह कर अपने कानेपन में वह सबको शामिल कर सकता है। लेकिन लोकतंत्र में दिक्कत यह है कि आदेश  केवल न्यायालय दे सकता है और वह भी पेशी  का। आमआदमी के नेहरू चाचा होते हैं , और खास आदमी के नाना-परनाना, तो आमआदमी से उनके घर के संबंध हुए, ..... अड़े-भिड़े में हक तो  बनता ही है। तरह तरह से पेश होने में उनकी मास्टरी भी है। चुनाव पूर्व जो राजा की ‘तरह’ जीवन जीते हैं चुनाव में वे सेवक की ‘तरह’ पेश  आने लगते हैं। खैर, आप दिल पर मत लेना, बड़ी बड़ी कोर्टों में इस तरह की छोटी छोटी बातें होती रहती हैं। वे जफ़र से बड़े बदनसीब तो कतई नहीं है।
                                                                         
                                                                           ------------