मंगलवार, 22 सितंबर 2015

प्यून साहेब पीएचडीराम

                            जब पैदा हुए तो घर वालों ने नाम रखा जगतराम। पांचवी-आठवीं पास करा गए तो मइया-बापू को लगा कि हो ना हो जगतवा घर का नाम रौसन करेगा। जोर लगाया, भिड़ गए सब, खेती-ऊती जरूर बिक गई पर  जगतराम बीए की डिगरी लैके आ गए। सौदा मंहगा पड़ रहा था पर अब क्या करैं ! रस्ता चलता तो लौट आए, पर पढ़ालिखा आदमी पलट कर वापस गंवार तो हो नहीं सकता था। एक बार पढ़ गया तो समझो अड़ गया। तय हुआ कि अब कौनो रास्ता नहीं हैं, आगे ही पढ़ौ। जगतराम पढ़त-पढ़त पीएचडी होई गए। लौटे तो बताया कि पढ़ाई खतम, अब कुछ नहीं है पढ़ै खातिर। खेल खतम पइसा हजम। नौकरी करें तो नाम भी रौसन हो। पर नौकरी कहां रक्खी है ! इधर पब्लिक ने जगतराम को पीएचडीराम नाम दे दिया। अम्मा कहिन नाम के खातिर तो पढ़ा रहे थे, पूरे नखलऊ  में नाम तो जानो हो गया, पर नौकरी का क्या करें, नोकरिया तो अपने हाथै में नहीं है ! अरजी घिसते घिसते पीएचडीराम सब भूल गए और रेस्पेक्टेड सर से लगा कर योर ओबिडियंट तक जिन्दगी सर के बल घिसटने लगी। शुरू में बड़े पदों के लिए अर्जी भेजते फिर धीरे धीरे नीचे उतरने लगे। सोचा पद छोटा बड़ा भले हो पर कुर्सी सबमें मिलती है। 
                           तभी सरकार ने प्यून के 368 पदों की भर्ती का विज्ञापन निकाला। हिचकते हुए आखिर पीएचडीराम ने भी अपना आवेदन उधर भी दे मारा और मान लिया कि ‘यहू नोकरिया तो पक्की’। मंइया-बापू को भी लगा कि नौकरी लगी समझो और अब कोई रिस्ता आया तो ठोंक के दहेज ले लेंगे, आखिर मोड़ा पीएचडी भी है। नौकरी में पद नहीं देखा जाता है, मौका देखा जाता है। मौका मिल जाए तो अंगूठाछाप भी लाल बत्ती के नीचे गरदन तान के बैठ सकता  हैं। सरकारी गलियों में मौका शिक्षा से बड़ी चीज है। सरकारी प्यून गैरसरकारी हलके के किसी भी आदमी से बड़ा हो सकता है बशर्ते उसमें काबलियत हो। खुद सरकारी महकमें में बड़े से बड़े अधिकारी मंत्री वगैरह किसी का भी काम प्यून के बिना नहीं चलता है। प्यून तंत्र का बहुत जरूरी आदमी होता है। जहां तक जानकारी की बात है, जितना एक अधिकारी जानता है उससे कई गुना ज्यादा जानकारी प्यून के पास होती है। प्यून अगर नाराज हो जाए तो बड़े बड़ों को अपना जूठा पानी पिला कर अपनी छाती ठंडी कर सकता है। सरकारी प्यून वो बला है जो शीशे  से पत्थर को तोड़ सकता है। ...... तो तय हुआ कि पीएचडीराम अब प्यून ही बनेंगे।
                              लेकिन दुर्भाग्य, प्यून के 368 पदों के लिए 23 लाख आवेदन आ गए। एक पद के लिए सवा छः हजार उम्मीदवार !! आवेदकों में दो लाख से उपर एमए, एमकाॅम और 255 पीएचडी !! सरकार को संपट नहीं बैठ रही है कि पीएचडियों के इस पहाड़ का करें क्या ! प्योर कुकुरमुत्ते होते तो भी काम आ जाते। विश्व विद्यालयों को नोटिस भेजे जाएं और पता किया जाए कि कहीं डिग्री-चैपाटियां तो नहीं चलाई जा रही हैं। यह भी सोचा जा रहा है कि समाजवाद आ गया है या कि देश  विकसित हो गया है। समझ में नहीं आ रहा कि सरकार अच्छा काम कर रही है या उससे कहीं चूक हो रही है। 
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

जिसने बांटी, उसने आंटी’

                         
‘‘ अरे पगलों, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की बुनियाद में जब दारू-वितरण की अहम भूमिका है तो फिर दारूबंदी कौन नासमझ करेगा। कुछ बातें कहने में अच्छी लगती हैं लेकिन करने की नहीं होती हैं, कुछ करने की होती हैं लेकिन कहने में अच्छी नहीं लगतीं हैं। इसीको राजनीतिक शिष्टाचार कहते हैं। ’’ नेता जी ने समझाया।
‘‘ अब हम लोग ठहरे मूरख, शिष्टाचार के राज-रहस्य भला हमें क्या पता, वो तो क्या है नेताजी, आप वादा कर आाए हैं औरतन से कि अगर आपकी पार्टी को सत्ता मिली तो राज्य में शराबबंदी कर दी जाएगी। बात हो रई कि सरकार मर्दाना वोटरों की उपेच्छा कर रई है इसी से चिंता लग गई, और कछुु बात नहीं है। वैसे सब आपको ही वोट देंगे .... पर क्या भरोसा ना मिले तो ना भी दें। आप यहां गठबंधन में बैठे हो, .... वहां विधानसभा क्षेत्र के सारे आदमी गमजे में दुबलाए जा रहे हैं !! कोई संदेस हो तो आज नगद कल उधार कर लो। वरना एक बार गई भैंस पानी में तो फिर किनारे लगना नहीं है।’’ प्रतिनिधि मण्डल से एक बोला।
                     ‘‘ अरे पगलों, चुनावी वादे तो जुमले होते हैं जुमले। कैसे भारतीय नर हो इतना भी नहीं जानते कि औरतों से किए वादे क्या कभी पूरे करने के लिए होते हैं। शादी में सात वचन तुमही दिए हो, एक्कओं पूरा किए आज तलक ? जब तुम लोग ही वचन पूरा नहीं किए और ससुरे ‘परमेसुअर’ बने बैठे हो ठप्पे से, तो हमारे एक-ठो वचन देने से कौन सा खतरा होने वाला है ?! हम कोई परमेसुअराई तो मांग नहीं रहे तुमारी। भइया सरकार चलाना घर चलाने से जियादा मुसकिल काम है। जब घर की बुनियाद सात झूठ पर टिकी है तो सरकार की बुनियाद सम्हालते हम कितना हलकान हो जाते हैं जानता है कोई ? शास्त्रों में लिखा है कि औरतों से बोला गया झूठ झूठ नहीं होता है .... उसको समझदारी कहते हैं। ’’
                         दरअसल एक बिहारी नेता ने महिला वोटरों से यह वादा कर डाला कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा देंगे। महिलाओं का कहना था कि आदमी लोग अपनी कमाई पीने में खत्म कर देते हैं। पीयें तो पीयें, लेकिन पी कर उनके साथ मारपीट करते हैं। इसलिए वे चाहती हैं कि राज्य में शराबबंदी हो। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। लेकिन सरकार को पता है कि जो सत्ता शराब बाँट  कर हाॅसिल की जाती है उसके लिए शराबबंदी एक तरह की आत्महत्या है। साठ साल से यही हो रहा है, जिसने बांटी, उसने आंटी। 
                             हर सरकार शराब का महत्व जानती है। जल्लाद हों या हत्यारे, या फिर वोटर ही क्यों न हों, काम अंजाम देने से पहले खूब पीते हैं। जनता होशहवास में रहे तो कई तरह के खतरे पैदा हो सकते हैं। समझदार हमेशा   इतिहास से सबक लेते हैं। एक बार नसबंदी करने के चक्कर में सरकार गिरी थी तो आज तक ठीक से उठ नहीं पाई है। निजी मामलों में गरीब आदमी भी हस्तक्षेप पसंद नहीं करता है। दारू पीना उसका निजी मामला है और इसे भी वह नसबंदी की तरह ले सकता है। इसलिए जरूरी है कि माता-बहनें देशहित में थोड़ा पिट-पिटा लें। सरकार इसके लिए दूध-हल्दी और बंडू बाम का इंतजाम कर देगी। चाहोगे तो एक रुपए में ‘पति पिटाई बीमा योजना’ भी शु रू की जा सकती है।  लेकिन ये बाद की बात है, औरतें अभी माने कि शराबबंदी हो रही है और आदमी मानें कि नहीं हो रही है।

’ आंटी - किसी चीज को अपनी अंटी/अपनी गांठ में कर लेना, बांध लेना, कब्जा लेना

हिन्दी के लड्डू


                                 ‘पंडिजी’ जाहिरतौर पर हिन्दीप्रेमी हैं और छुपेतौर पर अंगे्रजी प्रेमी। ऐसा है भई मजबूरी में आदमी को सब करना पड़ता है। देश  पढ़ेलिखे और समझदार मजबूर लोगों से भरा पड़ा है। एक बार कोई मजबूरी का पल्ला पकड़ ले तो फिर उसे कुछ भी करने की छूट होती है। मजबूरी को समाज बहुत उपर का दर्जा देता है। लगभग संविधान की धारा की तरह यह माना जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। अब आप ही बताएं कि महात्मा जी नाम जुड़ा हो तो कोई कैसे मजबूर होने से इंकार करे। मजबूरी हमारी राष्ट्रिय  अघोषित नीति है। सो पंडिजी को मजबूरी में  अपने बच्चों को अंगेजी स्कूलों में पढ़वाना पड़ रहा है तो मान लीजिए कि कुर्बानी ही कर रहे हैं देश की खातिर।
                        अब आपको क्या तो समझाना और क्या तो बताना। जब आप ये व्यंग्य पढ़ रहे हैं तो जाहिर तौर पर समझदार हैं। जानते ही हैं कि हर आदमी को दो स्तरों पर अपने आचरण निर्धारित करना पड़ते हैं। रीत है जी दुनिया की, षार्ट में बोलें तो दुनियादारी है। सामाजिक स्तर पर जो हिन्दी प्रेमी हैं वे निजी तथा पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी प्रेमी पाए जाते हैं। समझदार आदमी सार्वजनिक रूप से हिन्दी का प्रचार प्रसार करता है, मोहल्ले मोहल्ले घूम कर माता-पिताओं को समझाता है, प्रेरित करता है कि भइया रे अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम की पाठशाला में पढने के लिए भेजो और देश को अच्छे नागरिक दो। इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी को प्रेम करना वास्तव में देश को प्रेम करना है। और देश को प्रेम  करना हर आम आदमी का परम कर्तव्य है। जिसे कुछ भी करने का मौका नहीं मिलता हो उसे देशप्रेम का मौका तो अवश्य  मिलना चाहिए। हालाॅकि हिन्दी वाले जरा ढिल्लू किस्म के हैं। उनके पास जरा सा तो काम है कि देशप्रेमी बना दो, कोई बहुत प्रतिभाशाली मिल जाए तो अपने जैसा गुरूजी बना दो, लेकिन वह भी से नहीं होता। सितंबर के महीने में देश भर में हिन्दी के लड्डू बंटवाए जाते हैं। सरकार के हाथ में लड्डू के अलावा कुछ होता भी नहीं है। साल में एक बार हिन्दी का लड्डू नीचे तक पहुंच जाए बस यही प्रयास होता है।
                         पंडिजी की चिंता यह है कि तमाम हिन्दी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। गली गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ऐसे खुल रहे हैं जैसे मोहल्ले के चेहरे पर चेचक के निशान हों। वे इस कल्पना से ही पगलाने लगते हैं कि क्या होगा अगर सारे बच्चे अंग्रेजी पढ़े निकलने लगेंगे। देश हुकूमत करने वालों से भर जाएगा तो कितनी दिककत होगी। आखिर राज करने के लिए रियाया भी चाहिए होगी। हिन्दी नहीं होगी तो प्रजा कहां से आएगी। राजाओं के लिए प्रजा और प्रजा के अस्तित्व के लिए हिन्दी को प्रेम  करना जरूरी है। सरकार में मंतरी से संतरी तक इतने सारे हिन्दी प्रेमी भरे पड़े हैं कि पूछो मत। लेकिन एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूल में न पढ़ा रहा हो। ये त्याग है देश के लिए। सरकारी नौकर जनता का सेवक होता है। जनता मालिक है,  मालिक ही बनी रहे, ठाठ से अपनी सरकार चुने और ठप्पे से राज करे हिन्दी में।
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सरकारी नौकरी और हरे हरे

लोग कहते हैं सावन के अंधे को हरा हरा दिखता है। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो हमें पता नहीं लेकिन अच्छन बाबू का अनुभव ये है कि सरकारी अंधे को भी हरा हरा दिखता है। यों देखो तो अच्छन बाबू की दोनों आंखें वर्किंग हैं, लेकिन नहीं हैं। जब भी देखती हैं हरा ही देखती है। सरकारी कर्मचारी-यूनियन वाले लाल झंडा हिलाते हैं लेकिन इनका मानना है कि हम लोगों को वो भी हरा ही दिखाई देता है। सरकार ने कई बार नोटों के रंग बदल कर कुछ और कर दिये लेकिन सरकारी आदमी के लिए वो हर समय हरे हीे होते हैं। रोजाना वे हरे हरे कहते स्नान करते हैं और हरे हरे कहते पूजन। दफ्तर में कोई काम करना हो तो हरे हरे, न करने की वजह भी हरे हरे। हरा खुषी का प्रतीक है, देने वाले दे कर और लेने वाले ले कर मोक्ष का मार्ग तैयार कर लेते हैं। हरे हरे हों तो नीला आसमान भी हरा हरा। षिकायत करने वाले करते रहते हैं कि सरकार निकम्मी है, कोई काम ठीक से नहीं होता है। व्यवस्था की बातें षुरू होगी तो अंत का पता नहीं कब, कहां और कैसे होगा। लेकिन फिर भी सरकारी नौकरी जिसे मिल जाए तो समझो जन्नत मिल गई। ऐसा क्या है सरकारी नौकरी में ? अच्छन कहते हंै कि कुछ खास तो नहीं बस हरा हरा। सरकार कोई भी हो हमेषा बुरी लगती है और सरकारी नौकरी कैसी भी हो अच्छी लगती है।  अच्छन ने अपने बच्चे प्रायवेट स्कूल में इस लिए पढ़ाए क्योंकि सरकारी में मक्कारी होती है। और बच्चों को सरकारी स्कूल में टीचर लगवाया क्योंकि यहां मक्कारी होती है। करने को मिले तो मक्कारी जीवन का आनंद है। और यदि मक्कारी करने के लिए पांचवा, छःठा या सातवां वेतनमान भी मिले तो पक्का मान लो कि स्वर्ग से भी उपर आ गए। 
अच्छन का मानना हैं कि नौकरी सरकारी बेस्ट होती है उसके तीन कारण वे गिनाते हैं - पहला तो यही कि आप सरकारी हुए और जमाना आपको बाकायदा सरकारी दामाद मानने लगेगा। व्यवहारिक तौर पर देखें तो सरकार का दामाद सरकार से बड़ा होता है। वैसे तो इतना भी काफी है लेकिन मौका पड़ते ही ‘सरकार’ आप खुद भी बन सकते हैं। दूसरा जब आज के समय में आप सरकार हैं तो नामालूम राजे रजवाड़ों से बाकायदा उपर हैं जिनका कि प्रिवीपर्स भी बंद हो चुका है। आम आदमी तो आपके लिए चिकन-चूजों से ज्यादा नहीं। यह एक दैवीय अहसास है, इसी को सत्ता-सुख कहते हैं, नेताओं को पांच साल के लिए नसीब होता है लेकिन आपको जिन्दगी भर के लिए। तीसरा, पकड़े जाने पर सरकारी भृत्य के यहां भी करोड़ों की अघोषित संपत्ती मिलती है। इससे नहीं पकड़े गए क्लर्कों अफसरों के सम्मान मंे इतना इजाफा हो जाता है कि उनकी छाती में दस से पंद्रह इंच का की वृद्धि हो जाती है। 
कल ही अच्छन रिटायर हुए हैं, आज वे मित्रों के बीच बैठे नए नए किस्से सुना रहे हैं मानो जंगल से लौट कर षिकारी बता रहा है कि उसने कैसे कैसे षेर और हिरण मारे। साथ में ये भी बोले रहे हैं कि भइया काजल की कोठरी से बेदाग निकल आए हैं। उनका मतलब है कि पकड़े नहीं गए हैं।  भ्रष्ट वही है जो पकड़ा जाए। जो पकड़ा नहीं गया वो देषसेवक है। आइये हम सब देषसेवक अच्छन जी के लिए ताली बजाएं। 
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