शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

दो पेसल, कड़क मीठी

                             
    ‘‘देखो बाऊजी बुरा नी मान्ना, बात भोत बारीक हे, पेले समजना आप ....... नितो कल को केओगे कि ताने मार्ते हो। समजना आप ..... सई बात हे कि आज की डेट में साहित-वाहित की तो बाती कन्ना बेकार हे। सुबे से साम तक आदमी को दम्मान्ने की-बी फुरसत नी हे एसे में किताब पड़ेगा कोन ?! बुरा नी मान्ना, आप लिख्ते-विख्ते हो, ... अच्छई लिख्ते होवगे, पर आपको पूछत्तई कोन हे ?! मोल्ले के लोग बी नी जान्ते होएंगे कि आप जिन्दा हो कि मर गए। ... नी, .... बुरा नी मान्ना बाऊजी ..... आप्ने बात निकाली तो बोल्ने में आ गया। सई हे कि नी ?’’
                       ‘‘बाऊजी जमाना खराब हे,  बुरा मत मान्ना, बात बिल्कुल सई हे। हम लोग ठहरे हिन्दी वाले, ठीक हे कि नी। आप जान्ते हो कि हिन्दी वाले काम धंधे वाले होते है और काम धंधे का मतलब तो आप जान्ते-ई हो। जिसमें पैसा नीं मिले संसार में वो काम, काम-ई नीं है। हिन्दी वाले काम कर्ते  हैं और देस की तरक्की में लगे पड़े हैं जीजान से। इसलिए हमको न साहित-वाहित से कुछ लेना देना है ना किताबों से। सुबे से साम तक मेनत कर्ते  हैं, पेसा कमाते हें। बहोत टेंशन हो जाता है, तबेत तक ठीक नीं रेती हे, डाक्टर होंन के पास हर दूसरे दिन जाना पड़ता है। दिन भर दवाएं खाना पड़ती है, बीच में टेम निकाल के थोड़ा खाना भी खाना पड़ता है वर्ना घर की औरतें चिंता में पड़ जाती हें। आपी बताओ ऐसे में कौन-सी किताब और कां-का साहित-वाहित !? हम मराठी या बंगाली तो हें नीं कि धूप में बैठे किताब होन में फोकट माथा फोड़ते रहें। हर हप्ते अपने सीए से माथाफोड़ी करने के बाद तो आदमी में कुछ कन्ने की ताकत रे-ई नीं जाती है सिवा टीवी टूंगने के। उसमे बी कुछ समज में नी आता हे। 
                  हमें मौन देख कर वे फिर बोले - ‘‘ आप तो चुप-ई  हो गए !!  एसा हे कि, बुरा नी मान्ना ...... हम्म लोग जिम्मेदारी ले-के चलने वाले लोग हें। बाल-बच्चे ले-के बेठे हें। उन्की तरफ भी देखना-ई पड़ता हे। पड़ने-लिखने में तो कुछ नी धरा हे, पर ब्याव-सादी तो समाज के हिसाब से-ई कन्ना पड़ती हे। आज की डेट में गिरी से गिरी हालत में सादी का खर्चा पंद्रा लाख से उप्परी जा रिया हे। ....  बुरा नी मान्ना .... आपको क्या हे ...... कोन पूछता हे !! .... पर हम्को तो समाज में उठना-बेठना पड़ता हे .... किताबों में टेम बरबाद कन्ना हम्को पुसाता थोड़ी हे। दुन्यिा में आएं हें तो दुन्यिादारी तो रखना -ई पड़ती हे। ’’
                         एक छोटा विराम ले कर वे फिर शुरू हुए, - ‘‘ चाय-वाय पियोगे आप ? .... इच्छा नीं होए तो कोई बात नी।  वेसे-ई पूछ लिया आप बेठे हो तो। ..... बुरा नी मान्ना, .... वेसे-ई जान्कारी के लिए पूछ-रा हूं कि एक लेख के कित्ते पेसे मिल जाते हें आपको ?’’
                   ‘‘ ज्यादा नहीं, .... पांच सौ से हजार तक मिलते ही हैं।’’ हमने जरा बढ़ा कर बताना जरूरी समझा, कुछ अपनी इज्जत के लिए कुछ पत्र-पत्रिकाओं की। 
                     वे चौंके, - ‘‘ बस पान सो रुपिये !! इस्से जदा तो मंडी के हम्माल कमा लेते हें ! हम्माल तो ठीक हें, आजकल मंगते होन पान सो से जादा बना लेते हें मजे में। ..... पर आप बुरा नी मान्ना .... एक रिफिल से कित्ते लेख लिख लेते हो आप ?’’
                      ‘‘ चार-पांच तो हो जाते हैं आराम से । ’’
                    ‘‘ एं !! एक रुपे की रिफिल से दो ढाई हज्जार बना लेते हो !! धंधा तो ठीक हे। ..... पाटनरी करते हो ? रिफिल तुमारी कागज हमारे ....... फिप्टी फिप्टी ...... बोलो ? ....... चलो चालिस-साठ कल्लो ....... नईं ? ……  एं ?  …… चाय पियो, मंगवाता हूं । ’’
                   उन्होंने आवाज लगाई , ‘‘ए छोरा ...... दो पेसल बोल कड़क मीठी ।’’ 

                                                                         ----

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

शेरों ने लौटायीं हड्डियाँ

             
   शेर नाराज हो गए। नाराज होना और नाराज बने रहना शेरों का काम है। नाराज नहीं हो तो शेरों को कोई शेर न कहे। पहचान की इस चिंता के कारण बेचारे शेर प्रायः मुस्कराते भी नहीं है। लेकिन जब कोई शेर हंसता दिखाई दे जाता है तो उसके कई मायने होते हैं जिन्हें वही शेर समझ पाते हैं जो पहले हंस चुके हैं। हंसी का यह रहस्यवाद एक किस्म की साझेदारी से जुड़ा हुआ है। शेरों की हंसी एक तिलस्मी संघर्ष की हंसी है, यह बेताल की लंबी कथा के अंत की हंसी है। हजारों बरस उनका चमन अपनी बेनूरी पर रोता है तब कहीं पैदा होता है हंसी का सबब कोई। लेकिन आज याद आया कि वे तो शेर हैं इसलिए थोड़े समय के लिए उन्हें बाकायदा नाराज भी होना चाहिए। बहुत सोच विचार के बाद कुछ शेरों ने तय किया कि वे अपनी हंसी लौटाएंगे। उनकी हंसी जंगल की खुशहाली का प्रतीक क्यों हो। अगर अभी नहीं लौटाया तो इतिहास उन्हें हंसीखोर के रूप में दर्ज कर सकता है। सो जोरदार दहाड़ों के साथ इस बात की घोषणा हुई कि शेर अपनी हंसी लौटा रहे हैं। जंगल को समझते देर नहीं लगी कि फिर कोई शिकार हुआ। दाढ़ में एक बार खून लग जाए तो यह क्रम रुकता नहीं है। जल्द ही तमाम दूसरे शेर भी मुंह में अपनी अपनी हंसी दबाए जुट गए। हंसी लौटाने की होड़ सी लग गई। जंगलटीवी ने इसे हंसी लौटाने का मौसम घोषित किया और अपनी टीआरपी में बदल लिया। शेर बयान दे रहे हैं, बहसें कर रहे हैं, दुम उठा रहे हैं कभी पंजे पटक रहे हैं। फोटो छपा रहे हैं, लाइव टेबल ठोंक रहे हैं। जो भुला दिए गए थे अब टीवी पर उनके दांत गिने जा रहे हैं। हंसी ले गए थे तब कितने थे, आज जब लौटा रहे हैं तो कितने हैं। जुबान में तब कितना लोच था, अब कितनी बेलोच है। हंसी कोरी ‘ही-ही’ नहीं है और भी बहुत कुछ है। लेते समय रोम रोम हंसी के साथ था, लौटाते समय अकेली अबला हंसी है। ये हंसी वो नहीं है वनराज, वो तो आप हंस चुके। हड्डियां लौटा कर आप हिरण लौटाने का श्रेय नहीं ले सकते। लेकिन शेर सुनने को तैयार नहीं।
                    इधर चर्चा यह भी है कि शेर किसी विचारधारा के लपेटे में  आ गए हैं। विचारधारा एक तरह का अभयारण्य है। वे उंची जालियों वाली एक हदबंदी में कैद रहते हैं और उन्हें इस कैद की आदत हो जाती है। हालांकि शेरों को भ्रम रहता है कि वे आजाद हैं। उन्हें लगता है कि जो जालियों के पार हैं दरअसल वे कैद हैं। इसलिए वे जालियां फांदने की सोचते भी नहीं हैं। तमाम लोग उन्हें देखने आते हैं, फोटो खींचते हैं, फिल्म भी बनाते हैं। उन्हें लगता हैं कि वे लोकप्रिय हैं, नायक हो जाने का भाव भी जाग ही जाता है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। अनेक शेरों ने अपनी गुफा में बैठ कर बकरगान किया है और बकरियों की कौम में आशा  की किरण पैदा की है। शेरों का यह छोटा काम नहीं है, इसीका ईनाम हंसी है। 
                       कुछ शेरों को सर्कस में भी अवसर मिला। यहां पिंजरा है लेकिन लंच-डिनर की अच्छी व्यवस्था है। थोड़ी बहुत कलाबाजियां करना पड़ती हैं लेकिन भागदौड़ नहीं है। यहां लाइम-लाइट है, कालीन, कुर्सियां हैं, संगीत है तालियां हैं। हां, ..... चाबुक भी है, लेकिन यू-नो, अनुशासन सर्कस की प्राथमिकता है। और यह याद रखने के लिए कि एक रिंग मास्टर है। सर्कस के हुए तो भी क्या हुआ, शेर आखिर शेर हैं, हर शो  में वे भी हंसते हैं। हंसी का ईनाम इधर भी है। 
                                                                                          -----

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

घोड़ा और राजकुमार

               
    रियासत परंपरापुर में इस समय हर कोई सदमे में चल रहा है। एक राजकुमार कब से मायूस  बैठा है म्यान में चांदी  की तलवार लिए। उसे न कहीं से ललकार सुनाई दे रही है और न ही कोई मैदान दिखाई दे रहा है कि मार लें फट्ट से। सरकार, जो कि अब सत्ता में नहीं है लेकिन अब भी अपने को आदतन सरकार मान रही है, बुरी तरह से चिंतित है कि आखिर राजकुमार की भूमिका कैसे तय हो। खुद राजकुमार मारे असमंजस के यहां से वहां हो रहा है लेकिन नतीजा जो है सामने नहीं आ रहा है। कुछ करे तो हाथ उठा देते हैं लोग और नहीं करे तो अंगुली। बिन सरकार के मंत्री लोग मीडिया के डर से अंदर ही अंदर प्रार्थना कर रहे हैं कि हे ईश्वर  राजकुमार को जल्द से जल्द काबिल बनाए ताकि उन्हें जंगल लुट जाने से पहले आखेट के लिए आगे किया जा सके। सारे सिपाही बल्लम-भाले लिए तैयार खड़े हैं। राजकुमार एक बार घोड़े पर ठीक से बैठना सीख लें फिर तो समझो शेर मार ही लेंगे। हाथ में बंदूक लिए शेर पर पैर रखे उनका फोटो जब अखबार में छपेगा तो जनता को मानना पड़ेगा कि वे खानदानी शिकारी हैं। लोकतंत्र का असली मजा वे ही उठाते हैं जो अपनी एक छबि बनाने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन यहां दिक्कत ये है कि राजकुमार को घोडे़ पर चढ़ना ही नहीं आता है। एक दो बार कोशिश  की तो पटखनी खा गए और मामला कमबख्त छबि में दर्ज हो गया। बेचारे जब भी हुंकार मारने की कोशिश  करते हैं तो श्याणी  जनता खी-खी करने लगती है। पार्टी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर इस राजकुमार का करें क्या ! छोड़ दें तो पार्टी बिखर जाएगी और लाद लें तो डूब जाएगी। 
                              बहुत सोचने के बाद एक जर्जर बूढ़े किस्म के वरिष्ठ नेता ने सुझाया कि उसे बिना घुड़सवारी के ही शिकारी घोषित कर देना चाहिए। मम्मी तो मान ही गई थी, लेकिन डर मीडिया का भारी है, वो भी आजकल ‘जिधर बम, उधर हम’ की नीति पर चल रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ जाएगा और राजकुमार से बार बार पूछेगा कि लगाम घोड़े की दुम में लगती है या मुंह में । और राजकुमार को तब तक रगड़ेंगा  जब तक कि उनकी कलाई ना खुल जाए। पार्टी की कोशिश  यह है कि सच्चाई सामने ना आए और आवाम राजकुमार को महान शिकारी मान ले। बस एक बार मान ले फिर तो इतिहास में दर्ज करके पीढ़ियों तक यही पढ़ाते रहेंगे। 
                                कहते हैं कोशिश  करने वालों की हार नहीं होती। पार्टी के लोग हिरण के कान काट कर ला रहे हैं लेकिन राजकुमार उन्हें देख कर हकलाने लगता है। चूंकि पार्टी के पास फिलहाल कोई काम नहीं है इसलिए प्रयोग पर बल दिया जा रहा है। पूरी पार्टी प्रयोग में भिड़ी है और दनादन बयान दे रही है। कुछ वरिष्ठ जो अनुभवी भी हैं, कह रहे हैं कि राजनीति के जंगल में शिकारी को खादी पहनने से बड़ा लाभ होता है। जंगल के प्राणी खादी देख कर मान लेते हैं कि आने वाला अहिंसा और गांधीजी का पुजारीनुमा कुछ है। इस चक्कर में वे बड़ी आसानी से शिकार हो जाते हैं। पैंसठ सालों से खादी शिकारियों को मुुफीद पड़ती रही है। लेकिन दामन में दुर्भाग्य हो तो जनता समझदार हो जाती है। प्रयोग के तौर पर राजकुमार को खादी पहना कर जंगल में भेजा गया लेकिन गरीब की झोपड़ी में दो रोटी से अधिक कुछ नहीं मिल सका। सुना है राजकुमार को वो भी हजम नहीं हुई।
                                                                                ------

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

साहित्य का शेयर बाज़ार

                         
    एक लंबी चुप्पी के बाद वे बोले - ‘‘देखो भाई, ...... साहित्य का संसार एक अलग किस्म का यानी सुपर मायावी संसार होता है। यहां पाना तो पाना है ही खोना भी पाने से कम नहीं है। जब ‘लिया’ जाता है तब बहुत कुछ ‘प्राप्त’ होता है और जब उसे लौटाने की घोषणा की जाती है तब भी बहुत कुछ प्राप्त होता है। जैसे शेयर मार्केट में एक चतुर व्यापारी मुनाफे में शेयर खरीदता है और जब उसे बेचता है तब भी मुनाफा प्राप्त करता है। साहित्य में इस प्रवृत्ति को कला कहते है। कलाजगत में चतुराई शब्द बोलना वर्जित है। यहां जो होता है वो नहीं होता, और जो नहीं होता है वो होता है, और जो भी गरिमाहीन होता है वो गरिमा के साथ होता है। इसे समझने में अपनी ऊर्जा बरबाद करने से अच्छा यही है कि जो हो रहा है उसे आंख बंद करके देखो, बिना दिमाग लगाए उस पर चर्चा-बहस करो, जरूरत पड़े तो लठालठी कर पड़ो। महौल ऐसा बने कि ‘हम लेखक भी कुछ हैं’। ’’ बाज़ार 
                          बात दरअसल यह है कि इधर अखबारों ने लिखा कि वे अपना समेटा हुआ लौटा रहे हैं। अब चूंकि घोषणा है तो हर कोई मान रहा है कि वे सचमुच लौटा रहे हैं। अखबार में उनकी हाथ उठाई तस्वीर देख कर माहौल बना कि मानो लौटा ही दिया है। कुछ लोग चिंतित होते हैं कि ‘अरे उन्होंने लौटा दिया, अब जाने क्या होगा !!’ वे समझ नहीं पाते कि जिसे प्राप्त करने में कितने गुणा-भाग किए गएं, उसे इतनी आसानी से कैसे लौटा दिया बिना हिसाब-किताब के !! लेकिन कहा ना, यहां जो होता है वो नहीे होता और जो नहीं होता वो होता है। कुछ मजबूर उनके पीछे पीछे चल पड़ते हैं और वे भी अपने शेयर वापस निकाल देने की घोषणा कर देना पड़ती हैं। मुनाफा किसे बुरा लगता है। 
                            घर में पत्नी और बच्चे कहते हैं कि शेयर यहां रखे थे तो कितना भरा भरा लगता था। निकाल दिए तो कितना खाली खाली लग रहा है। कलाकार उन्हें समझाता है कि शेयर रखे रखे दूध तो नहीं दे रहे थे। मुनाफा बड़ी चीज है, ऐसी चीजें मौकों-झोंकों पर ही काम आती हैं। जब प्राप्त किया था तब इतनी हलचल नहीं हुई थी। मीडिया में देखो कितनी चर्चा है हमारी, अखबार काले हुए जा रहे हैं हमारे कारनामे से, साहित्य का संसार कुरुक्षेत्र हो रहा है। अनेक कलमवीर खेत रहे हैं। कोई धृतराष्ट्र किसी संजय से सारे हाल सुन रहा है। वरना हम पर तो खासोआम का ध्यान ही नहीं था। यहां तक कि मार्निंग वाक पर जाओ तो दो-ढाई नमस्ते के लिए भी तरस जाते थे। अब देखो, सुबह से शाम तक फोन बज रहा है, तुनक तुन तुन। साहित्यकार सब कुछ कीर्ति के लिए ही करता है। कीर्ति विहीन जीवन की कल्पना से ही उसके प्राण सूखने लगते हैं। सोचो जब कभी उसके बारे में लिखा जाएगा तो पाने से ज्यादा महानता खोने की बखानी जाएगी। वैसे भी सम्मान समाज का कर्ज होता है। यदि उस कर्ज को उतार पाना संभव नहीं हो रहा हो तो लौटा देना अच्छा है। रहा सवाल उस खाली दीख रही जगह का, तो थोड़ी प्रतीक्षा करो। हमें सम्मान सृजित करना भी आता है। एक लौटा रहे हैं तो चार ले कर आएंगे। सर सलामत हो तो शाल-श्रीफल की दुकानें कम नहीं हैं। 

                                                                                     ------

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

गाय बीफ देती है।

         बच्चा बच्चा जान गया है कि गाय बीफ देती है। देश  बीफ का निर्यात कर बहुत सारा घन कमाता है। जिसके पास धन नहीं होता उसे गरीब कहते हैं। भारत में बहुत से लोग परंपरागत रूप से गरीब हैं। विदेशी  पर्यटक गरीब देखने के लिए बड़ी संख्या में आते हैं और ताजा बीफ भी खाते हैं। बीफ और गरीबी हमारी विदेशी  आय का साधन है और राजनीति का भी। ये दोनों बुराई भी हैं और आवश्यक  भी। दरअसल अभी तक हम यह तय नहीं कर पाए हैं कि ये बुराई हैं या आवश्यक  हैं। इसलिए इन्हें हटाने और बनाए रखने का काम साथ साथ चलए रखते हैं। विद्वान इसे राजनीति का सौदर्यशास्त्र कहते हैं यानी भारतीय राजनीति की खूबसूरती। 
                         जो भी सरकार आती है गरीबी दूर करने के लिए कटिबद्व हो जाती है। नेता आदतन गरीबों से गरीबी दूर करने का वादा करते हैं। गाय वोट नहीं देती है इसलिए उससे कोई वादा नहीं किया जाता है। हालाॅकि गाय जानती है कि सरकार गरीबी दूर करने के लिए क्या करेगी लेकिन बोल नहीं पाती है। लोकतंत्र में जानने से ज्यादा जरूरी बोलना है। गाय को माता इसलिए कहा जाता है कि वह गरीबी दूर करने के लिए अपना सब कुछ दे देती है।  जो अपना सब कुछ दे देता है उसकी जनता पूजा करने लगती है। यह हमारी आदर्श  परंपरा है। इसके अलावा हम कुछ और कर भी नहीं सकते हैं। एक ने पूजा दूसरे ने बीफ निकाल लिया यह कितना इंसानी तालमेल है। गाय को आजतक यह बात समझ में नहीं आई है। उपर से सरकार कहती है कि सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ना चाहिए। सुन कर रूह हो चुकी गाय भी कांप जाती है। 
                           एक जानेमाने स्वनामधन्य गोपालक ने हाल ही में कहा कि हिन्दू बीफ खाते हैं। चारा खाने की बात से चिढ़ा आदमी पता नहीं कृष्ण के माखन खाने का किस तरह से उल्लेख करता। बाद में पता चला कि बीफ से उनका मतलब बिस्किट और फल से था। अभी तक दे की राजनीति मक्खन विशेषज्ञों के हाथ में खेलती रही है लेकिन अब बीफ को देख कर ललचा रही है। जो मुल्क कभी दूध पीता था मक्खन खाता था अब दारू पीता है और बीफ खने पर उतारू है। 
                        रिपोर्टर ने ब्रेकिंग न्यूज के लिए गाय से पूछा /रिपोर्टर किसी से भी कुछ भी पूछ सकता है और गाय तो जिन्दा है, उसके सामने मुर्दे भी बोलते हैं/  कि - ‘‘मैंडम करीब तीन सौ खरब रूपयों के बीफ का निर्यात आपके सहयोग से होता है। लेकिन शिकायत आ रही है कि आप प्लास्टिक की थैलियां खाती हैं जिस कारण बीफ की क्वालिटी ठीक नहीं होती है। आप प्लास्टिक क्यों खाती हैं ?’’
              ‘‘ मजबूरी है। चारा जब दोपाए खा जाते हैं तो फिर हमें प्लास्टिक खाना पड़ता है। ’’ गाय ने कहा। 
                                                                                         ------

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

भोटर : सीना छप्पन इंची

                               
जो वोटर नहीं वो लोकतंत्र में दोपाया मवेशी  है। चुनाव नहीं होते तो वोटर भी पशु गणना से अधिक काम नहीं आते। पता करना हो कि आदमी और पशु  में क्या अंतर है तो कहा जाएगा कि आदमी वोट दे सकता है। इनदिनों हर तरफ बात बिहार की चल रही है तो अपन भी वंचित क्यों रहें। कहते हैं बिहार देवभूमि है, देवता आए और चले गए। गुणी, ज्ञानी, प्रतिभाशाली सब आए लेकिन चलते बने। रह गए तो बस वोटर। वोटर की खास बात यह है कि वह वोटर होता है। जैसे तैसे संघर्ष करते वह अठारह साल का होता है उसके हाथ में ‘भोटर-आईडी’ आ जाता है। अब वह ‘काम का’ भी है और ‘आदमी’ भी। 
                      कई प्रदेशों में वोटर वोट देने से पहले विचार करते हैं। बिहार का भोटर पहले भोट देता है। विचार करने के लिए उसके पास आगे के पांच साल होते हैं। उसका मानना और कहना है कि अगर वह पहले विचार करने लगे तो फिर वोट देना उसके लिए संभव ही नहीं है। जब वोट नहीं डालेगा तो वह वोटर भी नहीं रहेगा। लोकतंत्र में उसे कुछ मिला है तो वोटर की महान हैसियत है। पांच साल में एक बार आसमान से दिव्य-शक्तियां उतरती हैं और उसकी खुरदुरी दाढ़ी में हाथ डालती हैं, चिरौरी करती हैं, उसके आगे खींसें निपोरती हैं, हाथ जोड़ कर अद्दा-पउवा वगैरह देती हैं तो इतना मान सम्मान कम है क्या ! अगर ये ना मिले तो आम आदमी का जीवन कितना नीसर हो। वोटर हैं तो अस्तित्व है, वरना आदमी नहीं कुकरमुत्ते हैं। व्यवस्था में कोई काम के नहीं, लोकतंत्र की सड़क पर घूमने वाले आवारा श्वान । वोटर की हैसियत आदमी होने की मूल्यवान हैसियत है।
                                        जब खुदा हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है। चुनाव के वक्त वोटर का सीना भी छप्पन इंची हो जाता है। भला क्यों न हो, उसके नामुराद गालों पर नीविया चुपड़ने के लिए दसियों लोग डिब्बी लिए पीछे दौड़ने लगते हैं। उनको भी ‘शैकहैन्डवा’ का मौका मिल जाता है जिनको सदियों से कोई छूता नहीं रहा है। असली चुनाव का मजा इधर ही होता है। जिन घरों में हमेशा  रौनी रहती है वे दिवाली जुआ खेल कर मनाते हैं। असली दिवाली उनकी होती है जो अंधेरे में गुजारा करते आए हैं। चुनाव वोटर की दिवाली है। यह बात अलग है कि उसका क्या रौन हुआ, क्या खाक हुआ इसका पता बाद में चलता है।
                        अपनी आदत से लाचार टीवीमैन ने पूछा-‘‘बाबू चुनाव हो रहे हैं बिहार में, .... आपको पता है ?’’
                       ‘‘चुनाव नहीं होते तो आप लोग क्या हमारी तबीयत पूछने आए हैं ! ...... अब ये भी पूछ लीजिए कि ‘कैसा महसूस कर रहे हैं आप ?’  बिहारी ने टीवीमैन की गर्मी थोड़ी कम की।
                       ‘‘लगता है कि आप बहुत समझदार हैं! ’’
                      ‘‘बिहार का हर आदमी समझदार है। ’’
                       ‘‘ तो फिर अच्छी सरकार क्यों नहीं चुनते आप लोग !?!’’
                      ‘‘ सरकार कौन सी अच्छी होती है !? ...... जनता हमेशा  अच्छे को चुनती है पर बाद में सब ‘सरकार’ हो जाते हैं। ’’
                         ‘‘ इस बार किसे चुनेंगे ?’’ टीवीमैन ने ब्रेक्रिंग न्यूज खोदना चाही। 
                        ‘‘ इधर सब जानता है कि समोसे में आलू ही होता है और टीवी वाला बड़ा चालू होता है।’’
                        ‘‘ऐसा सुनते हैं कि आप लोग जाति के हिसाब से वोट डालते हैं ?’’ टीवीमैन ने खुदाई जारी रखी।
                         ‘‘ पहले धरम, फिर जाति उसके बाद गोत्र ..... और सबसे बड़ी बात बाहुबली ...... ’’
                          ‘‘इस तरह तो विकास नहीं हो पाएगा !’’ 
                        ‘‘ विकास !! विकास का चुनाव से क्या लेना देना ! रंगदारी बंद हो जाए, हप्ता वसूली बंद हो जाए, अपराध न हों तो बिहार का विकास हुआ समझो। ’’ 
                                                                      -----