गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मार्च का भूला अप्रेल में

               
     देखो भइया बात का बतंगड़ बनाना ही हो तो किसके मुँह पर ताला पड़ा है, बोलो चाहे बको लोकतंत्र है वरना मार्च का भूला अप्रेल में आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। आदत खराब है आपकी, इसमें अब देर-अबेर को मत घुसेड देना। अपने यहां कौन सा काम टाइम पे होता है ! रेलें तो रेलें अब हवाई जहाज भी लेट हो जाते हैं ऐसे में आदमी की क्या कहें, वो भी कुवांरा। यहां से वहां तक ढ़ोल पीट रखा है कि आजादी है, आजादी है ! क्या खाक आजादी है ! राजा बिटवा पूछ कर छुट्टी पर क्या गया, करोड़ों का धंधा कर लिया मीडिया वालों ने हाय मेरी अम्मा हाय मेरी अम्मा करके। सरकार तक यहां वहां झांकने लगी मानो उनकी लंका में हनुमान घुस आए घासलेट और माचिस ले के। सब जानते हैं कि एक उम्र होती है जिसमें बहुत कुछ निजी रखना होता है। कहीं जाना-आना तक। राजनीति में आ गए तो क्या सारा का सारा सार्वजनिक कर डालें। कल को कहोगे खुले में शौच जाओ तो सोच का क्या होगा। माना कि आमतौर पर राजनीति अपने निजी बच्चों के लिए की जाती है, लेकिन कुछ होते हैं जिन्हें अपने बाप-दादा के कारण भी करना पड़ती है। अपना अपना फील्ड है भई, लेकिन कहते तो सब यही हैं  कि देश  सेवा है। अब तुम जैसे आर्डिनरी यानी कामन मैन कहेंगे कि डाक्टर ने बोला था कि राजनीति करो। तो डाक्टर क्यों बोलेगा जी ! और बोला भी होगा तो फीस ले कर बोलेगा इसमें गलत क्या है  जी ? जिस घर में सुबह से शाम तक काम की कोई बात नहीं हो बस राजनीति ही होती रहे तो अगली पीढ़ी सिवा राजनीति के करेगी क्या। बच्चा किसी और काम के लायक रह पाता है। जमीनों को यहां वहां करें तो करने नहीं देंगे विरोधी कहीं के । सारे लोग इस तरह घूरते हैं कि बच्चे प्रपर्टी ब्रोकर तक नहीं बन सकते। न सामने आने देते हो न छुपने देते हो, और दावा करते हो कि आजादी है। खेलने खाने के दिन खत्म नहीं हुए और खड़ा कर दिया गामा पहलवान बनाके। किसी भोले-भाले भले आदमी को हुर्र हुर्र करके लड़वा देना और उम्मीद करना कि नंबर वन पर आ जाएगा, तो ज्यादती नहीं है क्या ! बंदा लड़े तो हाड़ तुड़वाए नहीं लड़े तो मरे।
                 विपश्यना  के बारे में पता है तुम्हें कुछ ? कैसे पता होगा, अनुलोम-विलोम से फुरसत मिले तब तो। देश  को सांस खींचने और छोड़ने में लगा कर अगला कुर्सी खींच ले गया और किसी को पता नहीं चला। पुराने अखाड़ेबाज खड़े खड़े गुबार देखते रहे, नगद मिला नहीं उधार देखते रहे। और तो और सूरज-चांद को नमस्कार करने में लगा दो तो लोग मंहगाई-गरीबी तक भूल जाते हैं। जनता को भागवत और किसानों को गरूड़ पुराण सुनाने से सुलगती आत्माएं ठंडी हो जाती हैं। बाकी कुछ अंगारे रह जाएं तो भंडारे उन्हें भड़कने नहीं देते। ऐसे में विपश्यना के अलावा करने को क्या रह जाता है। दूर चले जाओ, बोले तो एकांत टाइप भीड़ में। शांति  के साथ बैठो अगर हो तो, पालथी मार के जमीन पर। आंखें बंद करो, महसूस करो कि सांस आ रही है, सांस जा रही है। भइया ये सांसें बड़ी उपलब्धि है खास कर तब जब दस परसेंट सीटें भी न मिली हों, और उनकी नाकामयाबी भी जिन्हें आजकल सरकार कहते हैं। वरना उन्होंने पुरानी पार्टी-मुक्त भारत बनाने का आहव्वान किया था। दम होता तो सारे साघु-संत, तांत्रिक-मांत्रिक लग पड़ते यज्ञ-हवन में। लेकिन जो धंधा 'छू' और 'फू' का हो वो अपने दम पर नहीं मार्केटिंग के दम पर चलता है। तो आप समझ गए होंगे कि विपश्यना से आत्मविश्वास बढ़ा है। खुद अपने होने का पता चला, सीख के आए हैं, ताजपोशी  हो जाए तो पार्टी को सिखाएंगे। पार्टी जनता को सिखाएगी, जनता भालू है, सीख जाती है तो तामाशे  के काम भी आती है। जनता एक बार विपश्यना करने लगे तो सारी समस्याएं खत्म। आवै जब संतोष धन, सब धन घूर समाना। वोटर का मन भी शांत  होना चाहिए। शरीर और संसार के मोह से मुक्त होना चाहिए। समदृष्टि का विकास हो, अमीरी-गरीबी का विचार मिथ्या हो, भूख-प्यास विचलित न करे, मरने को जीना और जीने को मरना समझे, अपना जीवन महज चार दिन का माने, न आरजू की जरूरत हो न इंतजार का टंटा। इसका नाम असली विकास है और तब वे राज करें तो इतिहास बने। बने कि नहीं बने ? बोलो ना।
                                                                     

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दाम सरकारी, गोदाम सरकारी

‘‘ अरे ! तुम्हारा नाम भी नारायन !! पूरे गांव ने एक ही नाम रख लिया है क्या !? कोई रामनारायन, कोई सतनारायन, कोई हरनारायन ! तुम लोग आदमी हो या आरटीओ के नंबर ! सही बताओ तुम्हारा नाम क्या है ?’’ कोआपरेटिव सोसायटी में गेहूं खरीदी के तमाम रजिस्टरों के बीच सजे साहब बोले।
‘‘ जपनारायन लिख लो साहेब।’’
‘‘ जपनारयन , .... और ये क्या !! चालीस बोरी गेहूं लाए हो !? दद्दा ये कोआपरेटिव सोसायटी है बनिए की दुकान नहीं कि इत्ता-उत्ता जित्ता भी हो बटोर लाए। ’’
‘‘ जित्ता था सब लाया हूं मालिक। बढ़िया किसम का गेहूं है। एक बार देख लेते ....’’
‘‘ देखेंगे क्यों नहीं ! देखना तो पडै़गा ही। ऐसेई थोड़ी लै लेगी सरकार। बड़ी सख्त ड्यूटी है महाराज। सरकार मेहनत और ईमानदारी से काम करने का पैसा देती है, कोई मजाक नहीं है! इत्ती गरमी में यहां बैठे हम पसीना हेड़ रए हें तो किसके लिए ? सरकार की सेवा के लिए ..... और गेहूं क्यों नहीं लाए ? ’’
‘‘ इत्तई पैदा हुआ साहेब। सारा लै आए हैं। जमीन कम है। हम छोटे किसान हैं। ’’
‘‘ अरे महाराज ! कित्ते जनम तक छोटे किसान बने पैदा होते रहोगे ! कुछ पुन्न-उन्न किए होते तो तुम बड़े किसान के घर में पैदा होते और औलादें भी बड़े किसान की कहातीं। सारी गलती तुम्हारी है। हम पाण्डे हैं, ....... सब्जी-भाजी पैदा करते हो ? आलू-कांदा कुछ ?’’
‘‘ आप गेहूं देख लेते ..... एक एक दाना चमकदार है। ’’ किसान ने ना में सिर हिलाते हुए गुजारिश  की ।
‘‘ चमकदार होने से क्या होता है !? पीसने से आटा ही बनेगा, बिजली तो बनेगी नहीं ! एं ?  ………  भैंस पाली होगी ? घी-वी होता है ?’’
‘‘ पांच पानी का गेहूं है साहेब, देख तो लेते ।’’ किसान ने फिर सिर हिलाते हुए कहा।
‘‘ तो सेम्पल लाओ ना .... अब मैं जाऊँगा क्या तुम्हारे ट्रेक्टर  के पास, ..... सरकारी आदमी उपर से पाण्डे ?’’
किसान सेम्पल ले कर हाजिर होता है, साहब बोले-‘‘हूं ....गेहूं तो अच्छा है! पहले बताना था ना।’’
‘‘ कह तो रहे थे कि देख लेते एक बार।’’
‘‘ ठीक है दद्दा, ऐसे तो सब कहते रहते हैं। .... चालीस बोरे हैं ना ?’’
‘‘ हां पूरे चालीस हैं। ’’
‘‘ देखो एक आदमी साथ कर देते हैं। दस बोरी मेरे यहां पटका दो, दस-दस हमारे बड़े साहबों के यहां और दस बैंक वाले साहब के यहां ।’’
‘‘ पैसे कौन देगा !?’’ किसान चिंतित हो गया।
‘‘ पैसा !! ....... तुमको सरकार पर भरोसा नहीं है तो आए क्यों यहां ?’’
‘‘ हम तो इसलिए बोले साहब कि अनाज तो सरकारी गोदाम में जाता है !’’
‘‘ तो हम क्या सरकारी आदमी नहीं हैं !? ....... सरकार के गोदाम कोई एक जगह होते हैं !……  अब यहां तुम्हारे लिए एक लिस्ट टंगवाए क्या, कि ये-ये बंगले सरकारी गोदाम हैं। .... सुबह-शाम कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हो क्या ?’’ साहब ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ गलती हो गई साहब ..... हम समझे सरकारी गोदाम एक ही होता है। ..... तो पैसा आप लोग ही देंगे ना दस-दस बोरी का ?’’ किसान की शंका अभी भी बनी हुई थी।
‘‘ अरे यार !! …… कहां से आ गए तुम !! ……  महाराज सरकारी गोदाम अलग अलग होते हैं पर सरकारी जेब एक ही होती है। पैसा यहीं से मिलेगा तुमको । ’’
‘‘ ठीक है साहेब, हमें क्या करना है, .... पैसा चाहिए बस ।’’
‘‘ साइन करोगे या अंगूठा लगाओगे ?’’
‘‘ दसखत करेंगे साहब, पुराने जमाने की चोथी पास हैं।’’ किसान थोड़ा तन कर बोला।
‘‘ चैथी पास !! अरे वाह .... चलो ठीक है, दस्तखत करो यहां .... यहां ...’’
‘‘ ये क्या साहब !! आपने तो 400 बोरी लिख दिया ! हम तो 40  ही लाए हैं !’’
‘‘ 400  लिखा है तो क्या 400  का पैसा लोगे !! बड़े भ्रष्ट हो तुम तो ! भगवान से तो डरो जरा !’’
‘‘ राम राम, हम कहां चार सौ का पैसा मांग रहे हैं!! …।   इतनी अंधेर कहीं मची है ! भगवान सब देख रहा है। ’’
‘‘ तो भगवान को देखने दो ना। तुम इधर उधर क्यों देख रहे हो। तुमको ईमानदारी से चालीस बोरी के पैसे मिलेंगे। इसमें कोई दिक्कत है क्या ?’’
‘‘ चालीस के मिल जाएं यही बहुत है, समझो गंगा नहा लिए साहब। ’’
‘‘ तो फिर आंख मींच के साइन करो फटाफट और गंगा नहाओ।’’
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