गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

मुसीबत में नेकरिया दोस्त लल्लू बाबू


 


देखो भाई आगे कोई बातचीत करें उससे पहले एक बात साफ हो जाए, समझिये कि वैधानिक चेतावनी है । आजकल किसी के हाल भी पूछ लीजिये तो वह राजनीतिक माहौल बताने लगता है । कुछ दिन हुए डाक्टर राउंड  पर आये और मरीज से पूछा – कैसा लग रहा है आज ? मरीज दिनभर पड़े पड़े टीवी से खुरक ले रहा था, बोला अच्छा लग रहा है, आएगा तो मोदी ।  डाक्टर ने याद दिलाया कि – अपने हाल बताइए, आप बीमार हैं । वे बोले -  मैं नहीं विपक्ष बीमार है , मैं तो देशभक्त हूँ, वोटर हूँ और बड़े मजे में हूँ ।  बाज़ार में आटा-दाल महंगे होने की शिकायत कीजिये तो दुकान वाला बोलता है पाकिस्तान में दस गुना ज्यादा महंगाई है । वह अगले वाक्य में पाकिस्तान जाने का कहे इससे पहले ग्राहक आटा तुलवा लेने में ही भलाई समझता है ।  देश को जब मिलेगा तब मिलेगा, इधर घर में जो तानाशाह है उसका सात जन्मों तक कोई इलाज नहीं है । इनका एनआरसी हर समय लागू रहता है । महीनों तक पीछे पड़ी रहीं कि कसम खा कर बताओ पिछली बार किसको वोट दिया था ! बताता हूँ, कसम खाता हूँ लेकिन भरोसा कहाँ से लाऊं ये गंगाराम को समझ में न आये ! इस बार कह रहीं हैं कि गंगाजल हाथ में ले कर जाना और झूठ मत बोलना कि वोट किसको दे कर आये हो !  

खैर छोडिये, हम तिनके, हवा के विपरीत भला कैसे जा सकते हैं । बात लल्लू बाबू की बताना थी ।  लल्लू बाबू हमारे बचपन के दोस्त हैं, करीब करीब नेकरिया ।  करीब करीब इसलिए कि हम दो थे लेकिन हमारे बीच एक ही लाल नेकर थी । नदी में नहाते वक्त जो बाहर होता था वह पहन लेता था । पानी के अन्दर वैसे भी नेकर का क्या काम ! डुबकी मारते ही मछलियाँ शरम के मारे अपनी आम्मा की ओट हो जाती थीं । लल्लू केरेक्टर का लूज नहीं था लेकिन गृहदशा ऐसी थी कि जिंदगी भर मछलियां उसके पास नहीं आयीं, उससे डरती रहीं । एक दो बार ऐसा हुआ कि लगा जैसे हाथ लग गई  । लेकिन दूसरे ही पल फट्ट  से फिसल गयी । मछली के मामले में आदमी सोचता कुछ है और होता कुछ है । धीरे धीरे हम बड़े होने लगे और लाल नेकर छोटी होती गयी । बाद में उसके पांयचों से दो सुन्दर थैलियाँ बनी जिसमें अम्मा पूजा सामग्री रखने लगीं । आज भी पूजाघर में उन्हें देख कर नदी याद आ जाती है ।

हम और बड़े हुए, कालेज के दिनों की बात है । लल्लू बाबू को किस्मत पर उतना ही भरोसा था जितना लोगों को सरकार पर होता है । सोचा कि शादी में जो भी मिल जाएगी उसके साथ निर्वाह कर लेंगे, वो पारो बने या चंद्रमुखी, बना लूँगा, अपने को क्या !  देवदास की तरह पी पी कर जिन्दगी बर्बाद नहीं करूँगा । उसे मालूम था कि मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है ; हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालोगे मर जाएगी । कान घंटियों की तरह बजाते रहते – मैंने तुझे चुन लिया तू भी मुझे चुन चुन ...  । शुरू शुरू में उसे लगा कि मछली ही तो है । सबको यही लगता है जो जो फंसते हैं, कोई नयी बात नहीं है । कुछ साल गुजरे, लल्लू की मछली मगरमच्छ होने लगी । लल्लू अंध-प्रेमी, उसने सोचा कि भाग्य में मगरमच्छ लिखी है तो वो भी चलेगी । अपने को क्या खतरा ! मगरमच्छ होने के बावजूद करवा चौथ का व्रत तो उसे ही रखना है  । बताने वाले बता गए लम्बी, मोटी, काली, नाटी के क्या क्या फायदे हैं । लेकिन मगरमच्छ हो कर भी बहुत सुन्दर लगती है यह वही बता सकता है जिसके नाम का सिन्दूर वह मांग में भरती है । खासकर जब वह अपने असंख्य दांतों के जरिये मुस्कराती हैं तो वातावरण में मानो कैमरों की तमाम लाईट चमक उठती है । एक चुटकी सिन्दूर की कीमत किसी ऐरे गैरे रमेश बाबू को भला कैसे पता चल सकती है !! उसके नाम का मंगलसूत्र भी मगरमच्छ ने गले में डाल रखा है । लल्लू बाबू की आँखें खुल रही हैं और अब वह छूटना चाहता है । लेकिन आजकल वह बोल रही है – ‘तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी गैर को चाहोगे तो मुश्किल होगी’ ।

मशविरे के लिए लल्लू बाबू बैठे हैं । बताइए इस मामले में हम क्या मदद कर सकते हैं ! किसी ज़माने में नेकर देकर उनकी इज्जत बचाई , लेकिन तब की बात अलग थी । अब नदी में पानी नहीं है और न वो नेकर है लाल वाली ।

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बुधवार, 3 अप्रैल 2024

डंडे का जादू


इस बात को साफ कर देना उचित होगा कि पहले भी असुर सत्ता में आते रहे हैं । हमारी किताबें, कथाएं, ग्रन्थ वगैरह राक्षस राजाओं की कहानियों से भरे पड़े हैं । असुरों का कुशासन कोई नयी बात नहीं है । जब भी मौका मिलता है वे सत्ता में आ जाते हैं । लोकतंत्र की व्यवस्था असुरों को सत्ता से दूर रखने के लिए भी  बनायी गयी थी ।  लेकिन सब जानते हैं कि चौकीदार और पुलिस रखने के बावजूद चोरियां होती रहती हैं । प्रायः सिस्टम का पेंदा पतला होता है । नहीं होता है तो भी उसमें सूराख बना लिए जाते हैं । चौकीदार तो चतरा होता है । ‘जागते रहो’ की आवाज मारते रहना ही उसका काम है । वह जानता है कि डर ही चौकीदारी को बनाये रखने की पहली शर्त है । डरे हुए लोग चौकीदार के हाथ में लाठियां और बन्दूक देख कर अपने को सुरक्षित समझते हैं । खैर, पुरानी बात करते हैं ।

बहुत पहले एक असुर द्वीप था । वहां एक महात्माजी पधारे तो सीमा पर ही सिपाहियों ने उनके चरण पखारे, कहा- ‘महात्माजी, द्वीप में असुरों को नियंत्रित करना कठिन हो रहा है । उनकी उद्दंडता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है । कृपया कोई तगड़ा सा आशीर्वाद दीजिए, हम दीन-हीन सरकारी चाकर, करें तो डांटें जाएं, न करें तो फटकार पड़े । कोई जादू की छड़ी दीजिए जिसको घुमाते ही असुर ठीक हो जाए ।‘

 महात्मा जानते थे कि सिपाही जादू की छड़ी क्यों मांग रहे हैं । इन आलसी मोटों को अपनी तौंद से प्रेम होता है । डंडे का वजन सम्हालने में कठिनाई होती है । बोले- ‘तुम्हारा काम हो जाएगा सिपाहियों, परंतु पहले कुछ शंकाओं का समाधान करो । ये बताओ कि तुम असुरों से सांठ-गांठ क्यों रखते हो । ’

 सिपाही लगभग रोते हुए बोले- क्या करें महात्माजी, राज असुरों का है, उनकी नहीं सुनेंगे तो चलेगा कैसे ! बात बात में फटकार, धमकी, तबादला या सस्पेंशन हो जाता है । हम भी बाल-बच्चेदार हैं, लाचार हैं ।

महात्मा बोले- सुना है असुरों से पैसा वगैरह भी लेते हो और बदले में छूट देते हो !

सिपाहियों की नजरें झुक गई, घिघियाते हुए बोले- विवशता है जी, छूट तो वे ले ही लेते हैं । मंहगाई हम लोगों के लिए भी उतनी है जितनी औरों के लिए । द्वीप वाले हमें सामान तक उधार नहीं देते हैं । हमें भी अपने बच्चों को पढ़ाना-लिखाना है, वेतन कम पड़ता है सो ले लेते हैं .... ।

‘‘’फिर तो तुम्हें उनसे शिकायत नहीं होना चाहिए । ’ महात्मा बोले ।

 सिपाही चरणों में गिर गए- ‘ महाराज, हम असली चाकर, जो भी मांई-बाप होता है उसी की हजूरी करना पड़ती है । समझ में नहीं आता कि हम सिपाही हैं या असुर द्वीप की नगरवधुएं ! आप तो जादू की छड़ी दे दो महाराज, वरना हम भी किसानों की तरह फंदा चूम लेंगे , फिर आप ही कहोगे कि ये क्या किया !’

आखिर महात्माजी पिघले- “सिपाही भक्तों , अपने पद और कार्य पर गर्व करो । तुम्हारे हाथ में जादू की छड़ी नहीं डंडा है । इसका जादू तभी दिखाई देगा जब तुम दबंगों पर इसका प्रयोग करोगे । बेबस गरीबों पर प्रयोग करोगे तो डंडा बोझ हो जाएगा । उठो, डंडा उठाओ और इसके जादू को महसूस करो । जाओ । “

बाहर निकल कर सिपाहियों को लगा कि महात्मा जी ने दिया तो कुछ नहीं, उल्लू बना दिया । डंडे में जादू तभी हो सकता है जब उसका नियंत्रण भी हमारे पास हो । हाथ हमारे हैं, डंडा हमारा नहीं है । चिढ और गुस्से में एक सिपाही ने सड़क किनारे बैठे कुत्ते को डंडा मार दिया । दूसरा बोला – अरे इसे क्यों मार दिया ! अगर पशु अधिकार वालों को पता चल गया तो तेरे बचे अधिकार ख़त्म होने में देर नहीं लगेगी । ... घबराया सिपाही कुत्ते को सॉरी बोलने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ा ।

 

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शनिवार, 30 मार्च 2024

2024 - एक लव स्टोरी


 




टायगर और गीदड़ी लिवइन में रह रहे थे । गीदड़ी ने कई बार कहा कि अब शादी कर लेते हैं । लेकिन टायगर नहीं माना । उसे डर था कि कहीं वह शादी के बाद गीदड़ न हो जाए । न हो वह गीदड़, अगर गीदड़ी टायगरन हो गयी तो भी दिक्कत हो जाएगी । जात पांत और विचारधारा भी अलग होने के बावजूद गीदड़ी से उसका प्यार परवान चढ़ा था । यों तो जंगल वाले किसी टायगर पर भरोसा नहीं करते हैं लेकिन गीदड़ी जिगरे वाली है । कहती है प्यार किया तो डरना क्या ! अब  सर फूटे या माथा ... मैंने तो हाँ कर ली । बस इसी बात पर वह फ़िदा था । वह शहर भी जाती थी । कहते हैं कि गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर जाता है । लेकिन वह नयी सोच वाली, अन्धविश्वास से दूर और जांबाज़ है ।

पिछले दिनों गीदड़ी जब जब भी शहर से लौटी तो अपने टायगर के लिए कुछ समोसे लेकर आई । यूनो, मादाएं कोई भी हों वे प्रायः अपनी भावनाएँ अलग और सुन्दर ढंग से व्यक्त करती हैं । टायगर को समोसों का ऐसा स्वाद लगा कि वह आएदिन गीदड़ी को शहर भेजने के बहाने ढूंढते रहता । ज्यादा समय नहीं लगा, टायगर चटोरेपन की चपेट में आ गया । शिकार की उसकी आदत जाती रही । गीदड़ी के कारण उसके दिन समोसानंद में गुजरने लगे ।

इस जंगल के लोग भी मानते हैं कि ‘समय कह कर नहीं आता है’ । एक बार गीदड़ी शहर गयी तो लौटी नहीं । टायगर जंगल-टीवी देखता इंतजार करता रहा । हत्या, बलात्कार, यातना की कैसी कैसी तो खबरें आती हैं, सुन ले तो जंगल वाले अपनी लेडिज को शहर भेजने से पहले दस बार सोचें । वह पछताया कि उसने अपनी गीदड़ी को समोसों के लिए शहर भेज दिया ! अगर वह किसी गीदड़ से प्यार करती तो शायद वे दोनों साथ साथ शहर जाते और गोलगप्पे खाते । इधर वह राजा होने का मुगालता पाले खुद जंगल में पड़ा रहा और उसे शहर की आग में झोंक दिया । इन विचारों के चलते उसे भूख भी लग रही थी । गीदड़ी से ज्यादा उसे समोसे याद आने लगे । ऐसा होता है सबके साथ । लोग कहते हैं कि वे डाकिये का इंतजार कर रहे हैं, जबकि वास्तविकता ये है कि वे चिट्ठी का इंतजार करते हैं । तीन दिन हुए आखिर टायगर गीदड़ी को ढूँढने के लिए शहर आना पड़ गया ।

तीन दिन की भूख, प्यास और थकावट के कारण टायगर बेदम हो रहा था । बेबसी के इस आलम में एक टीवी पत्रकार ने उसे देख लिया और उस पर झपटा । माईक उसके मुंह में अड़ा कर पहला समसामयिक सवाल मारा, -  क्या किसी पार्टी से आपको सदस्यता का पक्का आश्वासन मिल चुका है ?

टायगर ने कहा – नहीं ।

दरअसल गीदड़ी ने एक बार बताया था कि जब वह प्रेस वालों के बीच फंस जाती है तो एक सवाल का जवाब “नहीं”  और दूसरे का “हाँ” में देती है । टायगर को उसकी सीख याद आ गयी ।

“तो क्या आपका मोहभंग हो गया है जंगल वालों से ?” दूसरा सवाल ।

“हाँ” ।

“क्या अब आप राजनीति से सन्यास ले रहे हैं ?”

“नहीं “ ।

“तो क्या यह मान लिया जाये कि किसी पार्टी के अध्यक्ष से आपकी बात चल रही है ?”

“हाँ” ।

“पार्टी का नाम आप नहीं बता रहे हैं तो ये बताइए कि आप गोमांस खाते हैं ?

“नहीं” ।

“झूठे वादे करना जानते हैं ? लम्बी लम्बी छोड़ लेते हैं ?”

“हाँ” ।

“कभी कोई लज्जा, शरम, अपराधबोध होता है ?”

“नहीं “ ।

“भ्रष्टाचार के बारे में सुना होगा ? कर लोगे ?”

“हाँ “ ।

“बेरोजगारी के बारे में कुछ पता है ?”

“ नहीं । “

“एक फोटो ले लूँ ?”

“हाँ हाँ “ ।

“कुछ कपड़े-वपड़े पहनना है ?

“नहीं” ।

“शीर्षक लगाऊंगा ‘राजनीति में नंगा टायगर’ । चलेगा ?”

“हाँ “ ।

टीवी पत्रकार फोटो ले कर चला गया । जाते जाते बोला कि मुझे पता चल गया है कि किधर से आये हो और किधर जा रहे हो । बधाई हो, कल कुर्सी मिल जाए तो याद रखना ।

टायगर को गीदड़ी का पता चाहिए था । सोच रहा है कि काश शहरों में टीवी पत्रकारों के साथ जटायु के वंशज भी होते । पता नहीं गीदड़ी कहाँ है, किस दुकान पर खड़ी होगी । ...... कुछ मिनिट ही हुए थे कि टीवी वाला फिर प्रकट हुआ । इस बार उसके साथ वन विभाग वाले जाल फैंकने की तैयारी में थे ।

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शनिवार, 23 मार्च 2024

प्लेट में दो काने बैंगन


 



देखिये कुंजी बाबू आप पडौसी हैं सो घर जैसे ही हुए । लेकिन आज की तारीख में देश हो या आमजन, लोगों को घर से ही ज्यादा खतरा होता है  । वो कहते हैं ना अपने ही गिरते हैं नशेमन पे बिजलियाँ । तो भईया  हम जैसे गऊ आदमी भरोसा करें तो किस पर करें । सरकार ससुरी हमारे वोट से बनती है पर कभी हमारी हो न सकी । पनेली तन्ख्वाह समझो फूटे कनस्तर में ले कर आते हैं,  टेक्स इतने तरह का हैं  कि आधी बह जाती है ! लेने वाले के हजार हाथ होते हैं । देना पड़ता है, सबको देना पड़ता है । सड़क पर चलो तो दो, कुछ खरीदो बेचो तो दो, पैदा होना मरना तो है ही खर्चीला, जीना भी बहुत महंगा है । आदमी संसार में देने के लिए ही आता है । दाता एक ‘आम’ भिखारी सारी दुनिया। 

कहने को पुलिस प्रशासन जनता के सेवक हैं और हम मालिक । लेकिन वक्त जरुरत जब इनके सामने जाना पड़ जाये तो कमर और घुठने अपने आप मुड़ जाते हैं ।  पीढ़ियों से अन्दर पता नहीं क्या भरा पड़ा है कि अपने ही कमर घुठनों पर भरोसा नहीं रहा । लेकिन सब बुरा बुरा नहीं है, कुछ अच्छा भी है । एक बेचारे गुंडे बदमाश ही हैं जिन पर भरोसा करता है हरकोई  । जो बोलते हैं वो कर देते हैं ईमानदारी से । भला करने की ठान लेते हैं तो कानून कायदे की परवाह भी नहीं करते हैं । हाँ थोडा पैसा लेते हैं, पर आज कौन नहीं लेता है ! सब कुछ बाज़ार है, कोई घोड़ा घास से यारी नहीं कर रहा है तो ये भी क्यों करें ! कायदे से आते हैं हफ्ता लेने, ये नहीं कि डाकू की तरह आये और छापा मार दिया । पिछले कुछ वर्षों में गुंडा उद्योग ने अच्छी तरक्की की है । कहते हैं पुराने समय में नेता गुंडों को पालते थे लेकिन अब जमाना नया है, स्थितियां पलट गयीं हैं । आने वाले समय में बच्चों को पढ़ाया जाएगा कि ‘लीडर एक पालतू जीव होता है ‘ । तब हो सकता है कि अगली पीढ़ी अपने लीडरों को प्यार करने लगे ।

तुम कहोगे कुंजी बाबू कि भगवान पर भरोसा रखो । तो भैया रखते हैं, एक यही भरोसा है जो थोड़ा  सस्ता पड़ता है । लेकिन जरा गौर करिये, इधर उनकी भगवानियत खुद दांव पर लगी पड़ी है । सृजनहार अहसानों तले दबे लग रहे हैं । दर्शन का टिकिट लागू है और वे बेबस दर्शक बने खड़े हैं । कल को हाथ जोड़ने, शीश झुकाने, मनोकामना, प्रार्थना, आरती वगैरह पर भी शुल्क लग जायेगा तो भगवान क्या कर लेंगे ! दुकान भले ही सरकारी हो चलाने वाले कार्पोरेटिये हैं । भगवान पहले पुजारियों के लिए कमाते थे अब व्यवसाइयों के लिए ।  दीवारों वाले मंदिर परिसरों में बदल गए । लोग तफरी के लिए आने लगे हैं । पहचान का संकट पांव पसार रहा है । पहले कभी कहा जाता था ‘मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान’ । अब मोल म्यान का ज्यादा हो रहा है । ऐसे माहौल में तुम ही बताओ हम क्या करें ! एक जमाना था जब हम आप पांच साल में अपनी पसंद के लोगों को चुन लेते थे । अब तो प्लेट में दो काने बैंगन हैं और कहा जा रहा है कि एक चुन लो ! ये चुनाव है क्या !? कुछ तो बोलो कुंजी बाबू ?

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मंगलवार, 19 मार्च 2024

ढक्कन, होली और घुइंयाराम

 




घुइंयाराम दफ्तर में डिप्टी हैं । बोलने वाले उन्हें डेपुटी साहेब बोलते हैं ।  जितने सावधान वे घुइंयाराम को लेकर हैं उतने ही डेपुटी साहेब को लेकर सचेत । लेकिन दुनिया सीधी थोड़ी है गाहे बगाहे घुइंयाराम साहेब कहने से चूकती कहाँ है । वे जलभुन के रह जाते हैं । कई बार मन होता है कि बहती गंगा में हाथ धोते हुआ अपना नाम भी बदल लें । एक बार तो नाम रख ही लिया प्रयागराज । सोचा जब लोग काशीनाथ, मथुरा प्रसाद हो सकते हैं तो अपने प्रयागराज होने से किसी को क्या !  लोग एक प्रयागराज से राजी हैं तो उसके साथ लगे लगे पार हो लेंगे अपन भी । लेकिन जिन्हें घुइंयाराम ही बोलना है वे बोलते रहे । अपने यहाँ कहते हैं मारने वाले का हाथ पकड़ा जा सकता है, बोलने वाले की जुबान नहीं पकड़ी जा सकती है ।

आज पूरा टोला आया है मोहल्ले का । सारे घुइंयाराम जी बोलते हैं, लेकिन आज बाकायदा डेपुटी साहेब से शुरुवात हो रही है ।

“क्या डेपुटी साहेब कैसा क्या ? कार अच्छी चल रही है ना आपकी ?” एक ने बात शुरू की ।

डेपुटी साहेब सुन कर घुइंयाराम को खुटका हुआ । दाल में कुछ काला है । शूर्पणखा भी बड़े सलीके से पेश आई थी राम के सामने । बोले - “ जी हाँ,  अच्छी चल रही है । दो बार राजधानी हो आया हूँ कोई दिक्कत नहीं हुई ।“

“अजी दिक्कत कैसे होगी ! नयी कार है कोई मजाक थोड़ी है । अभी लिए दिन ही कितने हुए हैं । चार पांच महीने पहले दशहरे पर ही तो ली थी ।“

“हाँ, अभी तो नयी ही है । पर पेट्रोल का बड़ा खर्चा लग गया है । आप भी देख रहे हैं महंगाई कितनी है । “

“अरे छोडिये डेपुटी साहेब आपके लिए क्या महंगाई ! वो क्या है , हम लोग आपको वादा याद दिलाने आये हैं । कार की ख़ुशी में आपकी तरफ से ढक्कन खुलना बाकी है ।“

“ढक्कन !! कैसा ढक्कन भई ? मैं कुछ समझा नहीं ।”

“आपने कहा था दीवाली के चलते अभी टाइम नहीं है तो कार की ख़ुशी में ढक्कन होली पे खोलेंगे । तो होली आ गयी , अब आपको ढक्कन खोलना है ।“

“अरे भाई लोगों गुप्ता जी यहाँ पोता हुआ है, पहले उनसे खुलवाइए ढक्कन । पोता होना बड़ी बात है । ज़माने की हवा देखो आजकल बेटा अपना नहीं होता पोता हो जाता है । “

“गुप्ता जी भी खोलेंगे । पर आपका ढक्कन पहले ड्यू है । सब लोग चाहते है कि डेपुटी साहेब का जलवा हो जाये इस बार । .... तो बताइए डेपुटी साहेब कब रखें ? कम से कम तीन ढक्कन तो लगेंगे ।”

“अरे यार आप लोग भी कहाँ बात को पकड़ के बैठ गए ! अब वादे हैं कहाँ, उपर से नीचे तक जुमले ही हैं । जहाँ रोज सुनते हो रोज भूलते हो तो मेरा एक और सही । भूल जाओ ना प्लीज । जो बातें शिष्टाचार में कही जाती हैं उसका कोई मूल्य थोड़ी होता है । ढक्कन खोलना कोई अच्छी बात थोड़ी है और फिर मैं ढक्कन का आदी नहीं हूँ आप जानते हैं ।“  उन्होंने साफ मना कर दिया ।

“देखिये झूठ मत बोलिए घुइंयाराम जी । आपकी ढक्कन-शामें रिस रिस कर मशहूर हो चुकी हैं मोहल्ले भर में । “

“आपको ढक्कन नहीं खोलना तो कहा क्यों घुइंया जी । आदमी की जुबान ढक्कन से बड़ी होती है उस पर कायम रहना चाहिए ।“

लोग डेपुटी साहेब के साथ आये थे और घुइंयाराम जी से होते हुए घुइंया जी पर आ गए । उन्हें डर लगा कि ये ‘जी’ भी पिघल न जाये वरना सूखे घुइंया रह जायेंगे । मन ही मन वो तीन ढक्कनों का हिसाब लगाने लगे ।

इधर सब ताडू थे । समझ गए कि हिसाब लगाया जा रहा है । बोले – कार महँगी है ढक्कन सस्ते नहीं होने चाहिए । कुत्ता काला या लेबल लाल हो, इससे नीचे नहीं चलेगा ।

“ठीक है .... मंजूर ।“ घुइंयाराम को बोलना पड़ा ।

“जय हो डेपुटी साहेब की .... आपका तो दिल बड़ा है ... आप मोहल्ले की शान हो जी ... मर्द की जुबान है पलटेगी थोड़ी ... अगले साल मोहल्ला कमिटी का अध्यक्ष आपको ही बनना पड़ेगा ... तो फिर ठीक है ....मिलते हैं होली की शाम को ।“

घुइंयाराम को लगा होली के पहले ही छींटे डाल गए लोग ।

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भाग गोडबोले भाग


 


होली के हप्ता भर पहले से गोडबोले साहेब पानी बचाओ अभियान में लग गए हैं । घर घर पहुँच कर पानी बचाने का महत्त्व समझने में सारा दिन खपा रहे हैं । पत्नी नयनतारा को पता है कि ये पानी से भी उतना ही डरते हैं जितना रंग से । उन्हें समझाया कि होली के दिन आप घर के पीछे वाले वाश एरिया में छुप जाना लेकिन मानते नहीं । होलियापे में एक लड़का हो तो उसे समझा लें । इधर तो झुण्ड होता है शिकारियों का । एक ने गोडबोले के घर का रुख किया तो बाकी भी चले उधर । फिर जिसके घर में ही भेदिये हों तो उसे कौन बचा सकता है । नयनतारा अपने पल्लू में आल टाइम खुन्नस खोंसे रहती है और बदला होली में ! पिछली बार अपनी अकल लगा कर संडास में छुपे थे गोडबोले । लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ । गोडबोले की हालत देख कर नयनतारा की आत्मा को बड़ी शांति मिली । हालाँकि संडास इस बुरी तरह से भदरंग हुआ और महीनों तक रगड़ती रहीं पर साफ नहीं हुआ । इसका उन्हें गुस्सा था लेकिन बड़ा दुःख ये हो गया कि मल्टीकलर गोडबोले का रंग दस दिन में साफ हो गया । इस बार गोडबोले को लड़कों के आलावा नयनतारा के भगिनी मंडल से भी खतरा है । सूत्रों से पता चला है कि लट्ठमार होली होना है इस बार । भक्त अगर ठान लें तो अपना पराया नहीं देखते हैं । गोडबोले को अपनों से ज्यादा खतरा है । खैर ।

सबसे पहले वे लेले साहब के घर पहुंचे । उनके घर दो जवान होलीखोर लड़के हैं । पिछली बार ये दुष्ट ही सूखा रंग सिर में डाल गए थे । चार दिनों तक जब भी नहाने बैठे तो पहले से ज्यादा लाल हो कर उठे । सूखे दक्षिणपंथी गीले होते ही वामपंथी नजर आने लगते । मौका होली का नहीं होता तो लाल को मुद्दा बना कर ‘परिवार’ वाले बाहर का रास्ता दिखा देते । लड़के कमबख्त इतने कि बाहर सूख रही लाल चड्डी-बनियान के साथ सेल्फी ले कर वाट्सएप पर वायरल कर दी । गोडबोले को कई दिनों तक लगता रहा मानों उन्हें सरे आम ‘रंगा’ कर दिया हो । बड़े दिनों तक उन्हें लगता रहा कि चड्डी-बनियान नहीं वे खुद लटके हैं रस्सी पे । छोरों ने अपनी डीपी में उनकी चड्डी-बनियान लगा ली । इन्हीं दोनों लेले-लाड़लों के कारण इसबार उनका महीने भर से दिल बैठ रहा है । कई बार मन हुआ कि ससुराल ही चले जाएँ । लेकिन ये कुंवे से बचने के लिए खाई में कूदने जैसा है । डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने कुछ गोलियां दे दीं । साथ ही यह भी कि पानी बचाने की मुहीम पूरे मोहल्ले में चला दो । अच्छा काम है, रंगों से बच जाओगे और कहीं सरकार ने नोटिस ले लिया तो कल को पद्मश्री वगैरह भी मिल सकती है । आजकल किसकी उड़ के लग जाये कुछ कहा नहीं जा सकता है ।  

गोडबोले बोले - “वो क्या है लेले साहेब इस बार अपने को पानी बचाना है । बिलकुल पक्के में, सारे लोग मिल के शप्पत ले लें तो ये काम हो जायेगा । पानी से कोई होली नहीं खेलेगा ये सन्देश अपने को देना है । बोलो ।“

“अर्धा अर्धा कोप चा लेंगे क्या ?” लेले ने उनकी बात को अनसुना सा करते हुए पूछा ।

“चा ? .... हाओ । पत्ती थोड़ा ज्यादा और शकर थोड़ा कम बोलना । और हाँ ... पानी भी थोड़ा कम ... बूंद बूंद कीमती है, ऐसा सरकार भी बोल रही है विज्ञापनों में । इस बार पानी बिलकुल भी ख़राब नहीं करने का । अपने बच्चों को बोलना पुलिस पानी बचाने को बोल रही है । वो क्या है ना लोग पहले रंग डालते हैं फिर उसको साफ करने के लिए हप्ता भर तक पानी ख़राब करते हैं । अपने को ऐसा नहीं करने का । क्या । ...

“पुलिस ने कब बोला !? लेले चौंके ।

“बोला है । ऊपर से आदेश है उनको । सुना है जो पानी से खेलेगा उसके यहाँ छापा पड़ेगा । इस बार पुलिस टाईट है । ... अपने को लफड़ा नहीं मांगता, सीधे सरकार की बात मानने का । पानी बचाना मतलब पानी बचाना । बरोबर ? “

चाय आ गयी । गोडबोले ने सिप ले कर कहा अच्छी है । 

“ये पुलिस का आपको कैसे पता चला कि पानी को लेकर इस बार .....”

“वो अपने टीआई हैं ना भड़भड़े साहेब ...”

“अच्छा भड़भड़े साहेब ने खुद बोला !?”

“अरे नहीं, उनके नीचे है ना गनपत ... फ़ाइल वगैरह वही देखता है । उसने बताया है । तो अपन लोग भी तय कर लें कि इस बार पानी नहीं ।“

“अच्छा !! तभी लड़कों ने तो इस बार गार्डन में एक गड्ढा किया है होली के लिए ।“

“अरे नहीं ! रोको उन्हें । गड्ढे में कितना पानी बर्बाद होगा !! “

“पानी नहीं गोबर से भरेंगे गड्ढे को । और सुना है आपको ही मुख्य अतिथि बनाने वाले हैं ।“

सुनते ही गोडबोले भाग  खड़े हुए । लेले बोलते ही रह गए कि चा तो पी लेते इसमें पानी है ।

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मंगलवार, 12 मार्च 2024

स्वक्षेत्रे पूज्यते सांसद ; सर्वत्र पूज्यते डॉन


 



डॉन एक सामाजिक प्राणी होता है । आमतौर पर वह दयावान टाइप का दृष्टिकोण रखता है । आज जानते ही हैं कि गार्डन की सुन्दरता तभी बनी रहती है जब समय समय पर उसकी कटाई छटाई होती रहे । हमें  आभारी होना चाहिए कि डॉन समाज व्यवस्था में माली की भूमिका अदा करता है । वह सबको एक दृष्टि से देखता है और अपना काम जाति धर्म से ऊपर उठ कर करता है । वह हिंदी प्रेमी होता है और छोटा बड़ा कोई भी हो उसे हिंदी में ही समझाता है । डॉन की हिंदी इतनी अच्छी होती है कि अंग्रेजी मीडियम वालों को भी जल्दी समझ में आ जाती है ।

डॉन मौका आने पर धार्मिक व्यक्ति भी हो जाता है । वह धर्म का बड़ा सम्मान करता है । बदले में अछूत होने के बावजूद धर्म भी उसका बड़ा सम्मान करता है । डॉन की पूजा से पुजारी इतने प्रभावित रहते हैं कि उनमें भगवान से ज्यादा भक्तिभाव डॉन के प्रति हो जाता है । व्यावहारिक ज्ञानशास्त्र में कहा भी गया है – स्वक्षेत्रे पूज्यते सांसद ; सर्वत्र पूज्यते डॉन । अर्थात एक सांसद का सम्मान तो उसके क्षेत्र तक ही सीमित रहता है किन्तु डॉन का सम्मान सभी जगह होता है । डॉन सर्वव्यापी होता है । कवि कन्हैयालाल ‘कबूतर’ लिख गए हैं – ‘पाखी-पतंगे, डॉन और उसके पेटी-खोखे ; कोई सरहद इनको नहीं रोके । ‘कबूतर’ जी को उम्मीद है कि डॉन साहेब किसी दिन कृपालु हो गए तो कवि सम्मेलनों से लेकर अकादमियों तक कहीं भी फिट करवा सकते हैं ।

 डॉन केवल अपने भक्तों को ही दिखाई देता है । या फिर वह जिनको दर्शन देना चाहता है उनको दीखता है । वह कहाँ है ये सबको पता होता है । लेकिन उसे हमेशा सत्रह मुल्कों की पुलिस ढूंढती रहती है । सूई वहां नहीं ढूँढना चाहिए जहाँ गिरी हो, कमबख्त मिल जाती है और काम ख़त्म हो जाता है । पुलिस और डॉन दोनों जनता के सेवक होते हैं  और जैसा भी अवसर मिलता है सेवा करते रहते हैं । वैसे सच पूछो तो डॉन जनता का सेवक होता है । हम इसलिए कह रहे हैं क्योकि हम अच्छे से जानते हैं, उसके मोहल्ले में ही रहते हैं । विश्वास नहीं हो तो पूछ लो किसीसे भी, कोई इंकार करे तो बताना । एक बात और, डॉन मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं । सामने वाले का ह्रदय परिवर्तन कर देना उनके बाएं हाथ का काम है । कोई लाख ना-ना करता हुआ आये बाकायदा हाँ-हाँ करता हुआ लौटता है । हार्ट की फील्ड में आपने दो ही स्पेस्लिस्ट के नाम सुने होंगे ; एक आपके शहर वाले डाक्टर और दूसरे अपने डॉन साहेब ।

पिछले कई महीनों से डॉन साहेब को संस्कृति की रक्षा का भूत चढ़ा हुआ है । उन्हें पता चला कि समाज में प्रेम करने वाले बहुत बढ़ गए हैं । डॉन को प्रेमी पसंद नहीं हैं । शुरू शुरू में तो तमाम वोटर लिस्ट चेक कर डालीं लेकिन कोई संस्कृति नाम वाली नहीं मिली । तब कुछ जिम्मेदारों ने समझाया कि संस्कृति क्या है और  रक्षा के लिए उसके साथ कुछ करना नहीं है । जो गैर-संस्कृति वाले हैं उनको ठीक करने से संस्कृति की रक्षा का काम हो जाएगा । और यह काम न केवल शौर्य का है बल्कि सेवा और दिशादर्शन का भी है । काम बड़ा है, लेकिन बड़ा काम बड़े ही करते हैं ।

सुना है डॉन को टिकिट देना चाहती हैं पार्टियाँ ।  .... जय हो ।

 

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बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता


 


“बाउजी अपना तो मानना है कि आदमी को अपनी लड़ाई खुद लड़ना पड़ती है । और लड़ाई वही जीतता है जिसके हौसले बुलंद होते हैं । वो कहते हैं ना ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ । कल अपन ने बंगला देखा एक । मार्केट में बिकने को आया है । पांच करोड़ मांग रहा है । दो मंजिला है । आगे पोर्च भी है और पीछे वश एरिया है बड़ा सा । थोड़े पेड़ भी लगे हैं । अच्छा है ।“ मनसुख ने बताया ।

“पांच करोड़ का बंगला ! फिर !?”

“फिर क्या ! अभी तो दो तीन बार और देखेंगे । मिसेस को भी ले जाऊंगा । वो भी देख लेगी अच्छे से, अन्दर बाहर सब । उसको भी बड़ा शौक है ।“

“मनसुख पांच करोड़ का बंगला ले लोगे तुम ?!”

“पांच तो बोल रहा है । टूटेगा अभी कुछ दिन बाद । प्रापर्टी में ऐसा ही होता बाउजी । लोग मूं फाड़ते हैं पर मिलता थोड़ी है ।“

“फिर भी कितना टूटेगा ? ढाई करोड़ से नीचे तो जायेगा नहीं । “

“वो कुछ भी बोले अपन तो दो करोड़ लगायेंगे बस ।“

“दो करोड़ में कैसे दे देगा ?!”

“तो नहीं दे । मेरे पास कहाँ हैं दो करोड़ । अपनी कोई लाटरी थोड़ी लगी है ।“

“जब रुपये हैं नहीं तो क्यों जाते हो प्रापर्टी देखने !?”

“मंगाई कित्ती है बाउजी । तनखा में कुछ पुरता थोड़ी है । महीने के आखरी चार पांच दिन तो समझो बड़ी मुस्किल से कटते हैं । मन मर जाने को करता है ।“

“ऐसे में करोड़ों का मकान देखने का क्या मतलब है मनसुख ! “

“अन्दर से मजबूती बनी रहती है । बाउजी हौसला बुलंद होना चइये । गरीब आदमी के पास अगर हौसला भी नहीं हो तो लडेगा कैसे । ड्रायवरी का ये मजा तो है कि सेठ जी कार ले के कहीं भी जाने का मौका मिल जाता है और प्रापर्टी देख लेते है ठप्पे से । ... अभी तो एक जमीन भी देखी अपन ने । तीस किलो मीटर पे है । सत्तर करोड़ मांग रहा है । अच्छी खातिरदारी करी किसान ने । अपन ने तीस करोड़ लगा दिए हाथो हाथ ।“

“तीस करोड़ ! !“

“अरे देगा थोड़ी । पचास से नीचे नहीं आएगा वो । पर जमीन अच्छी है । खेती होती है । फलों के पेड़ भी हैं , दो कुएं और तीन बोरवेल हैं । मोटर लगी हुई है । अपने को कुछ नहीं करना है । चलती हुई प्रापर्टी है । रजिस्ट्री कराओ और हांको जोतो मजे में ।“

“किसी दिन फंस मत जाना यार तुम । जिंदगी भर चक्की पिसिंग करते रह जाओगे  ।“

“फंसे हुए तो हैं ही बाउजी गले गले तक । दो महीने का मकान किराया चढ़ गया है । मकान मालिक तगादे करता है । टालने के लिए अन्दर से दमदारी चइए । सोच में करोड़ों हों तो कान्फिडेंस बना रहता है । महंगाई से तो आप भी कम परेशान नहीं हो । चलो किसी दिन आपको भी कुछ प्रापर्टी दिखा देता हूँ । फिर देखना आप, सोच ही बदल जायेगी, लगेगा अच्छे दिन आ गए ।“

“रहन दे भिया । झोले में नहीं दाने और अपन चले भुनाने ।“

“ऐसा नहीं हैं बाउजी । कार चलता हूँ लेकिन सोच ये रखता हूँ कि कार मेरी है, सेठ तो बस सवारी है । वोट भी मैं प्रधानमंत्री को ही देता हूँ चाहे पार्षद का चुनाव हो रहा हो । बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता है । और ये भी हो सकता है कि किसी दिन भगवान तथास्तु बोल दें । “

 

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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना.


 


          राजनीति करने वाले आजकल खेला करने लगे हैं । खेल भावना के अनेक आयाम होते हैं । जिसे खेलना आता है वो कहीं भी मैदान मार लेता है । इधर कुछेक साल से मंजे हुए खिलाड़ियों का दौर चल रहा है  । मंजे हुए को शुरू शुरू में लोग लोटा समझते हैं लेकिन बाद में वह कलश हो जाता है । खिलाड़ी इतना मंजा होता है कि हाकी खेलता दिखाई देता है लेकिन स्कोर कार्ड में रन दर्ज होते हैं । वह अपने नीबू और सिरके से पहले दूध को फाड़ता है फिर फटा दूध ले आता है । दूसरे के घर का फटा दूध उसके घर आ कर पनीर का दर्जा पा जाता है । गाय दिखा कर बकरे मार लेने का ये खेल शतरंज से भी ऊपर का है । बकरे मारना उसके लिए गोलगप्पे खाने जैसा है । राजनीति के तबेले में चिंता व्याप्त है । ‘बकरे की माँ’ कब तक खैर मनाएगी !

              राजनीति करने वालों को विरासत में तमाम छोटी बड़ी दीवारें मिलीं । इसलिए राजनीति दीवारों का खेल भी है । संविधान से तय तो यह था कि दीवारें गिराई जाएँगी । लेकिन उन्होंने दीवारें गिराने का काम नहीं किया । दरवाजों में उन्हें राजनीतिक सम्भावना अधिक दिखी । इसलिए दरवाजे बनाने का काम हाथ में लिया गया । दरवाजों में खोलने और बंद करने की सुविधा थी जो राजनीति के लिए बहुत जरुरी है । नगर नगर गाँव गाँव में दरवाजों की सफल राजनीति होने लगी । घोषणा-पत्र में छोटे बड़े नए नए दरवाजों का वादा किया गया । दरवाजे हवा में नहीं बन सकते थे । सो दरवाजों के लिए नयी नयी दीवारों की जरुरत पड़ी । लोग दरवाजों की उम्मीद में रहे और दीवारें खड़ी  होती गयीं । धीरे धीरे समय आया कि दीवारें पहली जरुरत समझी जाने लगीं । जहाँ दीवारें नहीं थी वहां भी लोग बनाने लगे । दरवाजे हैं तो विकास है, दरवाजे हैं तो लोक कल्याण है, दरवाजे हैं तो सुरक्षा और सुविधा है । कुछ लोग इसे इनडोर गेम / आउटडोर गेम के रूप में भी देखते हैं । लोग अपनी अपनी दीवारों में कैद हो कर गर्व महसूस करने लगें तो इसे उच्चकोटि की राजनीतिक सफलता कहा गया । दरवाजों ने उन्हें अवसर दिया कि मज़बूरी या जरुरत के हिसाब से कुण्डी खोल लेंगे, बंद कर लेंगे । समुद्र में दीवारें नहीं होतीं हैं, पता नहीं बड़ी मछलियाँ राजनीति कैसे कर पाती होंगी । कैसे उनका कारोबार चलता होगा । उनके बच्चों का क्या हाल होता होगा ।

              अभी की बात है मज़बूरी में कुछ लोगों को समझ में आया कि संगठन में शक्ति है । लेकिन सारे घटकों की  दीवारें बुलंद हैं और दरवाजे छोटे । सबको पता हैं कि थोड़ी थोड़ी दीवार गिराना पड़ेगी । हालाँकि सबने दरवाजे खोले, लेकिन थोड़े थोड़े । एक दूसरे को देखा, मुस्कराये, ‘दिल भी तेरा, हम भी तेरे’ कहा । लेकिन दीवारें गिराने पर कोई सहमत नहीं हुआ । सबने अपनी अपनी दीवारों पर गठबंधन के इश्तहार अवश्य चिपका लिए पर दरवाजा पूरा नहीं खोला । ‘पहले आप पहले आप’ में भरोसे की भैंस पाड़ा दे कर चली गयी । इधर एक बड़ी दीवार के पीछ जोर जोर से डीजे बजता रहता है – “कुण्डी न खड़काओ राजा, सीधे अन्दर आ जाओ राजा” ।  दरवाजे के पीछे से निमंत्रण मिले तो कौन संत कौन साधु !! कान में ‘राजा’ शब्द पड़ता है शहनाई बजने लगती है , मन डोले तन डोले ! प्रेम में जब सरहदे नाकाम हो जाती हैं तो फिर दीवारों का क्या है । तुमने पुकारा और हम चले आये रे, जान हथेली पे ले आये रे ।  मानने वाले ने मान लिया कि छोटी दीवारों से निकल कर बड़ी दीवार में कैद हो जाना राजनितिक विकास है । और वो चला गया ! उसे लगता है कि बिल्ली जिस छेद से अन्दर आती है उसी छेद से बाहर भी निकल सकती है । मलाई खा कर निकल आयेगी किसी दिन ।

इधर डीजे पर अब भूपेंद्र और मिताली की गजल बज रही है –

                    राहों पे नजर रखना, होठों पे दुआ रखना ;

                    आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना.

 

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रविवार, 21 जनवरी 2024

एक यात्रा प्राणप्रतिष्ठा के लिए



किसी ज़माने में पार्टी के प्राण शेरवानी पर खुंसे लाल गुलाब में हुआ करते थे । सोचा था देश  उन्हें  भी  प्राणनाथ मान लेगा, नहीं माना । जाहिर है प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम चलाना पड़ रहा है । मूर्ति को स्थापित करना है लेकिन प्राण की दिक्कत है । प्राण कहाँ हैं यही पता नहीं चल रहा है । सोचा था सारे प्राण मिल कर एक प्राणबंधन कर लेंगे, लेकिन नहीं हो पा रहा है । चाटुकार कान में कह जाते हैं कि अपनी पार्टी के प्राण वंशवाद में हैं । किन्तु वंश में वो वाले प्राण बचे नहीं जो इस वक्त जरुरी हैं । काले कपड़ों वाले जानकारों ने बताया है कि पार्टी के प्राण किसी तोते में हैं । औत तोता पिंजरे में बंद है । पिंजरा काली गुफा में है और गुफा लाल पहाड़ी के पीछे है । एक काफिला लगेगा उसे खोजने में ।

एक समय था जब लाल पहाड़ी दूर से दिखाई दे जाती थी । अब उसने अपना मुंह छुपा लिया है । जो लोग कभी लाल पहाड़ी पर खड़े हो कर चाँद देखा करते थे वे अब गुम गलियों में उसे खोज रहे हैं । ऐसे मौके पर कोई पत्रकार सवाल न पूछे यह हो सकता है क्या ! माइक दन्न से आगे आया – “क्या आप लाल पहाड़ी खोजने के लिए यात्रा पर निकले हैं ?”

“नहीं मैं काली गुफा खोजने के लिए निकला हूँ । लोगों को काली गुफा के बारे में जागरूक करने के लिए निकला हूँ । बस लोग एक बार काली गुफा की हकीकत ठीक से जान जाएँ तो समझो हमारी प्राणप्रतिष्ठा हो जाएगी ।“ उन्होने जवाब दिया ।

“अभी तो आपने कहा कि जागरूकता के लिए निकले हैं ! फिर ये प्राणप्रतिष्ठा का सवाल कैसा ?!”

“एक ही बात है, लोग जागरुक हो जायेंगे तभी हमारी प्राणप्रतिष्ठा होगी । “

“ तो ये कहिये ना कि जनजागरण में ही आपके प्राण बसे हुए हैं ।“

“मेरे नहीं, पार्टी के प्राण हैं जागरण में ।“

“विश्वस्त सूत्रों के ज्ञात हुआ है कि किसी तोते की तलाश में यात्रा पर निकले हैं आप ?”

“तोता !! हाँ, वो तोता काली गुफा में । हर काली गुफा में एक तोता होता है ।“

“तो इस यात्रा को न्याय यात्रा क्यों कहा जा रहा है ! तोता तलाश यात्रा कहना ज्यादा ठीक होगा ।“

“देखिये भईया ... तोते का मिल जाना ही न्याय मिल जाना है । बल्कि यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि तोता ही न्याय है । न्याय में ही प्राण हैं । तोते को पिंजरे से मुक्त कर देना ही प्राण को प्रतिष्ठित कर देना है ।“

“कुछ लोग कह रहे हैं तोता असल में evm है । क्या यह सही है ?”

“evm सही नहीं है, हम उसका विरोध करते हैं ।“

“और तोता ?”

“तोता तो पिंजरे में है । “

“आपकी सरकार बनी तो आप इस तोते का क्या करेंगे ?”

“मारेंगें नहीं । हम इसे अपने पिंजरे में बंद करके प्रधान मंत्री आवास के आंगन में लटका देंगे । अभी यह सीताराम सीताराम बोलता है । हम इसे गुड मार्निंग, गुड इविनिंग और यस सर बोलना सिखायेंगे । “

“तो फिर बदलाव कहाँ हुआ !?”

“तोते में बदलाव नहीं होता है, न ही पिंजरे में । बदलाव होता है आँगन में । ... अब जरा ध्यान से सुनिए । सीताराम सीताराम की आवाज किधर से आ रही है । लग रहा है हर जगह तोते पिंजरे में बैठे हैं । “

“इतनी बड़ी संख्या में तोतों को मुक्त करा पाओगे आप ? समय तो बहुत कम है ।“

“तोतों में प्राण होंगे तो वे स्वयं मुक्त हो जायेंगे । मैं तो सिर्फ पुकारने निकला हूँ ।“

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रविवार, 14 जनवरी 2024

भजन आरती का क्रेश कोर्स


 


इस समय भक्ति-काल चल रहा है । लोगों को भक्ति और काल में से एक को चुनना है । जो समझदार हैं वे भक्ति ही चुन रहे हैं । भक्ति मात्र एक भावना नहीं है । भक्त को बहुत कुछ करना पड़ता है । लोग चंदा दे देते हैं और समझते हैं कि वे भक्त हो गए, ऐसा नहीं है । भक्त को स्वयं भजन आरती वगैरह करना जरुरी है । इंग्लिश मीडियम वाली पीढ़ी भजन आरती के मामले में डबल जीरो है । इसीलिए माहौल में गति धीमी बनी हुई है । भक्तों की टोली के आगे मुंह खोलना उन्हें भारी पड़ता है । आज की पीढ़ी सहभागिता के संकट से गुजर रही है । इसलिए मार्किट में हम उनकी सहायता के लिए नया कोर्स ले कर आए हैं ।

अभी लोग भजन विज्ञान को नहीं समझे हैं । सत्तर साल से जो भजन गए जा रहे हैं वो अब नहीं चलेंगे । नये ‘भगवान’ नये भजन, यही रिवाज है । ऊपर वाला कोई भी क्यों न हो, उसे भजन आरती अपने हिसाब से ही होना मांगता है । इसलिए हमारा इंस्टिट्यूशन भजन आरती का क्रेश कोर्स लाया है । मात्र सात दिनों में आप बहुत अच्छी तरह से भजन आरती गा सकेंगे । फीस जमा करने के बाद रोजाना दो घंटे क्लास अटेंड करना होगी । मंजीरे आपको अपने लाना होंगे । नहीं हों तो हमारे काउंटर से खरीद सकते हैं । अभी पचास प्रतिशत फीस के साथ एडमिशन फार्म भरेंगे तो मंजीरा वादन फ्री सिखाया जायेगा । पूरी फीस एडवांस देंगे तो एक और भगवान का भजन फ्री सिखाया जायेगा । ये हमारी एक के साथ एक फ्री स्कीम है । आप सोच रहे होंगे कि भगवान तो एक ही होते हैं ! सही है ना ? हम देखते ही समझ गए थे कि प्रगतिशील हो तो ज्यादा नालेज नहीं होगा । जानकारी के लिए बता दें कि करोड़ों भगवान हैं अपने यहाँ । हर भगवान ले लिए अलग भजन होता है । अभी कहा ना कि भजन विज्ञान बहुत गहरा और जटिल है । हमारे यहाँ सैकड़ों भजन सिखाने की व्यवस्था है । ढपली वाले, ढोलक वाले, मृदंग वाले, हारमोनियम वाले, सितार वाले ... कई हैं । भजन में वेरायटी बहुत है । सब सीखेंगे तो साल भर लग जायेगा । अभी सीजन है तो क्रेश कोर्स में एक भगवान का परफेक्ट भजन सिखा रहे हैं ।

यहाँ भजन के आलावा आरती भी सिखाई जाती है । आरती सिंगल होती है और डायरेक्ट भगवान को सुनाई जाती है  । आरती में कुछ भी ऊपर नीचे नहीं कर सकते हैं । उसका हर शब्द अपनी जगह फिक्स होता है । भजन को थोडा इधर उधर करके भी गाया तो चल जाता है, आरती को नहीं । इसलिए आरती का आनर्स कोर्स चलता है । पूरा साल आरती की जरुरत पड़ती है । कोर्स थोडा कठिन है लेकिन महत्वपूर्ण है । बहुत ध्यान रखना पड़ता है । भक्त फल की उम्मीद में आरती का गान करते हैं । इसलिए उनकी संतुष्टि का ख्याल रखना जरुरी होता है ।

अगर कुछ हट के कोर्स करना हो तो हमारे पास वो भी है । दफ्तरों में कोई काम पड़ जाये तो बिना नोटामायसिन के पत्ता भी नहीं खड़कता है । लेकिन अगर अधिकारी की उचित आरती उतारो तो दस हजार का काम सात हजार में हो सकता है । प्रेक्टिकल आरती और भजन का ये कोर्स परसनल ट्यूशन में करवाया जाता है । इसकी फीस भी ज्यादा है, लेकिन सफलता इसी में है  । ... आपको पूरा सिलेबस बता दिया है । बताइए कौन सा कोर्स करेंगे ?

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शनिवार, 13 जनवरी 2024

दर्शन नहीं करने का दर्शन


 


“ तो आप जा रहे हैं मंदिर ?” वरिष्ठ किस्म के पुरातन नेता से रिपोर्टर ने पूछा ।

“नहीं ।“ उन्होंने टका सा जवाब दिया ।

“निमंत्रण तो मिल गया है !”

“तब भी नहीं जायेंगे ।“ वे बोले ।

“क्यों !?”

“भगवान हमारी पार्टी के नहीं हैं ।“

“भगवान का पार्टी से क्या लेना देना ! वो तो सबके हैं ।“

“सब कहने की बातें हैं । ताला हमने खुलवाया और वे दूसरी पार्टी के साथ चले गए !”

“चलिए ये क्या कम है कि आप मानते हैं भगवान को । हमें लगा कि कम्युनिस्टों के साथ रहते रहते आप धर्म से दूर हो गए हैं ।“

“ऐसा नहीं है हम एक नहीं सभी धर्मों को मानते हैं । सबका समान आदर करते हैं । “

“लोग कहते हैं जो सबका होता है वो किसी का नहीं होता है !!”

“गलत है, हम सभी धरमों को मानते हैं । हमारी पूरी पार्टी मानती हैं । “

“क्या मानते हैं धरम को ? और क्या करते हैं ?”

“जैसा समय और परिस्थिति के अनुसार जरुरी हो । फूल, घंटी, आरती, माला, चादर सब कर देते हैं ।“

“चुनाव नहीं हो तब धरम को क्या मानते हो ?”

“वैसे तो धर्म एक तरह की अफीम है । ये हमने कहा नहीं हैं, हम सिर्फ मानते हैं ।“

“गाँधी जी तो धर्म को, राम को मानते थे !”

“उनकी बात अलग है । वो बड़े नेता थे । कुछ भी मान लेते थे । उनकी गलतियों के लिए हम दोषी थोड़ी हैं । “

“ऐसा नहीं हैं, सब जानते हैं उनकी आस्था भी थी भगवान में ।“

“आस्था अलग चीज है । राजनीति में आस्था नहीं चलती है । विवेक चलता है, चालाकी चलती है, मौकापरस्ती चलती है, झूठ बिंदास चलता है ... सब चलता है आस्था नहीं ।“

“ लेकिन ‘वे’ तो आस्था से ही बढ़िया राजनीति कर रहे हैं ! ... आपको नहीं लगता कि मंदिर जा कर आपकी पार्टी आस्था की फसल में से अपना हिस्सा ले सकती है ? खुद आपकी पार्टी वालों को लग रहा है कि इस मामले में आप गलती कर रहे हैं ।“

“ गलतियों से हमें कोई दिक्कत नहीं है । गलतियों की हमारी लम्बी परंपरा है । होती रहती है, किसी से भी हो सकती हैं । हम ही क्यों, जो मार्गदर्शक मंडल में पड़े हुए हैं उनसे पूछिये । क्या वे अपनी गलती पर दिन रात नहीं रो रहे हैं ?”

“चाहें तो सुधार कर लें अपने निर्णय में । साफ्ट हिंदुत्व का समर्थन तो किया था आपकी पार्टी ने । इसी नाते साफ्ट दर्शन कर आते और जनभावना से जुड़ लेते । इसमें क्या प्रॉब्लम थी ?”

“जनता से जुड़ने के लिए ‘भारत जोड़ो’ यात्रा निकाल रहे हैं ना ।“

“ठीक है, लेकिन यात्रा से समर्थन मिल सकता है जुडाव तो धर्म से ही होगा ।“

“नाम पर मत जाइये । पोल्टिक्स में जुड़ाव का मतलब जुड़ाव नहीं है । जैसे सद्भावना का मतलब कभी भी सद्भावना नहीं होता है । राजनीति में जो होता दीखता है वो नहीं होता और होता वही है जो नहीं दीखता है । गहरी बात है इसके मर्म को समझो ।“

“हमें तो कुछ भी नहीं समझ में आया, आप ही समझाईये प्लीज ।“

“जो भक्त दिख रहे हैं वो भक्त नहीं हैं और जिन्हें भक्त नहीं समझा जा रहा है वही असली भक्त हैं ।“

“क्या मैं इसे ऐसे समझूं कि झूठ ही सच है और सच झूठ है ।“

“तुम्हें राजनीति की समझ नहीं है । मर्म को समझो ... हम कह रहे नहीं जायेंगे, इसका मतलब है हम जायेंगे । 

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