शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

इलाज और बीमारी के बीच कूदफांद

                   

जो कभी बीमारी घोषित थे , सत्ता में आने के बाद इलाज हैं । जिससे बचने का ढोल पीटा जा रहा था अब वो शिलाजीत है, देश को मर्द बनाने की दवा। साम, दाम, दण्ड, भेद के आगे कोई कुछ बोल भी नहीं सकता है। वरना जिसके भाग्य में जितनी साँस  लिखी होगी रामजी उससे ज्यादा किसी को नहीं देंगे। जहां तक राम का सवाल है, सबसे पहले वही सिस्टम के लपेटे में आए हैं। ऐसे में जो लोग महूरत निकलवा कर काम नहीं करते राज्य में उनके लिए कोई गैरंटी नहीं होगी। प्रातः बिस्तर से उठते हुए पहले दांया पैर जमीन पर नहीं रखने वालों का दिन खराब होगा, नहीं हुआ तो संस्कृति रक्षक खराब क्र देंगे.  गुण्डे गोली मार दें या घर में चोरी हो जाए तो इसमें प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। धंधा उसी का चलने दिया जायेगा जो चौघड़िया देख कर दुकान का ताला खोलेगा। लड़कियां भी वही सुरक्षित होंगी जो पूरी ढंकी होंगी या फिर जिन पर कलयुगी रावण कृपा करेंगे। विकास का दावा है, यानी पक्के तौर पर होगा ही। लेकिन अपने ज्ञानचक्षु खोलना होंगे, मनना होगा कि  विकास आगे नहीं, पांच हजार वर्ष पीछे है।
               इधर जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। अतीत में दुःख,  भविष्य में डर,  वह मान लेती है कि दर्द का हद से गुजर जाना अपने आप दवा बन जाएगा। जानकार कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। किन्तु बचाव हो कैसे, जिस हवा में सांस लेते हैं उसी में बेक्टेरिया तैरते रहते हैं। आंकडे उठा कर देखें तो देश में जितने बीमारी से मरते हैं उससे ज्यादा इलाज से मरते हैं। हरेक को आजादी है,  वो चाहे तो शान्तिपूर्वक बीमारी से मर सकता है या उतावला हो कर इलाज से।
           “ भाभीजी सुना है भाई साब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ पडौसन ने पूछा।
   ‘‘ क्या बताऊ, हप्ताभर से उछल रहे हैं, डाक्टर कहते हैं युवा-हृदय-सम्राट हो गया है।’’
   ‘‘ नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा। मैं तो हमेशा गेटआउट लगा के रखती हूं।’’
   ‘‘ घर में तो गेटआउट हम भी लगाते हैं, पर ये बाहर मच्छर-मख्खी के बीच ही रहते हैं और तला-गला, गंदा-बासी सब खाते हैं ना।’’
   ‘‘ अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेक्शन होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
   ‘‘ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर थर्ड स्टेज लीडरी का हो जाता।’’
    ‘‘ क्या होता है थर्ड स्टेज लीडरी में ?!’’
    ‘‘ चमड़ी मोटी हो जाती है, दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिनरात खाने की सूझती है, पेट हमेशा खाली महसूस होता है.....।
     ‘‘ जांच करवाई ? कुछ निकला ?’’
     ‘‘ जांच हुई, पर अभी तक निकला कुछ नहीं। निकलेगा कहां से! अभी तक कोई मौका ही नहीं मिला है।’’
            जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे नेता इलाज हैं या बीमारी। अभी तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इलाज समझ कर जिनका हाथ थामा वे बीमारी निकले। एक जमाने में कहा जाता था कि डाक्टर से बचना है तो घी-मख्खन खाओ, अब डाक्टर बोलते हैं कि ये बीमारी का घर हैं,  इनसे बचो। मौसम ऐसा चल रहा है जिसमें हर पार्टी खुद को इलाज और दूसरी को असाध्य बीमारी बता रही है। यही वजह है कि खासी कूदफांद चल रही है। कुछ बीमारी से कूद कर इलाज में आ रहे हैं, कुछ इलाज से बीमारी में जा रहे हैं।

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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

ठीकरे मांग रहे सिर

                 
हारने के बाद हार का ठीकरा सामने आता है। हार जितनी बड़ी होती है ठीकरा भी उतना बड़ा होता है। परंपरा ये है कि जितनी जल्दी हो किसी के सिर पर ठीकरे को फोड़ देना जरूरी है। आदर्श राजनीति में चाकू पीठ में ही घोंपा जाता है, उसी तरह ठीकरा सिर के अलावा और कहीं नहीं फोड़ा जा सकता है। ठीकरा कोई तिजोरी में रखने की चीज नहीं है, न ही पार्टी कार्यालय में मोमेंटो यानी स्मृति चिन्ह की तरह सजाया जा सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि ठीकरा चाहे जहां फोड़ा भी नहीं जा सकता है। उसके लिए बाकायदा एक सिर लगता है, यानी एक बाजिब सिर। ये नहीं कि किसी रास्ते चलते को पकड़ लिया और उसके सिर पर फोड़ दिया दन्न से। पुराने जमाने में अघ्यक्ष के सर को यह सम्मान दिया जाता था, जिस पर नारियल से ले कर ठीकरा तक, सब कुछ फोड़ा जा सकता था। लेकिन हाल के बरसों में कुछ गलतफहमियों ने जड़े जमा लीं। अध्यक्ष के गले में पड़ने वाली मालाओं का ध्यान रहा, ठीकरों को भूल गए। अगर दूरदृष्टि से जोखिम का ध्यान रखा होता तो न सही अध्यक्ष, कम से कम उपाध्यक्ष तो किसी शोषित-पीड़ित बेनाम कार्यकर्ता को बनाया होता तो आज आराम से काम आ गया होता। जिसने दस साल से अपने सिर पर सब कुछ लिया, अगर उसी को जरा सा श्रेय देते तो वह ठीकरे भी अपने सिर पर फुड़वा लेता। अब क्या हो सकता है, गलती हो गई। ठीकरे हर राज्य से थोक में चले आ रहे हैं। पार्टी कार्यालय का पिछवाड़ा गोदाम की तरह ठीकरों से भर गया है। जो अपनी गरदन तक भेजने का दावा कर रहे थे अब ठीकरे भेज रहे हैं। इधर जिन्होंने सारी शक्तियां एक जगह केन्द्रित करके रखी हुई थी उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि ठीकरों का विकेन्द्रीकरण कैसे हो! लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता। ठीकरे मुंडेर पर उगे पीपल की तरह रोज बढ़ते जा रहे हैं। समस्या ये है कि यदि समय रहते इन्हें किसी सिर पर नहीं फोड़ा गया तो ये ईंट ईंट बिखेर देंगे।
पार्टी के कुछ उपेक्षित जनों ने विज्ञापननुमा बयान दिये हैं कि वे ठीकरे फुड़वाने के लिए अपना सिर प्रस्तुत करते हैं। लेकिन ठीकरों की तुलना में उनके सिर बहुत छोटे हैं। अगर फोड़ने की कोशिश की गई तो सिर के मुआवजे उपर से गले पड़ जाएगें। फिर इसमें त्याग और बलिदान की बू आ रही है। वे जानते हैं कि इस वक्त कोई ठीकरे फुड़वा लेगा तो कल उसके गले में उन्हें खुद माला डालना पड़ेगी, इज्जत का एक आसन देना पड़ेगा, बावजूद इसके क्या गैरंटी कि कल वंश परंपरा के दावों को भी वह स्वीकार कर लेगा।
कहने को पार्टी में जगह जगह हार के कारणों पर चिंतन बैठक चल रही है। किन्तु वास्तव में उनकी चिंता उपयुक्त सिर की तलाश है। बच्चों को जोखिम में नहीं डाल सकते, उन्होंने तो अभी अभी सिर उठाना सीखा है। अभी तो उन्हें ठीकरों का मतलब भी मालूम नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे फूटते कैसे हैं। पता चलेगा तो शायद वे राजनीति से दूर ही रहना
चाहें। अगर कहीं ऐसा हो गया तो भी दिक्कत होगी।
पार्टी जिन्हें अपना चाणक्य कहती आई है, उन्हें बुलाया गया। पूछा कि – आप ही रास्ता बताइये .... कि ठीकरे भी फूट जाएं और शीर्षस्थ
सिर भी बच जाएं।
बहुत विचार के बाद वे बोले – हमें इतिहास में से कोई सिर ढूंढ़ना चाहिए। हमारा इतिहास महत्वपूर्ण सिरों से भरा पड़ा है। ठीकरों की तुलना में ये सिर बड़े भी हैं। समय समय पर हमने उन्हें श्रेय दिया है, उनके माथे पर पगड़ी बांधी है, गले में माला पहनाई है। आज समय
आया है कि वे बुरे वक्त में पार्टी के काम आएं।
‘‘ ये नहीं हो सकता। इतिहास में तो वंश है। उचित व्यक्ति ने
आपत्ती की।
‘‘ वंश  के अलावा भी हैं इतिहास में ।
‘‘ वो पार्टी का इतिहास नहीं है। बाकी किसी को हम इतिहास नहीं
मानते। आप कोई और रास्ता बताइये।
‘‘ मीडिया के सिर फोड़ दीजिए। चाणक्य बोले।
दुकान बंद नहीं कर रहे हैं हम। उचित व्यक्ति ने नाराजी से कहा।
फिर तो एक ही तरकीब है, जनता के सिर फोड़ दो। आम आदमी
हर समय काम आते हैं।
‘‘ ठीक, आम आदमी का सिर सही रहेगा। एक पत्थर से दो
शिकार। ....

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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

एक क्विंटल के बाउजी

सब उन्हें बाऊजी कहते हैं, वैसे उनकी दिली इच्छा तो बापजी कहलाने की रही है, पर क्या करें लोकतंत्र है। इसके कारण जब तब खींसें निपोरना पड़ती है, जिन्हें जूतों से हड़काया था कभी उनके हाथ तक जोड़ने की आदत डालना पड़ी है। हुजूर, सरकार, मांईबाप सुनने की चाह थी लेकिन कान में पड़ता है पिलपिला बाऊजीमन करता है कि थप्पड़ लगा कर मुर्गा बना दें अगले को। लोकतंत्र गले की हड्डी हो गया ससुरा, बड़े बड़े अनारकली हो के रह गए, मरण की मुश्किल  में जिए जा रहे हैं या जीने की कोशिश में मरे जा रहे हैं। शुरू शुरू में दिक्कत बहुत हुई, लेकिन बाद में उन्होंने मन मार के बाऊजी से काम चलाना सीख लिया। दिल को समझा लिया कि बाऊजी भी बाप ही होता है रे,  कान इधर से पकड़ो या उधर से, एक ही बात है।
                 आप सोच रहे होंगे कि उन्हें बाप बनने की ऐसी क्या पड़ी है, वो भी सबके !! तो जिस तरह भइया "जन-धन योजना" सरकार की प्रतिष्ठा है उसी तरह "बाप-बन योजना" उनकी निजी प्रतिष्ठा है। ये बात अपने दिमाग की हार्डडिस्क में अच्छे से 'सेव' कर लो कि बाप से संबोधित होना उनका एक खानदानी व्यसन है। पुराना समय होता तो इस मामले में कोई प्रश्नवाचक सिर झुका के भी प्रवेश नहीं कर सकता था उनके दरबार में। अब व्यसन है तो है, खानदानी हैं इसलिए जरूरी है कि दस-बीस व्यसन भी हों। व्यसन आन-बान-शान होते हैं खानदानी लोगों के। आम लोगों को तो परंपरा-रवायतों वगैरह का ज्ञान होता है नहीं,  सड़क किनारे कोई पड़ा दिखा नहीं कि पट्ट से बोल दिया एवड़ा-बेवड़ा कुछ भी। अगर लोकतंत्र नहीं होता तो आपको अपने आप समझ में आ जाता कि बापजी पड़े हैं। पड़े क्या हैं अपनी राज्य-भूमि को प्यार कर रहे हैं कायदे से। वो दिन होते तो झुक के सात सलाम और पांच पा-लागी अलग से करते लोग। लेकिन अब क्या है, अदब कायदों का तो अकाल ही पड़ गया। बासी, सल पड़ा काना आलू सा बाऊजी मिल जाए तो बहुत है।
                        बाऊजी जब राजनीति में आए थे तब काफी जवान थे। बल्कि ये कहना ठीक होगा कि जवानी के बल पर ही राजनीति में आए थे। उनके दिमाग में बात साफ थी कि राजनीति वो न जनता के लिए करते हैं और न ही देश के लिए। वे जो करते हैं खुद के लिए करते हैं। राजपाठ के दिन भले ही लद गए हों पर कोशिश करने वालों को सफलता मिलती है। आज भी राजा होने के लिए प्रजा चाहिए परंतु ये लोकतंत्र कमबख्त है और जनता ढीठ। प्रजा बनाओ तो बनती नहीं है। वे बार बार लोकतंत्र को प्रजातंत्र कहते हैं लेकिन जनता को कुछ समझ में नहीं आता, बहुत हुआ तो नारा ठोंक देती है कि "जब तक सूरज-चांद रहेगा, बाऊजी का नाम रहेगा"। वे दुःखी हो जाते हैं, मन तो होता है कि छोड़ दें ऐसी राजनीति जो श्रीमंत को बाऊजी बना देती है लेकिन कोई जमीन हो तो नाव से उतरें भी।
                       खैर, बात में से बात निकलती जा रही है और असली बात छूट रही है। जनता भी पक्की राजनीतिबाज है उसने नेताओं को तौलने का फैशन चला रख़ा है। किसी जमाने में चांदी से तौला करते थे लेकिन मंहगाई है तो आलू-प्याज और टमाटर से तौल देते हैं। ये भी मंहगे हुए तो कर्णधार केलों से तुलने लगे, बाद में घर जाने के भाव में कद्दू, फूल गोभी, तरबूज वगैरह का नंबर लगा। हर तुलाई के बाद फोटू छपती, खबर बनती है। बाऊजी का भी मन होता था कि काश कोई उन्हें भी तौल दे। साठ किलो के शरीर से उन्होंने राजनीति शुरू की थी, तौलने के हिसाब से वजन ठीक था। उस वक्त पट्ठे नहीं थे, होते तो चांदी से तुल जाते। अब सौ किलो के हो गए हैं और तरबूज-खरबूज से तुलने का मन नहीं हो रहा है। चाहते हैं कि चांदी ना सही, तुलें तो कम से कम अनाज से तुलें। पट्ठों ने अनाज मंडी में जा कर खबर की कि बाऊजी अनाज से तुलना चाहते हैं, तौलो।
                 ^^ सोयाबीन का सीजन चल रिया हे, धंधा करें कि फ़ोकट की तौला-तौली करें भिया !! छोटे-बड़े बांट-वांट भी नीं हैं, इलेक्ट्रानिक मसीन से काम होता हे यां-पे। बिजली कभी आती हे कभी जाती हे। पेले इ प्रेसन हेंगे, केसे करेंगे, आप लोग ही सोचो।" मंडी अध्यक्ष ने समस्या बताई।
               ^^ बाऊजी पूरे सौ किलो के हैं। ना सौ ग्राम ज्यादा ना सौ ग्राम कम। सोयाबीन की भरती के बरोबर। बोलो अब क्या दिक्कत है " -
               ^^ क्या सचमुच पूरे सो किलो हेंगे "
               ^^ पूरे सौ किलो । "
               अध्यक्ष ने हम्माल को दौड़ा कर मदनसेठ को बुलवाया। वे भागे आए,- ^^ अरे मदन सेठ, तोल की व्योवस्था हो गई क्या तुमारी "
              ^^ अब्बी कां ।"
              फौरन से पेश्तर बाऊजी को लेकर आए पट्ठे। बाऊजी बड़े से तराजू के एक तरफ बैठे हैं और दूसरे पलड़े पर सोयाबीन की बोरियां एक एक कर रखी-उतारी जा रही हैं। तालियां बज रहीं हैं और हार डाले जा रहे हैंबताया जा रहा है कि बाऊजी तुल रहे हैं। बाऊजी भी मान रहे हैं कि वे ही तुल रहे हैं। किसान खुश है कि उसकी सोयाबीन तुल रही है। व्यापारी खुश  है कि बाऊजी को दो किलो फूलमाला पहना कर उन्हें क्विंटल पीछे दो किलो सोयाबीन ज्यादा मिल रही है। 
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नवंबर के भरोसे पूरा साल

                       
जिन्दा रहना मेरा निजी जोखिम है, बावजूद इसके नवंबर का महीना मेरे, जीवित होने, का महीना होता है। एक बार मैं नवंबर में जिन्दा घोषित हो जाउं तो आगे के ग्यारह महीनों की गैरंटी हो जाती है। यानी मैं अगर नवंबर में जीवित बरामद होता हूं तो ही वास्तव में जीवित हूं, वरना मरा हुआ हूं, चाहे नहीं भी मरा हूं। साफ है कि जो नवंबर चूक गए वो गए काम से। अगर कोई बंदा अक्टूबर में जाउं-जाउं कर रहा हो तो, उसके वालेकोशिश करते हैं कि कम से  कम नवंबर तो निकाल ले। नवंबर में मैं यह लेख लिख रहा हूं तो संपादकजी मान लेंगे कि जिन्दा हूं लेकिन मेरा विभाग नहीं मानेगा। विभाग कागजों पर चलता है, मेरे जिन्दा होने की घोषणा मेरे होने से ज्यादा जरूरी है। अगर कोई किसी तरह घोषणा करने में सफल हो जाए तो मरा हुआ आदमी भी जिन्दा हो सकता है। संसार मिथ्या है, काया नश्वर है, इसलिए कागजों पर जिन्दा होना जरूरी है। जब मैं घोषणा करता हूं तो मुझे भी लगता है कि मैं वाकई जिन्दा हूं। वरना ऐसे लाखों हैं जो जिन्दा हैं, लेकिन उन्हें कोई मानता नहीं,उनसे जिन्दा आदमी सा व्यवहार नहीं करता। बारह महीनों में से किसी भी महीने में उनसे कोई नहीं कहता कि घोषणा करो कि तुम जिन्दा हो । धीरे धीरे वे खुद ही भूलने लगते हैं कि वे जिन्दा हैं, अन्य लोग तो पहले ही भूल चुकते हैं। देखा जाए तो इस व्यवस्था में बड़ा सुकून है, आज के समय में जब कोई किसी को पूछता नहीं है कि भइया जी रहे हो या मर रहे हो। ऐसे में विभाग पूछ रहा है कि जिन्दा हो, तो कितना अपनापन लगता है।
अपने यहां तो मरे को भी तब तक मरा नहीं मानते हैं जब तक कि डाक्टर उसे मृत घोषित न कर दे। सोचिए अगर डाक्टर हड़ताल कर दें या ठान लें कि हम किसी को मृत घोषित नहीं करेंगे तो लोगों का मरना कितना                           मुश्किल  हो जाएगा। लेकिन इधर ऐसा नहीं है। अगर कोई अपने जिन्दा रहने की घोषणा खुद नहीं करेगा तो पहली दिसंबर को अपने आप मरा मान लिया जाएगा। पेंशन खाते में उसका अंतिम संस्कार हो जाएगा और शोकपत्र के साथ शेष रकम नामांकित को दे कर हाथ जोड़ दिए जाएंगे। वह चीखता रहे कि मैं जिन्दा हूं, उधर से जवाब आएगा कि बाउजी ये दिसंबर है। दिसंबर में जिन्दगी के पट बंद हो जाते हैं। जो नवंबर में मस्त थे वे दिसंबर में अस्त माने जाएंगे।

अस्सी वर्षीय दर्शन बाबू सरकार को भजते थकते नहीं हैं। नवंबर के इंतजार में कब और कैसे बाकी ग्यारह महीने जी लेते हैं उन्हें खुद पता नहीं चलता है। नवंबर नहीं हो तो उनकी सांसें ही थम जाएं। सेहत उनकी बढ़िया है, नवंबर की गुलाबी ठंड में वे अपना शादी का सूट स्तरी करवाते हैं, जूतों पर पालश इतनी कि लगता है जूते दिखा कर पेंशन लाने वाले हों। बगल में पहले सेंट होता था अब डीओ। कान के उपर के बालों को छोड़ शेष रह गए कुछ बालों पर खिजाब और मूंछों पर तेल लगा कर तैयार होते हैं। हाथ में एक बैग है जिस में जरूरी कागजों के अलावा हनुमानचालीसा भी है। वे बाकायदा अगले ग्यारह महीनों की जिन्दगी लेने जा रहे होते हैं। जब लौटेंगे तो उनके मुंह में पान होगा जिसके रस को वे अपने कोट के साथ शेयर कर रहे होंगे। लेकिन कोई उन्हें कुछ नहीं कहेगा। नवंबर का महीना घर में दूध देती गाय के आने का महीना है। 

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

जुलूस

जिस सड़क को हाल ही में राष्ट्रिय  समझदारी की उम्मीद के साथ झाड़ कर साफ किया गया था उस पर पूरे परंपरागत तामझाम के साथ एक जुलूस निकल रहा है। वैसे घोषित यह है कि प्रतिमा का विसर्जन किया जाना है लेकिन इरादों के अनुसार भियाजी का शक्तिप्रदर्शन है। हांलाकि  उनके पास कितनी शक्ति है इस विषय पर विशेषज्ञों और जानकारों में काफी मतभेद है। मान्यता यह है कि प्रदर्शन  जोरदार हो तो शक्ति भी जोरदार मानी जाएगी। इसका मतलब यह है कि प्रदर्शन  ही शक्ति है। भियाजी प्रदर्शन  का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं, बल्कि मौके को आने में देर हो तो पकड़ कर घसीट लाते हैं। ऐसा ही घसीटा जा रहा मौका इस समय उनका रुतबा बढ़ा रहा है।
इस समय भियाजी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। जुलूस में तमाम महिलाएं शामिल हैं और सबने एक जैसी साड़ी पहन रखी है। पुरुष, यानी जिनका युवापा अब जाता रहा, पीले कुर्ते में हैं। युवाओं ने, जिनमें ज्यादातर बारह तेरह साल से सत्रह अठारह साल के हैं लाल टी-शर्ट पहने हुए हैं। चर्चा है कि जोरदार तरीके से नारे लगाए तो शाम को दो-दो सौ रुपए और मिलेंगे सबको। इसी का असर है कि लगता है हृदय-सम्राटी का माहौल बन गया है। हर हजार बारह सौ फुट की दूरी पर स्वागत-मंच बने हुए हैं, जिस पर भियाजी के पट्ठे दो क्विंटल फूलों के साथ तैनात हैं। सारा मार्ग बड़े बड़े पोस्टरों से अंटा पड़ा है। सबमें  जीवित और दिवंगत राष्ट्रिय  नेता भियाजी के साथ उनका समर्थन करते दिखाई दे रहे हैं। मंचों पर उनके पोस्टरों का जलवा अलग है। इनमें भियाजी सीना ताने, मुक्का बांधे, मां-भैन एक कर देने की मुद्रा में मौजूद हैं। ये खासतौर पर उनके विरोधियों के लिए हैं जो कल अखबार में उनकी फोटो देखने वाले हैं।
प्रतिमा के आसपास की भीड़ भगवान की जै-जै कर रही है ताकि उन्हें भ्रम बना रहे, शेष भियाजी की जै-जै कर रहे हैं कि उन्हें भी भ्रम बना रहे। उन्होंने एक युवा-सेना भी बना रखी है जो इस वक्त लाल टी-शर्ट में दिखाई दे रही है। वे सबसे आगे नारे लगाते चल रहे हैं कि जो भियाजी से टकराएगा, उसका ऐसा-वैसा हो जाएगा। यह भी कि जब तक सूरज चांद रहेगा, उससे ज्यादा भियाजी का मंगल रहेगा। जिस भी मंच के सामने से जुलूस गुजर रहा है फूलों की बरसात हो रही है। पट्ठे फूल मालाएं भियाजी के गले में ठूंसे जा रहे हैं और वे बराबर गधे की तरह लदे-फंदे से नजर आ रहे हैं। लेकिन मजे की बात यह है कि उन्हें मजा आ रहा है, वे छा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि यदि कहीं स्वर्ग है तो बस यहीं है, यहीं है। वे फूले तो पहले से ही थे अब समा भी नहीं रहे हैं। कल से वे सोए नहीं हैं लेकिन चेहरे सुस्ती नहीं है। सारा माहौल उनके पक्ष में फुदक रहा है। प्रतिमा अगर प्रतिक्रिया दे पाती तो पता चलता कि वह कितनी खिन्न और लाचार है। उसे लग रहा है कि शक्ति भगवान में नहीं भियाजी में है और वे  प्रतिमा को अपराधी की तरह बांधे सजा देने के लिए जा रहे हैं।
जुलूस के पीछे बहुत कुछ छूट रहा है। फूल जो भियाजी के चरणों में फेंके गए थे, अब भीड़ द्वारा रौंदे जाने के कारण गन्दगी की श्रेणी में थे। पूरे रास्ते पर पानी के खाली पाउच और इसी तरह का बहुत सा कूड़ा-कचरा बिखरा पड़ा था। इससे ज्यादा कचरा पोस्टरों के रूप में उपर टंगा हुआ था। नारे लिखी हुई दीवारे भी शिकायत करती नज़र आ रही थी। लोगों के मन में बहुत कुछ भरा है लेकिन निकल कुछ नहीं रहा है, मुंह सबके एयर टाइट हैं। वहीँ कहीं एक वैद्यराज अपने रोगी से बोल रहे थे कि बीमारी तब तक खत्म नहीं होती जब तक कि उसकी जड़ को खत्म नहीं किया जाए।

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बुधवार, 24 सितंबर 2014

मैं एक सफाई पसंद नागरिक

                     दूसरे अगर लग कर मेहनत करें तो मैं एक सफाई पसंद नागरिक हूं। अब आपसे क्या छुपाना, खुद मुझसे मेहनत होती नहीं, यदि होती तो भी मैं करता नहीं। कारण ये हैं कि खुद काम करने की ना मेरी आदत है और ना ही संस्कार, लेकिन सफाई-पसंद हूं तो हूं। आदत और पसंद में थोड़ा टकराव जरूर है पर उम्मीद है आप इसे माइंड नहीं करेंगे। रिक्वेस्ट के बावजूद माइंड करो तो करो, मुझ पर कोई असर होने वाला नहीं है। मेरा काम सफाई को पसंद करना है वो मैं करता रहूंगा।
                   घर में काम वाली बाई आती है। सफाई उसका काम है, मैं पैसे देता हूं काम के। इसलिए मेरे मन में उसके काम के प्रति कोई आभार-वाभार नहीं है, पर मुझे सफाई पसंद है। साफ कपड़े पहनना मेरी प्रथमिकता है, अक्सर झक्क सफेद कपड़े पहनता हूं। कपड़े धोबी धोता है, जाहिर है उसके काम को लेकर मेरे मन में कोई आदर भाव नहीं होता है,  उसका काम है भई,  काम के मैं पूरे पैसे जो देता हूं। मेरा महत्वपूर्ण योगदान यह है कि मैं सफाई पसंद हूं। मेरे वाहन को धोने के लिए रोज एक आदमी आता है, एक माली है जो बागीचा साफ करता है। टायलेट मुझे एकदम साफ और चमकीला चाहिए। एक व्यक्ति बरसों से, बल्कि यों कहना चाहिए कि पीढ़ियों से हमारे यहां यह काम करता आ रहा है। मैं उसे कुछ पैसों के अलावा फटे-पुराने कपड़े भी देता हूं। आप पूछेंगे किसलिए,  तो साफ है कि मैं सफाई पसंद हूं।
                  आपकी जानकारी के लिए बताउं,  मैं रोज सुबह साढ़े सात बजे स्नान कर लेता हूं और इसमें किसी की धेला-भर सहायता नहीं लेता हूं सिवा इसके कि कोई पानी गरम कर दे,  तौलिया और चड्डी बाथरूम में लटका दे,  साबुन-कंघा-तेल रख दे, हर रविवार शेम्पू का पाउच काट कर सामने रख दे और रिमाइंड करा दे कि शेम्पू रखा है। बस। इसके अलावा कुछ नहीं। पत्नी ये काम बिना पैसा लिए,  बिना किसी दबाव के खुद ही कर देती है। संस्कारवश । वो बहुत सारे काम, यानी घर के करीब करीब सारे ही काम करती है। सफाई से खाना बनाती है,  सफाई से परोसती है। अगर मैं सफाई पसंद नहीं होता तो वो क्यों करती ये सब। उसे पागल कुत्ते ने तो काटा नहीं,  न शास्त्रों में कहीं लिखा है और ना ही मायके वालों ने कह कर भेजा है कि जा अपने पति को रोज नहाने-खाने के लिए प्रेरित कर। मैं खुद देश  का सफाई पसंद नागरिक हूं और अपनी आत्मप्रेरणा से रोज नहाता हूं। बीच बीच में कभी नागा होता भी है तो उसका कारण सरकार का जल-बचाओ अभियान होता है। अच्छे नागरिक का कर्तव्य है कि वो सरकार की हर योजना का यथाशक्ति समर्थन करे।

                          अब आइये घर के बाहर का भी कुछ बताते चलें आपको,  वरना कहोगे कि अधूरी जानकारी दी। घर से निकलते ही पेड़ के नीचे बैठे परंपरागत पादुका-सेवक से मैं अपने जूते पालिश  करवाता हूं। इतने चमकवाता हूं कि कोई चाहे तो उसमें देख कर कंघी कर ले। दफ्तर में पहुंचता हूं और सबसे पहले देखता हूं कि चपरासी ने सफाई ठीक से की है या नहीं । एक बात बता दूं कि हमारा चपरासी सफाई तो बढ़िया ही करता है। लेकिन मैं खनदानी सफाई पसंद हूं,  इसलिए मेरी नजर वहीं पड़ती है जहां जरा सी भी सफाई छूट गई हो। ऐसे में एक क्लासिक हंगामा तो बनता ही है। दफ्तर को सिर पर उठा लेता हूं, खूब चिल्ला लेता हूं। इससे मेरा एक्सरसाइज का कोटा पूरा हो जाता है। साथ ही लोगों में मेरी यह धाक भी जम जाती है कि साहब बड़े सफाई पसंद हैं। मेरा ख्याल है कि आप प्रभावित हो चुके होंगे मुझसे। प्रधानमंत्री जी को बताइयेगा, कि देश  में एक नागरिक है सफाई-पसंद। उनके पास मौका है, चाहें तो इस बात पर एक पद्मश्री दे दें। 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

साहित्यसेवी दीमकें


                 एक समय ऐसा आ गया जब स्वयं सिद्ध बड़े रचनाकार शब्देश्वर  अपनी दीमक चाट रही किताबों के लिए इतने चिंतित हो गए कि उन्हें अनिंद्रा का शिकार हो जाना पड़ा। रात रात भर वह और दीमक साथ साथ जागते हैं और किताबों के आसपास बने रहते हैं। रात्रि के तीसरे प्रहर में, जिसे विद्वान लोग प्रायः ब्रह्मम मुहुर्त वगैरह कुछ कहते हैं, उन्हें रोना आने लगता है। ऐसे में उन्हें कबीर याद आते हैं, -‘‘दुःखिया दास कबीर, जागे और रोवै। सुखिया सब संसार, खावै और सोवै।’’ उन्हें समझ में नहीं आया कि जब कबीर के पास किताबें नहीं थीं तो दीमक की परेशानी कैसे रही होगी !! उन्हें लगा कि कबीर के दुःखिया होने का कारण अवश्य ही खटमल रहे होंगे। अच्छा है कि उनके अपने घर में खटमल नहीं हैं और वे कबीर होने से बालबाल बच गए हैं। वरना इस बुढ़ापे में कहीं बैठे झीनी चदरिया बुनना पड़ती फोकट में। इधर उनके घर के सारे लोग खा-पी कर सो रहे हैं मजे में। साम्यवादी शब्देश्वर किसी को खाते देखते हैं तो उन्हें भी भूख लगने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। काफी देर से जागते और दीमक को खाते देख खुद भूखे हो चले हैं, कमबख्त गांधीवादी दीमकें लगातार खाए जा रही हैं। राजनीति में कोई हरकत नहीं होने के बावजूद खाना या ‘चाटजाना’ दीमक का काम है। कोई जागरुक सिरफिरा जनहित याचिका लगा दे तो विद्वान न्यायाधिपति को अपने फैसले में कहना ही पड़ेगा कि उन्हें खाने दो, खाना और ‘चाटजाना’ उनका हक है, चाहे किताबें हों या कुछ और। देखने वाली बात ये है कि उनके सामने विकल्प हो तो वे किताबों को प्राथमिकता से चुनती हैं। मनुष्य उनके पुस्तक-प्रेम  को गंभीरता से ले यह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन देखिए, कितने षरम की बात है कि आदमी के सामने जूता और किताबें रख दो तो वह जूता पहन का भाग जाएगा, लेकिन किताब उठा कर नहीं देखेगा। 
                      दूसरे दिन शब्देश्वरजी ने दीमक-विशेषज्ञ को बुलवाया। संयोग से वह भी जन्मजात कवि था। उसने बताया कि अगर दीमक कविताएं सुन पातीं तो वह सबको एक रात में ही मार डालता, लेकिन अफसोस, ईश्वर  ने सब प्राणियों को अपनी रक्षा के लिए कुछ न कुछ दिया है, वे बहरी हैं। शब्देश्वर भाईसाब ईश्वर  बड़ा चालाक है। शब्देश्वर को उसकी बात अच्छी नहीं लगी, बोले-‘‘ ईश्वर  चालाक नहीं दयालू है। देखो जिस आदमी को आज भी शब्दों का ठीक से ज्ञान नहीं है वह जमाने भर में शब्देश्वर है। कागज कलम ले कर बैठता हूं तो पता नहीं कहां से शब्द आते जाते हैं फरफर फरफर, अपने आप। बोलो, इसे क्या कहोगे तुम ?’’ 
वह बोला - ‘‘शब्द आपके जींस में हैं शब्देश्वर। आपको पता नहीं, जो दीमकें साहित्य की किताबें चट करती हैं वो आगले जन्म में कवि बनतीं हैं। देख नहीं रहे हैं कि गली मोहल्लों में बांबियां भरी हैं कवियों से। पिछले जनम का चाटा हुआ अपना असर रखता है। साहित्य के साथ पुनर्जन्म होता है दीमकों का। आप चाहें तो इसे संस्कार वगैरह कह सकते हैं। अगर आपकी मंशा  है कि साहित्य सचमुच अगली पीढ़ी में जाए तो दीमकों के प्रति दुर्भाव मत रखिए। आज जो दीमकें आपकी किताबें चाट रही हैं वे ही कल, यानी उनके अगले जन्म में समाज के सामने इन्हें प्रस्तुत करेंगी। आपको पता ही है कि साहित्य का मूल्यांकन कवि के जीते जी नहीं होता है, उसे समय जांचता है और आप विचार करके देखिए कि समय और दीमक में कोई अंतर नहीं है। साहित्य के मामले में दीमक को मारना अपने समय को मारना है।’’
              शब्देश्वर कुछ देर खामोश  और गंभीर बने रहे, फिर बोले, -‘‘ कल भोजन पर आइयेगा, मैं दीमकों का श्राद्ध करना चाहता हूं ।’’                    ---

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

दाढ़ी राखिए, और न राखिए कुछ

               यों उनकी उम्र ‘बाऊजी’ लायक नहीं है लेकिन लोगों के बीच कहाते बाऊजी हैं। अभी भी कहीं कहीं ऐसे आदमी को लोग बाऊजी कहने लगते हैं जो जरा सा भी पढ़लिख गया हो, भले ही वो बेरोजगार हो। बाबूगिरी से बाऊजी का कोई संबंध नहीं है। आपके हमारे जैसे आदमी उस वक्त आहत हो सकते हैं जब कोई सुन्दरी भरी सभा में ‘बाऊजी’ का भाटा मार दे, लेकिन बाऊजी पक्के बाऊजी हैं, उन्हें कुछ नहीं होता। दिनभर में उन्हें जितना भी बाऊजी मिलता है सब झोले में भर कर ले आते हैं। जैसे कई लज्जाहीन और ढीठ किस्म के सुबह घुमने निकलते हैं और घर घर फूल चुराते थैली भर कर लौटते हैं। कोई मना कर दे, डांट दे या जूता ही उठा कर मार दे तो भी वे बुरा नहीं मानते हैं। हां, जवाबी कार्रवाई में वे अगले दिन आधा घंटा पहले सैर पर निकलते हैं और दुगनी फूलखोरी के साथ लौटते हैं। 
              बहरहाल, बात बाऊजी की चल रही थी। एक दिन हमने उनसे पूछा कि आपको अंदर से कैसा लगता है जब कालोनी के बाऊजीलोग भी आपको ‘बाऊजी’ बोलते हैं ! 
               वे बोले - ‘‘ साहस उनका है, यह सवाल आपको उनसे पूछना चाहिए। लेकिन आपकी जिज्ञासा सही है। हम भी सोच रहे हैं कि बाऊजी का मान रखने के लिए हमें कुछ करना चाहिए। ’’
                 ‘‘ चलिए देर आए दुरुस्त आए। क्या करने का विचार है ? ’’
               ‘‘ सोचते हैं कि दाढ़ी रख लें। रोज रोज शेविंग का झंझट भी मिटेगा और नहीं जानने वालों को सुविधा हो जाएगी, वे एक झटके में हमें वरिष्ठ साहित्यकार भी समझ लेंगे। क्या कहते हो ? आइडिया कैसा है ?’’
                  ‘‘ आइडिया तो जोरदार है पर आप लिखते तो हैं नहीं !’’
                 ‘‘ हैं तो हम बाऊजी भी नहीं, पर लोग कहते और मानते हैं। साहित्यकार-टाइप दिखने लगेंगे धीरे धीरे लोग अपने आप साहित्यकार समझने-कहने लगेंगे। असल बात टाइप होना है। जैसे पहले कोई नेता नहीं होता है लेकिन हरकतें नेता-टाइप करता है तो लोग  उसे नेता मानने लगते हैं। टीशर्ट-जींस पहनने की उम्र में किसीको  को कुर्ता-पजामा पहन कर बांह चढ़ाना पड़ती है तो किस गरज से ? अगर आप पंडित-पुजारी टाइप रहने लगो तो लोग अपने आप ‘पाय-लागी’ बोलने लगेंगे, कोई संस्कृत का एक श्लोक  नहीं पूछेगा।’’ जवाब में बाऊजी ने लंबा भाषण दे दिया।
                    ‘‘ फिर भी किसी ने पूछ लिया कि इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं तो क्या जवाब देंगे !’’
                    कुछ देर का विराम ले कर वे बोले- ‘‘ देखो भाई, सारे सवालों का स्वाभाविक उत्तर दाढ़ी होती है। आज दुनिया कबीर या गालिब को किसी और चीज से नहीं, दाढ़ी से पहचानती है। आपने किसी दाढ़ी वाले से पूछा कि आप विद्वान हो, साधु-संत हो, नेता हो, मंत्री हो, या जो हो उसका कोई प्रमाण दोगे ? नहीं ना ? अब तो दाढ़ी देख कर जनता कुर्सी तक दे देती है। सदियों से प्रजा को दाढ़ी पर भरोसा है। .... फिर भी तुम्हारा प्रश्न  बेकार नहीं है। एक बार दाढ़ी ठीक से बढ़ जाएगी तो हम कुछ कविताएं भी बटोर लाएंगे। बहुत से हैं जो बिना दाढ़ी के कविताएं लिख रहे हैं और उन्हें कोई कवि नहीं मानता है। चलिए दो लाइन से हमारा लोहा भी मानिए -
                                          बाऊजी दाढ़ी राखिए, और न राखिए कुछ।
                                           बाढ़े दाढ़ी जग पूजे, और न देखे कुछ ।।  
                                                                 -------

सोमवार, 1 सितंबर 2014

गिरवीघर में विचार

              वैसे चीजों को गिरवी रखने का धंधा हमारे यहां यानी भारत में पुराना है लेकिन इनदिनों जबसे टीवी पर ‘पाॅन स्टार’ आया है, इस काम का बहुत विस्तार हो गया है। राजधानी में चल रहे गिरवीघर ‘पटेल पाॅन स्टोर’ में विनोदकुमार बोस पहुंचे।
              ‘‘ जी, मैं आपकी क्या सेवा कर
सकती हूं ?’’ गिरवीघर में कदम रखते ही स्वागत्-सुकन्या ने पूछा। सुन कर विनोदकुमार सोच में पड़ गए। संकोच के साथ बोले,-‘‘कुछ विकल्प बताएं तो मुझे सुविधा होगी।’’
                ‘‘जी अवश्य , ... क्या मैं जान सकती हूं कि आप यहां कुछ खरीदने आए हैं, बेचने या गिरवी रखने ?’’
                  ‘‘मेरे पास कीमती विचार हैं, वैसे तो गिरवी रखना चाहता हूं, लेकिन अच्छी कीमत मिलेगी तो बेच दूंगा।’’
                  ‘‘ठीक है, आप उस तरफ मिस्टर पटेल के पास चले जाइये, पीले काउन्टर पर।’’
                विनोदकुमार बोस अब पटेल के सामने थे, बताया कि ‘‘मेरे पास कुछ विचार हैं, ..... काफी पुराने हैं। कीमती भी हैं, देखिए इन पर मार्क्स की छाप है, लेनिन और माओ के सिग्नेचर भी इसमें हैं। किसी समय भारत में इनकी बड़ी कद्र थी। ... ये अभी भी अच्छी हालत में हैं, सही आदमी मिल जाए तो काम आ सकते हैं। ’’ 
                  ‘‘ हूं ....., आपके पास ये विचार कहां से आए ?’’ गंभीर हो चुके पटेल ने पूछा। 
                  ‘‘ ऐसा है कि पुराने टाइम में, मेरा मतलब है कि ब्रिटिश  टाइम में मेरे दादाजी बड़े कवियों और लेखकों के साथ काफी हाउस में बैठा करते थे। वहीं से उन्हें संपर्कों के कारण मिले। बाद में पिताजी ने इन्हें बहुत समय तक वापरा, उसके बाद अर्से से मेरी अलमारी में पड़े हैं। अब मेरे किसी काम के नहीं हैं इसलिए ......।’’ विनोद कुमार ने तफसील दी।
                   ‘‘ ओके..., आप इनका क्या करना चाहते हैं, गिरवी रखना है या बेचना चाहेंगे ?’’
                    ‘‘ चहता तो था गिरवी रखना पर अच्छी कीमत मिल जाए तो बेच दूंगा।’’
                    ‘‘ कितना एस्पेक्ट कर रहे हैं आप ?’’
                  ‘‘ देखिए ये बहुत कीमती विचार है। इन विचारों से देश-विदेश में कई सरकारें बनी हैं और चलीं भी हैं। इस हिसाब से कीमत करोड़ों में होना चाहिए लेकिन मैं मात्र पांच लाख ले लूंगा। ’’ विनोदकुमार ने अपना प्रस्ताव दिया।
                    ‘‘ पांच लाख !! ये सोचा भी कैसे आपने !?! विचारों की इतनी कीमत अब कहां रह गई है !?’’
                  ‘‘ इसका अतीत देखिए मिस्टर पटेल, अगर आप इसके इतिहास पर गौर करेंगे तो आपको ये कीमत ज्यादा नहीं लगेगी।’’ 
                ‘‘ देखिए मेरे पास गांधी-विचार पड़े हैं, समाजवादी -विचार हैं, सर्वोदयी-विचार भी पड़े हैं लेकिन आजकल इनको पूछने वाला भी नहीं आता है। सच कहूं तो मार्क्स  की फटी कमीज या घिसे जूतों के ग्राहक मिल सकते हैं लेकिन विचारों के नहीं। साॅरी, .... मैं इसे नहीं खरीद पाउंगा।’’ पटेल ने विवशता बताई।
                  ‘‘देखिए आप पुरानी चीजों को खरीदने-बेचने का व्यवसाय करते हैं और आपकी ख्याति दूर दूर तक है। मैं सोचता हूं कि इसकी कद्र करने वाले आपके पास जरूर पहुंचेंगे। .... चलिए पचास हजार दीजिए।’’ विनोदकुमार ने नया प्रस्ताव किया।
                ‘‘ काॅमरेड आप हमारे महत्वपूर्ण ग्राहक हैं। पहले भी आप जैसे एक सज्जन कुछ सिद्धान्त गिरवी रख गए थे, न उन्होंने छुड़वाए और न ही आज तक बिक पाए हैं। अगर जरा भी संभावना होती तो मैं आपको निराश नहीं करता।’’
                    " चलिए पांच हजार दीजिये, मैं भी आपको निराश नहीं कर सकता हूँ । " विनोदकुमार ने उदारता  बताई। 
                       " बेहतर होगा आप इन्हें अपने पास ही पड़ा रहने दें। " पटेल राजी नहीं हुए। 
                  विनोदकुमार की चिंता बढ़ गई, उन्हें हमेशा  से लगता रहा था कि उनके पास बहुत कीमती चीज है लेकिन !! ..., बोले -‘‘ पटेल जी , दरअसल मुझे विकास की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका मिल रहा है। उन्होंने कहा है कि वे सबका सहयोग लेंगे, सबको साथ लेकर चलेंगे। लेकिन सुना है कि पहले नार्को टेस्ट करेंगे, अगर कहीं इन विचारों के सिग्नल मिल गए तो दिक्कत हो सकती है। मैं इनसे पूरी तरह मुक्त होना चाहता हूं। .... अब मना मत कीजिएगा,  आप केवल पांच सौ दीजिए। ’’
                 ‘‘ साॅरी, आपको जान कर अच्छा नहीं लगेगा कि अब इन विचारों को स्टोर में रखना कितना जोखिम भरा है।’’
                  ‘‘ चलिए पांच दीजिए .... अब आप कुछ नहीं बोलेंगे। आपको गणेशजी की कसम।’’
                  इसबार पटेल कुछ नहीं बोले, चुपचाप पांच का सिक्का निकाल कर उनकी हथेली पर रख दिया।
                    विनोदकुमार प्रसन्न हो गए-‘‘ थैंक्यू मिस्टर पटेल, अब मैं मुक्त हुआ। वंदे .....वंदे .... वंदे ....।’’
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