बुधवार, 24 सितंबर 2014

मैं एक सफाई पसंद नागरिक

                     दूसरे अगर लग कर मेहनत करें तो मैं एक सफाई पसंद नागरिक हूं। अब आपसे क्या छुपाना, खुद मुझसे मेहनत होती नहीं, यदि होती तो भी मैं करता नहीं। कारण ये हैं कि खुद काम करने की ना मेरी आदत है और ना ही संस्कार, लेकिन सफाई-पसंद हूं तो हूं। आदत और पसंद में थोड़ा टकराव जरूर है पर उम्मीद है आप इसे माइंड नहीं करेंगे। रिक्वेस्ट के बावजूद माइंड करो तो करो, मुझ पर कोई असर होने वाला नहीं है। मेरा काम सफाई को पसंद करना है वो मैं करता रहूंगा।
                   घर में काम वाली बाई आती है। सफाई उसका काम है, मैं पैसे देता हूं काम के। इसलिए मेरे मन में उसके काम के प्रति कोई आभार-वाभार नहीं है, पर मुझे सफाई पसंद है। साफ कपड़े पहनना मेरी प्रथमिकता है, अक्सर झक्क सफेद कपड़े पहनता हूं। कपड़े धोबी धोता है, जाहिर है उसके काम को लेकर मेरे मन में कोई आदर भाव नहीं होता है,  उसका काम है भई,  काम के मैं पूरे पैसे जो देता हूं। मेरा महत्वपूर्ण योगदान यह है कि मैं सफाई पसंद हूं। मेरे वाहन को धोने के लिए रोज एक आदमी आता है, एक माली है जो बागीचा साफ करता है। टायलेट मुझे एकदम साफ और चमकीला चाहिए। एक व्यक्ति बरसों से, बल्कि यों कहना चाहिए कि पीढ़ियों से हमारे यहां यह काम करता आ रहा है। मैं उसे कुछ पैसों के अलावा फटे-पुराने कपड़े भी देता हूं। आप पूछेंगे किसलिए,  तो साफ है कि मैं सफाई पसंद हूं।
                  आपकी जानकारी के लिए बताउं,  मैं रोज सुबह साढ़े सात बजे स्नान कर लेता हूं और इसमें किसी की धेला-भर सहायता नहीं लेता हूं सिवा इसके कि कोई पानी गरम कर दे,  तौलिया और चड्डी बाथरूम में लटका दे,  साबुन-कंघा-तेल रख दे, हर रविवार शेम्पू का पाउच काट कर सामने रख दे और रिमाइंड करा दे कि शेम्पू रखा है। बस। इसके अलावा कुछ नहीं। पत्नी ये काम बिना पैसा लिए,  बिना किसी दबाव के खुद ही कर देती है। संस्कारवश । वो बहुत सारे काम, यानी घर के करीब करीब सारे ही काम करती है। सफाई से खाना बनाती है,  सफाई से परोसती है। अगर मैं सफाई पसंद नहीं होता तो वो क्यों करती ये सब। उसे पागल कुत्ते ने तो काटा नहीं,  न शास्त्रों में कहीं लिखा है और ना ही मायके वालों ने कह कर भेजा है कि जा अपने पति को रोज नहाने-खाने के लिए प्रेरित कर। मैं खुद देश  का सफाई पसंद नागरिक हूं और अपनी आत्मप्रेरणा से रोज नहाता हूं। बीच बीच में कभी नागा होता भी है तो उसका कारण सरकार का जल-बचाओ अभियान होता है। अच्छे नागरिक का कर्तव्य है कि वो सरकार की हर योजना का यथाशक्ति समर्थन करे।

                          अब आइये घर के बाहर का भी कुछ बताते चलें आपको,  वरना कहोगे कि अधूरी जानकारी दी। घर से निकलते ही पेड़ के नीचे बैठे परंपरागत पादुका-सेवक से मैं अपने जूते पालिश  करवाता हूं। इतने चमकवाता हूं कि कोई चाहे तो उसमें देख कर कंघी कर ले। दफ्तर में पहुंचता हूं और सबसे पहले देखता हूं कि चपरासी ने सफाई ठीक से की है या नहीं । एक बात बता दूं कि हमारा चपरासी सफाई तो बढ़िया ही करता है। लेकिन मैं खनदानी सफाई पसंद हूं,  इसलिए मेरी नजर वहीं पड़ती है जहां जरा सी भी सफाई छूट गई हो। ऐसे में एक क्लासिक हंगामा तो बनता ही है। दफ्तर को सिर पर उठा लेता हूं, खूब चिल्ला लेता हूं। इससे मेरा एक्सरसाइज का कोटा पूरा हो जाता है। साथ ही लोगों में मेरी यह धाक भी जम जाती है कि साहब बड़े सफाई पसंद हैं। मेरा ख्याल है कि आप प्रभावित हो चुके होंगे मुझसे। प्रधानमंत्री जी को बताइयेगा, कि देश  में एक नागरिक है सफाई-पसंद। उनके पास मौका है, चाहें तो इस बात पर एक पद्मश्री दे दें। 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

साहित्यसेवी दीमकें


                 एक समय ऐसा आ गया जब स्वयं सिद्ध बड़े रचनाकार शब्देश्वर  अपनी दीमक चाट रही किताबों के लिए इतने चिंतित हो गए कि उन्हें अनिंद्रा का शिकार हो जाना पड़ा। रात रात भर वह और दीमक साथ साथ जागते हैं और किताबों के आसपास बने रहते हैं। रात्रि के तीसरे प्रहर में, जिसे विद्वान लोग प्रायः ब्रह्मम मुहुर्त वगैरह कुछ कहते हैं, उन्हें रोना आने लगता है। ऐसे में उन्हें कबीर याद आते हैं, -‘‘दुःखिया दास कबीर, जागे और रोवै। सुखिया सब संसार, खावै और सोवै।’’ उन्हें समझ में नहीं आया कि जब कबीर के पास किताबें नहीं थीं तो दीमक की परेशानी कैसे रही होगी !! उन्हें लगा कि कबीर के दुःखिया होने का कारण अवश्य ही खटमल रहे होंगे। अच्छा है कि उनके अपने घर में खटमल नहीं हैं और वे कबीर होने से बालबाल बच गए हैं। वरना इस बुढ़ापे में कहीं बैठे झीनी चदरिया बुनना पड़ती फोकट में। इधर उनके घर के सारे लोग खा-पी कर सो रहे हैं मजे में। साम्यवादी शब्देश्वर किसी को खाते देखते हैं तो उन्हें भी भूख लगने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। काफी देर से जागते और दीमक को खाते देख खुद भूखे हो चले हैं, कमबख्त गांधीवादी दीमकें लगातार खाए जा रही हैं। राजनीति में कोई हरकत नहीं होने के बावजूद खाना या ‘चाटजाना’ दीमक का काम है। कोई जागरुक सिरफिरा जनहित याचिका लगा दे तो विद्वान न्यायाधिपति को अपने फैसले में कहना ही पड़ेगा कि उन्हें खाने दो, खाना और ‘चाटजाना’ उनका हक है, चाहे किताबें हों या कुछ और। देखने वाली बात ये है कि उनके सामने विकल्प हो तो वे किताबों को प्राथमिकता से चुनती हैं। मनुष्य उनके पुस्तक-प्रेम  को गंभीरता से ले यह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन देखिए, कितने षरम की बात है कि आदमी के सामने जूता और किताबें रख दो तो वह जूता पहन का भाग जाएगा, लेकिन किताब उठा कर नहीं देखेगा। 
                      दूसरे दिन शब्देश्वरजी ने दीमक-विशेषज्ञ को बुलवाया। संयोग से वह भी जन्मजात कवि था। उसने बताया कि अगर दीमक कविताएं सुन पातीं तो वह सबको एक रात में ही मार डालता, लेकिन अफसोस, ईश्वर  ने सब प्राणियों को अपनी रक्षा के लिए कुछ न कुछ दिया है, वे बहरी हैं। शब्देश्वर भाईसाब ईश्वर  बड़ा चालाक है। शब्देश्वर को उसकी बात अच्छी नहीं लगी, बोले-‘‘ ईश्वर  चालाक नहीं दयालू है। देखो जिस आदमी को आज भी शब्दों का ठीक से ज्ञान नहीं है वह जमाने भर में शब्देश्वर है। कागज कलम ले कर बैठता हूं तो पता नहीं कहां से शब्द आते जाते हैं फरफर फरफर, अपने आप। बोलो, इसे क्या कहोगे तुम ?’’ 
वह बोला - ‘‘शब्द आपके जींस में हैं शब्देश्वर। आपको पता नहीं, जो दीमकें साहित्य की किताबें चट करती हैं वो आगले जन्म में कवि बनतीं हैं। देख नहीं रहे हैं कि गली मोहल्लों में बांबियां भरी हैं कवियों से। पिछले जनम का चाटा हुआ अपना असर रखता है। साहित्य के साथ पुनर्जन्म होता है दीमकों का। आप चाहें तो इसे संस्कार वगैरह कह सकते हैं। अगर आपकी मंशा  है कि साहित्य सचमुच अगली पीढ़ी में जाए तो दीमकों के प्रति दुर्भाव मत रखिए। आज जो दीमकें आपकी किताबें चाट रही हैं वे ही कल, यानी उनके अगले जन्म में समाज के सामने इन्हें प्रस्तुत करेंगी। आपको पता ही है कि साहित्य का मूल्यांकन कवि के जीते जी नहीं होता है, उसे समय जांचता है और आप विचार करके देखिए कि समय और दीमक में कोई अंतर नहीं है। साहित्य के मामले में दीमक को मारना अपने समय को मारना है।’’
              शब्देश्वर कुछ देर खामोश  और गंभीर बने रहे, फिर बोले, -‘‘ कल भोजन पर आइयेगा, मैं दीमकों का श्राद्ध करना चाहता हूं ।’’                    ---

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

दाढ़ी राखिए, और न राखिए कुछ

               यों उनकी उम्र ‘बाऊजी’ लायक नहीं है लेकिन लोगों के बीच कहाते बाऊजी हैं। अभी भी कहीं कहीं ऐसे आदमी को लोग बाऊजी कहने लगते हैं जो जरा सा भी पढ़लिख गया हो, भले ही वो बेरोजगार हो। बाबूगिरी से बाऊजी का कोई संबंध नहीं है। आपके हमारे जैसे आदमी उस वक्त आहत हो सकते हैं जब कोई सुन्दरी भरी सभा में ‘बाऊजी’ का भाटा मार दे, लेकिन बाऊजी पक्के बाऊजी हैं, उन्हें कुछ नहीं होता। दिनभर में उन्हें जितना भी बाऊजी मिलता है सब झोले में भर कर ले आते हैं। जैसे कई लज्जाहीन और ढीठ किस्म के सुबह घुमने निकलते हैं और घर घर फूल चुराते थैली भर कर लौटते हैं। कोई मना कर दे, डांट दे या जूता ही उठा कर मार दे तो भी वे बुरा नहीं मानते हैं। हां, जवाबी कार्रवाई में वे अगले दिन आधा घंटा पहले सैर पर निकलते हैं और दुगनी फूलखोरी के साथ लौटते हैं। 
              बहरहाल, बात बाऊजी की चल रही थी। एक दिन हमने उनसे पूछा कि आपको अंदर से कैसा लगता है जब कालोनी के बाऊजीलोग भी आपको ‘बाऊजी’ बोलते हैं ! 
               वे बोले - ‘‘ साहस उनका है, यह सवाल आपको उनसे पूछना चाहिए। लेकिन आपकी जिज्ञासा सही है। हम भी सोच रहे हैं कि बाऊजी का मान रखने के लिए हमें कुछ करना चाहिए। ’’
                 ‘‘ चलिए देर आए दुरुस्त आए। क्या करने का विचार है ? ’’
               ‘‘ सोचते हैं कि दाढ़ी रख लें। रोज रोज शेविंग का झंझट भी मिटेगा और नहीं जानने वालों को सुविधा हो जाएगी, वे एक झटके में हमें वरिष्ठ साहित्यकार भी समझ लेंगे। क्या कहते हो ? आइडिया कैसा है ?’’
                  ‘‘ आइडिया तो जोरदार है पर आप लिखते तो हैं नहीं !’’
                 ‘‘ हैं तो हम बाऊजी भी नहीं, पर लोग कहते और मानते हैं। साहित्यकार-टाइप दिखने लगेंगे धीरे धीरे लोग अपने आप साहित्यकार समझने-कहने लगेंगे। असल बात टाइप होना है। जैसे पहले कोई नेता नहीं होता है लेकिन हरकतें नेता-टाइप करता है तो लोग  उसे नेता मानने लगते हैं। टीशर्ट-जींस पहनने की उम्र में किसीको  को कुर्ता-पजामा पहन कर बांह चढ़ाना पड़ती है तो किस गरज से ? अगर आप पंडित-पुजारी टाइप रहने लगो तो लोग अपने आप ‘पाय-लागी’ बोलने लगेंगे, कोई संस्कृत का एक श्लोक  नहीं पूछेगा।’’ जवाब में बाऊजी ने लंबा भाषण दे दिया।
                    ‘‘ फिर भी किसी ने पूछ लिया कि इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं तो क्या जवाब देंगे !’’
                    कुछ देर का विराम ले कर वे बोले- ‘‘ देखो भाई, सारे सवालों का स्वाभाविक उत्तर दाढ़ी होती है। आज दुनिया कबीर या गालिब को किसी और चीज से नहीं, दाढ़ी से पहचानती है। आपने किसी दाढ़ी वाले से पूछा कि आप विद्वान हो, साधु-संत हो, नेता हो, मंत्री हो, या जो हो उसका कोई प्रमाण दोगे ? नहीं ना ? अब तो दाढ़ी देख कर जनता कुर्सी तक दे देती है। सदियों से प्रजा को दाढ़ी पर भरोसा है। .... फिर भी तुम्हारा प्रश्न  बेकार नहीं है। एक बार दाढ़ी ठीक से बढ़ जाएगी तो हम कुछ कविताएं भी बटोर लाएंगे। बहुत से हैं जो बिना दाढ़ी के कविताएं लिख रहे हैं और उन्हें कोई कवि नहीं मानता है। चलिए दो लाइन से हमारा लोहा भी मानिए -
                                          बाऊजी दाढ़ी राखिए, और न राखिए कुछ।
                                           बाढ़े दाढ़ी जग पूजे, और न देखे कुछ ।।  
                                                                 -------

सोमवार, 1 सितंबर 2014

गिरवीघर में विचार

              वैसे चीजों को गिरवी रखने का धंधा हमारे यहां यानी भारत में पुराना है लेकिन इनदिनों जबसे टीवी पर ‘पाॅन स्टार’ आया है, इस काम का बहुत विस्तार हो गया है। राजधानी में चल रहे गिरवीघर ‘पटेल पाॅन स्टोर’ में विनोदकुमार बोस पहुंचे।
              ‘‘ जी, मैं आपकी क्या सेवा कर
सकती हूं ?’’ गिरवीघर में कदम रखते ही स्वागत्-सुकन्या ने पूछा। सुन कर विनोदकुमार सोच में पड़ गए। संकोच के साथ बोले,-‘‘कुछ विकल्प बताएं तो मुझे सुविधा होगी।’’
                ‘‘जी अवश्य , ... क्या मैं जान सकती हूं कि आप यहां कुछ खरीदने आए हैं, बेचने या गिरवी रखने ?’’
                  ‘‘मेरे पास कीमती विचार हैं, वैसे तो गिरवी रखना चाहता हूं, लेकिन अच्छी कीमत मिलेगी तो बेच दूंगा।’’
                  ‘‘ठीक है, आप उस तरफ मिस्टर पटेल के पास चले जाइये, पीले काउन्टर पर।’’
                विनोदकुमार बोस अब पटेल के सामने थे, बताया कि ‘‘मेरे पास कुछ विचार हैं, ..... काफी पुराने हैं। कीमती भी हैं, देखिए इन पर मार्क्स की छाप है, लेनिन और माओ के सिग्नेचर भी इसमें हैं। किसी समय भारत में इनकी बड़ी कद्र थी। ... ये अभी भी अच्छी हालत में हैं, सही आदमी मिल जाए तो काम आ सकते हैं। ’’ 
                  ‘‘ हूं ....., आपके पास ये विचार कहां से आए ?’’ गंभीर हो चुके पटेल ने पूछा। 
                  ‘‘ ऐसा है कि पुराने टाइम में, मेरा मतलब है कि ब्रिटिश  टाइम में मेरे दादाजी बड़े कवियों और लेखकों के साथ काफी हाउस में बैठा करते थे। वहीं से उन्हें संपर्कों के कारण मिले। बाद में पिताजी ने इन्हें बहुत समय तक वापरा, उसके बाद अर्से से मेरी अलमारी में पड़े हैं। अब मेरे किसी काम के नहीं हैं इसलिए ......।’’ विनोद कुमार ने तफसील दी।
                   ‘‘ ओके..., आप इनका क्या करना चाहते हैं, गिरवी रखना है या बेचना चाहेंगे ?’’
                    ‘‘ चहता तो था गिरवी रखना पर अच्छी कीमत मिल जाए तो बेच दूंगा।’’
                    ‘‘ कितना एस्पेक्ट कर रहे हैं आप ?’’
                  ‘‘ देखिए ये बहुत कीमती विचार है। इन विचारों से देश-विदेश में कई सरकारें बनी हैं और चलीं भी हैं। इस हिसाब से कीमत करोड़ों में होना चाहिए लेकिन मैं मात्र पांच लाख ले लूंगा। ’’ विनोदकुमार ने अपना प्रस्ताव दिया।
                    ‘‘ पांच लाख !! ये सोचा भी कैसे आपने !?! विचारों की इतनी कीमत अब कहां रह गई है !?’’
                  ‘‘ इसका अतीत देखिए मिस्टर पटेल, अगर आप इसके इतिहास पर गौर करेंगे तो आपको ये कीमत ज्यादा नहीं लगेगी।’’ 
                ‘‘ देखिए मेरे पास गांधी-विचार पड़े हैं, समाजवादी -विचार हैं, सर्वोदयी-विचार भी पड़े हैं लेकिन आजकल इनको पूछने वाला भी नहीं आता है। सच कहूं तो मार्क्स  की फटी कमीज या घिसे जूतों के ग्राहक मिल सकते हैं लेकिन विचारों के नहीं। साॅरी, .... मैं इसे नहीं खरीद पाउंगा।’’ पटेल ने विवशता बताई।
                  ‘‘देखिए आप पुरानी चीजों को खरीदने-बेचने का व्यवसाय करते हैं और आपकी ख्याति दूर दूर तक है। मैं सोचता हूं कि इसकी कद्र करने वाले आपके पास जरूर पहुंचेंगे। .... चलिए पचास हजार दीजिए।’’ विनोदकुमार ने नया प्रस्ताव किया।
                ‘‘ काॅमरेड आप हमारे महत्वपूर्ण ग्राहक हैं। पहले भी आप जैसे एक सज्जन कुछ सिद्धान्त गिरवी रख गए थे, न उन्होंने छुड़वाए और न ही आज तक बिक पाए हैं। अगर जरा भी संभावना होती तो मैं आपको निराश नहीं करता।’’
                    " चलिए पांच हजार दीजिये, मैं भी आपको निराश नहीं कर सकता हूँ । " विनोदकुमार ने उदारता  बताई। 
                       " बेहतर होगा आप इन्हें अपने पास ही पड़ा रहने दें। " पटेल राजी नहीं हुए। 
                  विनोदकुमार की चिंता बढ़ गई, उन्हें हमेशा  से लगता रहा था कि उनके पास बहुत कीमती चीज है लेकिन !! ..., बोले -‘‘ पटेल जी , दरअसल मुझे विकास की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका मिल रहा है। उन्होंने कहा है कि वे सबका सहयोग लेंगे, सबको साथ लेकर चलेंगे। लेकिन सुना है कि पहले नार्को टेस्ट करेंगे, अगर कहीं इन विचारों के सिग्नल मिल गए तो दिक्कत हो सकती है। मैं इनसे पूरी तरह मुक्त होना चाहता हूं। .... अब मना मत कीजिएगा,  आप केवल पांच सौ दीजिए। ’’
                 ‘‘ साॅरी, आपको जान कर अच्छा नहीं लगेगा कि अब इन विचारों को स्टोर में रखना कितना जोखिम भरा है।’’
                  ‘‘ चलिए पांच दीजिए .... अब आप कुछ नहीं बोलेंगे। आपको गणेशजी की कसम।’’
                  इसबार पटेल कुछ नहीं बोले, चुपचाप पांच का सिक्का निकाल कर उनकी हथेली पर रख दिया।
                    विनोदकुमार प्रसन्न हो गए-‘‘ थैंक्यू मिस्टर पटेल, अब मैं मुक्त हुआ। वंदे .....वंदे .... वंदे ....।’’
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