बुधवार, 17 जून 2015

लेखन एक खुजली

                    रचनात्मकता के बिना लेखन एक खुजली है। माना जाता है कि खुजली स्वातःसुखाय होती है, जितना खुजाओ उतना बढ़ती है। जिन्हें हो जाती है उनके लिए खुजाना ही रचनात्मक होना है। इसलिए वे आड़े-तिरछे हो कर, खादी-रेशम पहन कर, नहा-धो कर यानी सब तरह के टोटकों से खुजाता है। खुजली के न नियम होते हैं, न सलीका और न ही व्याकरण या परिभाषा। खुजली बस खुजली होती है मीठी मीठी, बस ऐसी जगह बैठ जाइये जहां दूसरों की नजर में आ रहे हों और खुजाने लगिये। कुछ दिनों में देंखेंगे  कि लोग आप पर दृष्टि रखने लगे हैं। बस समझ लीजिए कि सफलता मिल गई। अब जितना खुजाते जाएंगे लगेगा कि इज्जत बढ़ रही है। इज्जत का ऐसा है कि जिनके पास करने को  कुछ नहीं होता है  वे टाइमपास  के लिए दूसरों की इज्जत करने लगते हैं। गीता में लिखा भी है कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए। इज्जत करने से धर्म-कर्म दोनों की पूर्ति हो जाती है और व्यस्तता  भी बनी रहती है । इसलिए इज्जत की चिंता नहीं करना चाहिए, वो तो मिलनी ही है। अगर नौकरी धंधा करते हैं तो मान लें कि यह खुजलीकर्म में बाधक है। ऐसे में वीआरएस ले लेने का चलन है, दुकान हो तो बंद कर सकते हैं, खेतीबाड़ी हो तो मुक्त हो लें। खाज-संसार में फ्रीलांस-खुजली का आपना महत्व होता है। बायोडेटा में फ्रीलांस लिख दो तो बीए एमए की डिग्री पर भी भारी पड़ जाता है। लोग उनका लोहा मानते हुए दीदे फाड़ कर देखते हैं कि मात्र खुजा-खुजा कर वे जीवन यापन कर रहे हैं। अक्सर न चाहते हुए भी उनके हाथ जुड़ जाते हैं, दूसरी सफलता मिली।
                               आमतौर पर खुजावक के पास खुजाने का कोई स्पष्ट कारण नहीं होता है। पूछने पर गंभीर हो कर कहा जा सकता है कि प्रतिभा के कारण खुजा रहे हैं, कुछ प्रेरणा के कारण भी खुजाने का दावा कर सकते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी लोग नाखून घिसते देखे जाते हैं। बहुत से लोग यह बताते हैं कि खानदान में कभी कोई खुजाया करता था, मसलन पिताजी, दादाजी, नानाजी टाइप कोई, सो देख देख कर वे भी खुजाने लगे हैं। इस तरह अपनी खुजली को पारिवारिक परंपरा की खुजली कह कर अतिरिक्त सम्मान की रचना की जा सकती है। खुजलीवान उन लोगों के बीच विशिष्ट  होता है जिन्हें यह बीमारी नहीं होती है। लोग आंखें गोल करके मिलते हैं - ‘‘ अरे भई  आप तो बड़े खुजलीकार हैं !! आपसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई। खुजाना बड़ा कठिन काम है साहब, उपर वाला जिसको नैमत देता वही खुजाता है। अब समाज में हैं ही कितने खुजाने वाले। ’’ लीजिए आज का दिन सार्थक हुआ, फिर सफलता मिली। 
                       कबीर ने कहा है कि ‘ सुखिया सब संसार, खावै और सौवे, दुखिया दास कबीर, जागै और रौवे। इसे फार्मूला मान कर अनेक खुजलीकार रात में खुजाते हैं । कहते हैं खुजाना एकांत में ही संभव है। दिन में खुजाने वाले भी एकांत की तलाश में रहते हैं। 
                 किसीने पूछा - ’’ आप अंग्रेजी में खुजाते हैं या हिन्दी में ?’’
              ‘‘अंग्रेजी में खुजाने से पैसा अच्छा मिलता है, लेकिन मैं तो हिन्दी में खुजाता हूं क्योंकि हिन्दी में स्पेलिंग मिस्टेक का खतारा नहीं रहता है।’’ वे बोले।
               ‘‘ ऐसा कैसे !! ये दिक्कत तो हिन्दी में भी होती होगी। हर भाषा में होती है।’’
              ‘‘ इसके दो कारण हैं, एक तो हिन्दी हमारी अपनी मातृभाषा है सो हर तरह का अधिकार बनता है हमारा। दूसरा हिन्दी वालों का दिल खासा बड़ा होता है। वे अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते हैं। दूध को चाहे ‘दुध’ लिख दो चलेगा, पर भाव सही होना चाहिए। हिन्दी वाले भाव के भूखे होते हैं ... कविता में भी ‘भाव’ सबसे पहले देखा जाता है, चाहे पतली या पनेली कैसी भी हो।’’
                  ‘‘ कविता भी आप स्वयं ही खुजाते हैं ?’’ 
              ‘‘ और नहीं तो क्या ..... जहां तक हाथ पहुंचता है खुद ही खुजाते हैं वरना पीठ तो हर किसी को दूसरे से ही खुजवाना पड़ती है । ’’
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शुक्रवार, 5 जून 2015

आशंका का मौसम

               
    हमारे यहां आशंकाएँ  व्यक्त करने का एक विभाग है जो खासतौर पर मौसम के मामलों में हस्तक्षेप करता दिखाई देता है। समय समय पर कुछ घोषणाएं कर देना उसकी ड्यूटी है। कोई  विभाग अपना काम करे इससे ज्यादा किसी को और क्या चाहिए। घोषणाएं कभी कभी सही भी निकल जाती हैं जिसकी जिम्मेदारी विभाग की नहीं नेतृत्व के सौभाग्य की होती है। नीचे विभाग और उपर मौसम, छेड़छाड़ चलती रहती है। विभाग कहता है बारिश  अच्छी होगी, मौसम मुंह  चिढ़ा देता है। जब कहता है वर्षा कम होगी तो बादल झूम के बरसते हैं। दरअसल मौसम विभाग का काम है आशंका व्यक्त करना और यह काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। बहुत खर्चीला काम है जी। बड़े बड़े वैज्ञानिक और अफसर इस काम में मुस्तैदी से लगे होते हैं। एक पूरा महकमा है जिस पर सरकार करोड़ों खर्च करती है तब कहीं जा कर मानसून के पहले एक अदद आशंका व्यक्त हो पाती है। मौसम आखिर मौसम है, गरीब की जवान छोरी नहीं कि जरा जबान हिलाई और आशंका व्यक्त कर दी। 
                  कुछ लोग हर चीज को गंभीरता से ले लेते हैं, मजाक तक को भी। कुछ मारे डर के दुबक जाते हैं, जैसे केन्सर के अंदेशे  में तम्बाकू-सिगरेट छोड़ देते हैं और शराब पीने लगते हैं। क्यों न पियें, सरकार तम्बाकू-सिगरेट पर प्रतिबंध लगा रही है और शराब की दुकान हर दूसरी गली में है तो डाक्टरों से पूछ कर ही खुलवाई होगी। भरोसा है सरकार पर, खुद जनता ने जिम्मेदारी से चुनी है। लेकिन ऐसे भी कम नहीं हैं जो मानते है कि जन्म और मृत्यु उप्परवाले के हाथ में है, उपर वाला जन्म-मृत्यु मसलता रहता है और नीचे वाला बेफिक्र तम्बाकू-चूना। अपना अपना काम करो भई, डू नाट डिस्टर्ब। जब आना हो आ जाना, बुलाना हो बुला लेना।
              आशंका के बारे में आपको पता ही होगा कि वो कहीं भी, कभी पैदा हो जाती है। पैदा हो जाने के बाद आमतौर पर आशंका को दबाए जाने का चलन है। लेकिन यहां भी विज्ञान के नियमानुसार जितना दबाया जाता है आशंका उससे दुगनी ताकत के साथ बाहर आ जाती है। गीता ज्ञान है कि जो जन्मा है वो मरेगा भी। आशंका पैदा होती है तो उसे व्यक्त भी होना ही है। अगर दक्षता पूर्वक आशंका के बीज बोए जाएं तो सत्ता की हरी हरी फसल भी लहलहा सकती है। लेकिन इधर जब से मौसम विभाग ने सूखे की आशंका व्यक्त की है तो रियल किसानों के प्राण सूख गए हैं। जिन्होंने आत्महत्या स्थगित कर रखी थी वे पुनर्विचार की मुद्रा में आ रहे हैं। अब तक अपने मदारी को देख देख कर शेयर बाजार बंदरों जैसा उछल रहा था, आशंका सुनी कि पट्ट-से लुढ़क गया। अच्छे दिनों का ढोल भी मजे में बज रहा था कि अचानक एक तरफ का चमड़ा फट गया। जो दलहन-तिलहन बाजार में ढ़ीले थे आनन फानन टाइट हो कर गोदाम का रुख करने लगे। चारों ओर तेजी की लाठी के साथ पथसंचलन शुरू हो गया। गिनती की कौडी लाने वाले तमाम घर मुरझा गए। मौसम विभाग पर यों तो किसी को विश्वास  नहीं है लेकिन क्या भरोसा काली जुबान का। इधर विभाग मानता है कि कर्म किये जा फल की चिंता मत कर। बिना वैधानिक चेतावनी के उसने आशंका व्यक्त कर अपना अनुष्ठान पूरा कर दिया है अब आप मानो या न मानो आपकी मर्जी। 

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