मंगलवार, 12 मार्च 2024

स्वक्षेत्रे पूज्यते सांसद ; सर्वत्र पूज्यते डॉन


 



डॉन एक सामाजिक प्राणी होता है । आमतौर पर वह दयावान टाइप का दृष्टिकोण रखता है । आज जानते ही हैं कि गार्डन की सुन्दरता तभी बनी रहती है जब समय समय पर उसकी कटाई छटाई होती रहे । हमें  आभारी होना चाहिए कि डॉन समाज व्यवस्था में माली की भूमिका अदा करता है । वह सबको एक दृष्टि से देखता है और अपना काम जाति धर्म से ऊपर उठ कर करता है । वह हिंदी प्रेमी होता है और छोटा बड़ा कोई भी हो उसे हिंदी में ही समझाता है । डॉन की हिंदी इतनी अच्छी होती है कि अंग्रेजी मीडियम वालों को भी जल्दी समझ में आ जाती है ।

डॉन मौका आने पर धार्मिक व्यक्ति भी हो जाता है । वह धर्म का बड़ा सम्मान करता है । बदले में अछूत होने के बावजूद धर्म भी उसका बड़ा सम्मान करता है । डॉन की पूजा से पुजारी इतने प्रभावित रहते हैं कि उनमें भगवान से ज्यादा भक्तिभाव डॉन के प्रति हो जाता है । व्यावहारिक ज्ञानशास्त्र में कहा भी गया है – स्वक्षेत्रे पूज्यते सांसद ; सर्वत्र पूज्यते डॉन । अर्थात एक सांसद का सम्मान तो उसके क्षेत्र तक ही सीमित रहता है किन्तु डॉन का सम्मान सभी जगह होता है । डॉन सर्वव्यापी होता है । कवि कन्हैयालाल ‘कबूतर’ लिख गए हैं – ‘पाखी-पतंगे, डॉन और उसके पेटी-खोखे ; कोई सरहद इनको नहीं रोके । ‘कबूतर’ जी को उम्मीद है कि डॉन साहेब किसी दिन कृपालु हो गए तो कवि सम्मेलनों से लेकर अकादमियों तक कहीं भी फिट करवा सकते हैं ।

 डॉन केवल अपने भक्तों को ही दिखाई देता है । या फिर वह जिनको दर्शन देना चाहता है उनको दीखता है । वह कहाँ है ये सबको पता होता है । लेकिन उसे हमेशा सत्रह मुल्कों की पुलिस ढूंढती रहती है । सूई वहां नहीं ढूँढना चाहिए जहाँ गिरी हो, कमबख्त मिल जाती है और काम ख़त्म हो जाता है । पुलिस और डॉन दोनों जनता के सेवक होते हैं  और जैसा भी अवसर मिलता है सेवा करते रहते हैं । वैसे सच पूछो तो डॉन जनता का सेवक होता है । हम इसलिए कह रहे हैं क्योकि हम अच्छे से जानते हैं, उसके मोहल्ले में ही रहते हैं । विश्वास नहीं हो तो पूछ लो किसीसे भी, कोई इंकार करे तो बताना । एक बात और, डॉन मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं । सामने वाले का ह्रदय परिवर्तन कर देना उनके बाएं हाथ का काम है । कोई लाख ना-ना करता हुआ आये बाकायदा हाँ-हाँ करता हुआ लौटता है । हार्ट की फील्ड में आपने दो ही स्पेस्लिस्ट के नाम सुने होंगे ; एक आपके शहर वाले डाक्टर और दूसरे अपने डॉन साहेब ।

पिछले कई महीनों से डॉन साहेब को संस्कृति की रक्षा का भूत चढ़ा हुआ है । उन्हें पता चला कि समाज में प्रेम करने वाले बहुत बढ़ गए हैं । डॉन को प्रेमी पसंद नहीं हैं । शुरू शुरू में तो तमाम वोटर लिस्ट चेक कर डालीं लेकिन कोई संस्कृति नाम वाली नहीं मिली । तब कुछ जिम्मेदारों ने समझाया कि संस्कृति क्या है और  रक्षा के लिए उसके साथ कुछ करना नहीं है । जो गैर-संस्कृति वाले हैं उनको ठीक करने से संस्कृति की रक्षा का काम हो जाएगा । और यह काम न केवल शौर्य का है बल्कि सेवा और दिशादर्शन का भी है । काम बड़ा है, लेकिन बड़ा काम बड़े ही करते हैं ।

सुना है डॉन को टिकिट देना चाहती हैं पार्टियाँ ।  .... जय हो ।

 

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बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता


 


“बाउजी अपना तो मानना है कि आदमी को अपनी लड़ाई खुद लड़ना पड़ती है । और लड़ाई वही जीतता है जिसके हौसले बुलंद होते हैं । वो कहते हैं ना ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ । कल अपन ने बंगला देखा एक । मार्केट में बिकने को आया है । पांच करोड़ मांग रहा है । दो मंजिला है । आगे पोर्च भी है और पीछे वश एरिया है बड़ा सा । थोड़े पेड़ भी लगे हैं । अच्छा है ।“ मनसुख ने बताया ।

“पांच करोड़ का बंगला ! फिर !?”

“फिर क्या ! अभी तो दो तीन बार और देखेंगे । मिसेस को भी ले जाऊंगा । वो भी देख लेगी अच्छे से, अन्दर बाहर सब । उसको भी बड़ा शौक है ।“

“मनसुख पांच करोड़ का बंगला ले लोगे तुम ?!”

“पांच तो बोल रहा है । टूटेगा अभी कुछ दिन बाद । प्रापर्टी में ऐसा ही होता बाउजी । लोग मूं फाड़ते हैं पर मिलता थोड़ी है ।“

“फिर भी कितना टूटेगा ? ढाई करोड़ से नीचे तो जायेगा नहीं । “

“वो कुछ भी बोले अपन तो दो करोड़ लगायेंगे बस ।“

“दो करोड़ में कैसे दे देगा ?!”

“तो नहीं दे । मेरे पास कहाँ हैं दो करोड़ । अपनी कोई लाटरी थोड़ी लगी है ।“

“जब रुपये हैं नहीं तो क्यों जाते हो प्रापर्टी देखने !?”

“मंगाई कित्ती है बाउजी । तनखा में कुछ पुरता थोड़ी है । महीने के आखरी चार पांच दिन तो समझो बड़ी मुस्किल से कटते हैं । मन मर जाने को करता है ।“

“ऐसे में करोड़ों का मकान देखने का क्या मतलब है मनसुख ! “

“अन्दर से मजबूती बनी रहती है । बाउजी हौसला बुलंद होना चइये । गरीब आदमी के पास अगर हौसला भी नहीं हो तो लडेगा कैसे । ड्रायवरी का ये मजा तो है कि सेठ जी कार ले के कहीं भी जाने का मौका मिल जाता है और प्रापर्टी देख लेते है ठप्पे से । ... अभी तो एक जमीन भी देखी अपन ने । तीस किलो मीटर पे है । सत्तर करोड़ मांग रहा है । अच्छी खातिरदारी करी किसान ने । अपन ने तीस करोड़ लगा दिए हाथो हाथ ।“

“तीस करोड़ ! !“

“अरे देगा थोड़ी । पचास से नीचे नहीं आएगा वो । पर जमीन अच्छी है । खेती होती है । फलों के पेड़ भी हैं , दो कुएं और तीन बोरवेल हैं । मोटर लगी हुई है । अपने को कुछ नहीं करना है । चलती हुई प्रापर्टी है । रजिस्ट्री कराओ और हांको जोतो मजे में ।“

“किसी दिन फंस मत जाना यार तुम । जिंदगी भर चक्की पिसिंग करते रह जाओगे  ।“

“फंसे हुए तो हैं ही बाउजी गले गले तक । दो महीने का मकान किराया चढ़ गया है । मकान मालिक तगादे करता है । टालने के लिए अन्दर से दमदारी चइए । सोच में करोड़ों हों तो कान्फिडेंस बना रहता है । महंगाई से तो आप भी कम परेशान नहीं हो । चलो किसी दिन आपको भी कुछ प्रापर्टी दिखा देता हूँ । फिर देखना आप, सोच ही बदल जायेगी, लगेगा अच्छे दिन आ गए ।“

“रहन दे भिया । झोले में नहीं दाने और अपन चले भुनाने ।“

“ऐसा नहीं हैं बाउजी । कार चलता हूँ लेकिन सोच ये रखता हूँ कि कार मेरी है, सेठ तो बस सवारी है । वोट भी मैं प्रधानमंत्री को ही देता हूँ चाहे पार्षद का चुनाव हो रहा हो । बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता है । और ये भी हो सकता है कि किसी दिन भगवान तथास्तु बोल दें । “

 

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मंगलवार, 30 जनवरी 2024

आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना.


 


          राजनीति करने वाले आजकल खेला करने लगे हैं । खेल भावना के अनेक आयाम होते हैं । जिसे खेलना आता है वो कहीं भी मैदान मार लेता है । इधर कुछेक साल से मंजे हुए खिलाड़ियों का दौर चल रहा है  । मंजे हुए को शुरू शुरू में लोग लोटा समझते हैं लेकिन बाद में वह कलश हो जाता है । खिलाड़ी इतना मंजा होता है कि हाकी खेलता दिखाई देता है लेकिन स्कोर कार्ड में रन दर्ज होते हैं । वह अपने नीबू और सिरके से पहले दूध को फाड़ता है फिर फटा दूध ले आता है । दूसरे के घर का फटा दूध उसके घर आ कर पनीर का दर्जा पा जाता है । गाय दिखा कर बकरे मार लेने का ये खेल शतरंज से भी ऊपर का है । बकरे मारना उसके लिए गोलगप्पे खाने जैसा है । राजनीति के तबेले में चिंता व्याप्त है । ‘बकरे की माँ’ कब तक खैर मनाएगी !

              राजनीति करने वालों को विरासत में तमाम छोटी बड़ी दीवारें मिलीं । इसलिए राजनीति दीवारों का खेल भी है । संविधान से तय तो यह था कि दीवारें गिराई जाएँगी । लेकिन उन्होंने दीवारें गिराने का काम नहीं किया । दरवाजों में उन्हें राजनीतिक सम्भावना अधिक दिखी । इसलिए दरवाजे बनाने का काम हाथ में लिया गया । दरवाजों में खोलने और बंद करने की सुविधा थी जो राजनीति के लिए बहुत जरुरी है । नगर नगर गाँव गाँव में दरवाजों की सफल राजनीति होने लगी । घोषणा-पत्र में छोटे बड़े नए नए दरवाजों का वादा किया गया । दरवाजे हवा में नहीं बन सकते थे । सो दरवाजों के लिए नयी नयी दीवारों की जरुरत पड़ी । लोग दरवाजों की उम्मीद में रहे और दीवारें खड़ी  होती गयीं । धीरे धीरे समय आया कि दीवारें पहली जरुरत समझी जाने लगीं । जहाँ दीवारें नहीं थी वहां भी लोग बनाने लगे । दरवाजे हैं तो विकास है, दरवाजे हैं तो लोक कल्याण है, दरवाजे हैं तो सुरक्षा और सुविधा है । कुछ लोग इसे इनडोर गेम / आउटडोर गेम के रूप में भी देखते हैं । लोग अपनी अपनी दीवारों में कैद हो कर गर्व महसूस करने लगें तो इसे उच्चकोटि की राजनीतिक सफलता कहा गया । दरवाजों ने उन्हें अवसर दिया कि मज़बूरी या जरुरत के हिसाब से कुण्डी खोल लेंगे, बंद कर लेंगे । समुद्र में दीवारें नहीं होतीं हैं, पता नहीं बड़ी मछलियाँ राजनीति कैसे कर पाती होंगी । कैसे उनका कारोबार चलता होगा । उनके बच्चों का क्या हाल होता होगा ।

              अभी की बात है मज़बूरी में कुछ लोगों को समझ में आया कि संगठन में शक्ति है । लेकिन सारे घटकों की  दीवारें बुलंद हैं और दरवाजे छोटे । सबको पता हैं कि थोड़ी थोड़ी दीवार गिराना पड़ेगी । हालाँकि सबने दरवाजे खोले, लेकिन थोड़े थोड़े । एक दूसरे को देखा, मुस्कराये, ‘दिल भी तेरा, हम भी तेरे’ कहा । लेकिन दीवारें गिराने पर कोई सहमत नहीं हुआ । सबने अपनी अपनी दीवारों पर गठबंधन के इश्तहार अवश्य चिपका लिए पर दरवाजा पूरा नहीं खोला । ‘पहले आप पहले आप’ में भरोसे की भैंस पाड़ा दे कर चली गयी । इधर एक बड़ी दीवार के पीछ जोर जोर से डीजे बजता रहता है – “कुण्डी न खड़काओ राजा, सीधे अन्दर आ जाओ राजा” ।  दरवाजे के पीछे से निमंत्रण मिले तो कौन संत कौन साधु !! कान में ‘राजा’ शब्द पड़ता है शहनाई बजने लगती है , मन डोले तन डोले ! प्रेम में जब सरहदे नाकाम हो जाती हैं तो फिर दीवारों का क्या है । तुमने पुकारा और हम चले आये रे, जान हथेली पे ले आये रे ।  मानने वाले ने मान लिया कि छोटी दीवारों से निकल कर बड़ी दीवार में कैद हो जाना राजनितिक विकास है । और वो चला गया ! उसे लगता है कि बिल्ली जिस छेद से अन्दर आती है उसी छेद से बाहर भी निकल सकती है । मलाई खा कर निकल आयेगी किसी दिन ।

इधर डीजे पर अब भूपेंद्र और मिताली की गजल बज रही है –

                    राहों पे नजर रखना, होठों पे दुआ रखना ;

                    आ जाये कोई शायद, दरवाजा खुला रखना.

 

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रविवार, 21 जनवरी 2024

एक यात्रा प्राणप्रतिष्ठा के लिए



किसी ज़माने में पार्टी के प्राण शेरवानी पर खुंसे लाल गुलाब में हुआ करते थे । सोचा था देश  उन्हें  भी  प्राणनाथ मान लेगा, नहीं माना । जाहिर है प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम चलाना पड़ रहा है । मूर्ति को स्थापित करना है लेकिन प्राण की दिक्कत है । प्राण कहाँ हैं यही पता नहीं चल रहा है । सोचा था सारे प्राण मिल कर एक प्राणबंधन कर लेंगे, लेकिन नहीं हो पा रहा है । चाटुकार कान में कह जाते हैं कि अपनी पार्टी के प्राण वंशवाद में हैं । किन्तु वंश में वो वाले प्राण बचे नहीं जो इस वक्त जरुरी हैं । काले कपड़ों वाले जानकारों ने बताया है कि पार्टी के प्राण किसी तोते में हैं । औत तोता पिंजरे में बंद है । पिंजरा काली गुफा में है और गुफा लाल पहाड़ी के पीछे है । एक काफिला लगेगा उसे खोजने में ।

एक समय था जब लाल पहाड़ी दूर से दिखाई दे जाती थी । अब उसने अपना मुंह छुपा लिया है । जो लोग कभी लाल पहाड़ी पर खड़े हो कर चाँद देखा करते थे वे अब गुम गलियों में उसे खोज रहे हैं । ऐसे मौके पर कोई पत्रकार सवाल न पूछे यह हो सकता है क्या ! माइक दन्न से आगे आया – “क्या आप लाल पहाड़ी खोजने के लिए यात्रा पर निकले हैं ?”

“नहीं मैं काली गुफा खोजने के लिए निकला हूँ । लोगों को काली गुफा के बारे में जागरूक करने के लिए निकला हूँ । बस लोग एक बार काली गुफा की हकीकत ठीक से जान जाएँ तो समझो हमारी प्राणप्रतिष्ठा हो जाएगी ।“ उन्होने जवाब दिया ।

“अभी तो आपने कहा कि जागरूकता के लिए निकले हैं ! फिर ये प्राणप्रतिष्ठा का सवाल कैसा ?!”

“एक ही बात है, लोग जागरुक हो जायेंगे तभी हमारी प्राणप्रतिष्ठा होगी । “

“ तो ये कहिये ना कि जनजागरण में ही आपके प्राण बसे हुए हैं ।“

“मेरे नहीं, पार्टी के प्राण हैं जागरण में ।“

“विश्वस्त सूत्रों के ज्ञात हुआ है कि किसी तोते की तलाश में यात्रा पर निकले हैं आप ?”

“तोता !! हाँ, वो तोता काली गुफा में । हर काली गुफा में एक तोता होता है ।“

“तो इस यात्रा को न्याय यात्रा क्यों कहा जा रहा है ! तोता तलाश यात्रा कहना ज्यादा ठीक होगा ।“

“देखिये भईया ... तोते का मिल जाना ही न्याय मिल जाना है । बल्कि यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि तोता ही न्याय है । न्याय में ही प्राण हैं । तोते को पिंजरे से मुक्त कर देना ही प्राण को प्रतिष्ठित कर देना है ।“

“कुछ लोग कह रहे हैं तोता असल में evm है । क्या यह सही है ?”

“evm सही नहीं है, हम उसका विरोध करते हैं ।“

“और तोता ?”

“तोता तो पिंजरे में है । “

“आपकी सरकार बनी तो आप इस तोते का क्या करेंगे ?”

“मारेंगें नहीं । हम इसे अपने पिंजरे में बंद करके प्रधान मंत्री आवास के आंगन में लटका देंगे । अभी यह सीताराम सीताराम बोलता है । हम इसे गुड मार्निंग, गुड इविनिंग और यस सर बोलना सिखायेंगे । “

“तो फिर बदलाव कहाँ हुआ !?”

“तोते में बदलाव नहीं होता है, न ही पिंजरे में । बदलाव होता है आँगन में । ... अब जरा ध्यान से सुनिए । सीताराम सीताराम की आवाज किधर से आ रही है । लग रहा है हर जगह तोते पिंजरे में बैठे हैं । “

“इतनी बड़ी संख्या में तोतों को मुक्त करा पाओगे आप ? समय तो बहुत कम है ।“

“तोतों में प्राण होंगे तो वे स्वयं मुक्त हो जायेंगे । मैं तो सिर्फ पुकारने निकला हूँ ।“

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रविवार, 14 जनवरी 2024

भजन आरती का क्रेश कोर्स


 


इस समय भक्ति-काल चल रहा है । लोगों को भक्ति और काल में से एक को चुनना है । जो समझदार हैं वे भक्ति ही चुन रहे हैं । भक्ति मात्र एक भावना नहीं है । भक्त को बहुत कुछ करना पड़ता है । लोग चंदा दे देते हैं और समझते हैं कि वे भक्त हो गए, ऐसा नहीं है । भक्त को स्वयं भजन आरती वगैरह करना जरुरी है । इंग्लिश मीडियम वाली पीढ़ी भजन आरती के मामले में डबल जीरो है । इसीलिए माहौल में गति धीमी बनी हुई है । भक्तों की टोली के आगे मुंह खोलना उन्हें भारी पड़ता है । आज की पीढ़ी सहभागिता के संकट से गुजर रही है । इसलिए मार्किट में हम उनकी सहायता के लिए नया कोर्स ले कर आए हैं ।

अभी लोग भजन विज्ञान को नहीं समझे हैं । सत्तर साल से जो भजन गए जा रहे हैं वो अब नहीं चलेंगे । नये ‘भगवान’ नये भजन, यही रिवाज है । ऊपर वाला कोई भी क्यों न हो, उसे भजन आरती अपने हिसाब से ही होना मांगता है । इसलिए हमारा इंस्टिट्यूशन भजन आरती का क्रेश कोर्स लाया है । मात्र सात दिनों में आप बहुत अच्छी तरह से भजन आरती गा सकेंगे । फीस जमा करने के बाद रोजाना दो घंटे क्लास अटेंड करना होगी । मंजीरे आपको अपने लाना होंगे । नहीं हों तो हमारे काउंटर से खरीद सकते हैं । अभी पचास प्रतिशत फीस के साथ एडमिशन फार्म भरेंगे तो मंजीरा वादन फ्री सिखाया जायेगा । पूरी फीस एडवांस देंगे तो एक और भगवान का भजन फ्री सिखाया जायेगा । ये हमारी एक के साथ एक फ्री स्कीम है । आप सोच रहे होंगे कि भगवान तो एक ही होते हैं ! सही है ना ? हम देखते ही समझ गए थे कि प्रगतिशील हो तो ज्यादा नालेज नहीं होगा । जानकारी के लिए बता दें कि करोड़ों भगवान हैं अपने यहाँ । हर भगवान ले लिए अलग भजन होता है । अभी कहा ना कि भजन विज्ञान बहुत गहरा और जटिल है । हमारे यहाँ सैकड़ों भजन सिखाने की व्यवस्था है । ढपली वाले, ढोलक वाले, मृदंग वाले, हारमोनियम वाले, सितार वाले ... कई हैं । भजन में वेरायटी बहुत है । सब सीखेंगे तो साल भर लग जायेगा । अभी सीजन है तो क्रेश कोर्स में एक भगवान का परफेक्ट भजन सिखा रहे हैं ।

यहाँ भजन के आलावा आरती भी सिखाई जाती है । आरती सिंगल होती है और डायरेक्ट भगवान को सुनाई जाती है  । आरती में कुछ भी ऊपर नीचे नहीं कर सकते हैं । उसका हर शब्द अपनी जगह फिक्स होता है । भजन को थोडा इधर उधर करके भी गाया तो चल जाता है, आरती को नहीं । इसलिए आरती का आनर्स कोर्स चलता है । पूरा साल आरती की जरुरत पड़ती है । कोर्स थोडा कठिन है लेकिन महत्वपूर्ण है । बहुत ध्यान रखना पड़ता है । भक्त फल की उम्मीद में आरती का गान करते हैं । इसलिए उनकी संतुष्टि का ख्याल रखना जरुरी होता है ।

अगर कुछ हट के कोर्स करना हो तो हमारे पास वो भी है । दफ्तरों में कोई काम पड़ जाये तो बिना नोटामायसिन के पत्ता भी नहीं खड़कता है । लेकिन अगर अधिकारी की उचित आरती उतारो तो दस हजार का काम सात हजार में हो सकता है । प्रेक्टिकल आरती और भजन का ये कोर्स परसनल ट्यूशन में करवाया जाता है । इसकी फीस भी ज्यादा है, लेकिन सफलता इसी में है  । ... आपको पूरा सिलेबस बता दिया है । बताइए कौन सा कोर्स करेंगे ?

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शनिवार, 13 जनवरी 2024

दर्शन नहीं करने का दर्शन


 


“ तो आप जा रहे हैं मंदिर ?” वरिष्ठ किस्म के पुरातन नेता से रिपोर्टर ने पूछा ।

“नहीं ।“ उन्होंने टका सा जवाब दिया ।

“निमंत्रण तो मिल गया है !”

“तब भी नहीं जायेंगे ।“ वे बोले ।

“क्यों !?”

“भगवान हमारी पार्टी के नहीं हैं ।“

“भगवान का पार्टी से क्या लेना देना ! वो तो सबके हैं ।“

“सब कहने की बातें हैं । ताला हमने खुलवाया और वे दूसरी पार्टी के साथ चले गए !”

“चलिए ये क्या कम है कि आप मानते हैं भगवान को । हमें लगा कि कम्युनिस्टों के साथ रहते रहते आप धर्म से दूर हो गए हैं ।“

“ऐसा नहीं है हम एक नहीं सभी धर्मों को मानते हैं । सबका समान आदर करते हैं । “

“लोग कहते हैं जो सबका होता है वो किसी का नहीं होता है !!”

“गलत है, हम सभी धरमों को मानते हैं । हमारी पूरी पार्टी मानती हैं । “

“क्या मानते हैं धरम को ? और क्या करते हैं ?”

“जैसा समय और परिस्थिति के अनुसार जरुरी हो । फूल, घंटी, आरती, माला, चादर सब कर देते हैं ।“

“चुनाव नहीं हो तब धरम को क्या मानते हो ?”

“वैसे तो धर्म एक तरह की अफीम है । ये हमने कहा नहीं हैं, हम सिर्फ मानते हैं ।“

“गाँधी जी तो धर्म को, राम को मानते थे !”

“उनकी बात अलग है । वो बड़े नेता थे । कुछ भी मान लेते थे । उनकी गलतियों के लिए हम दोषी थोड़ी हैं । “

“ऐसा नहीं हैं, सब जानते हैं उनकी आस्था भी थी भगवान में ।“

“आस्था अलग चीज है । राजनीति में आस्था नहीं चलती है । विवेक चलता है, चालाकी चलती है, मौकापरस्ती चलती है, झूठ बिंदास चलता है ... सब चलता है आस्था नहीं ।“

“ लेकिन ‘वे’ तो आस्था से ही बढ़िया राजनीति कर रहे हैं ! ... आपको नहीं लगता कि मंदिर जा कर आपकी पार्टी आस्था की फसल में से अपना हिस्सा ले सकती है ? खुद आपकी पार्टी वालों को लग रहा है कि इस मामले में आप गलती कर रहे हैं ।“

“ गलतियों से हमें कोई दिक्कत नहीं है । गलतियों की हमारी लम्बी परंपरा है । होती रहती है, किसी से भी हो सकती हैं । हम ही क्यों, जो मार्गदर्शक मंडल में पड़े हुए हैं उनसे पूछिये । क्या वे अपनी गलती पर दिन रात नहीं रो रहे हैं ?”

“चाहें तो सुधार कर लें अपने निर्णय में । साफ्ट हिंदुत्व का समर्थन तो किया था आपकी पार्टी ने । इसी नाते साफ्ट दर्शन कर आते और जनभावना से जुड़ लेते । इसमें क्या प्रॉब्लम थी ?”

“जनता से जुड़ने के लिए ‘भारत जोड़ो’ यात्रा निकाल रहे हैं ना ।“

“ठीक है, लेकिन यात्रा से समर्थन मिल सकता है जुडाव तो धर्म से ही होगा ।“

“नाम पर मत जाइये । पोल्टिक्स में जुड़ाव का मतलब जुड़ाव नहीं है । जैसे सद्भावना का मतलब कभी भी सद्भावना नहीं होता है । राजनीति में जो होता दीखता है वो नहीं होता और होता वही है जो नहीं दीखता है । गहरी बात है इसके मर्म को समझो ।“

“हमें तो कुछ भी नहीं समझ में आया, आप ही समझाईये प्लीज ।“

“जो भक्त दिख रहे हैं वो भक्त नहीं हैं और जिन्हें भक्त नहीं समझा जा रहा है वही असली भक्त हैं ।“

“क्या मैं इसे ऐसे समझूं कि झूठ ही सच है और सच झूठ है ।“

“तुम्हें राजनीति की समझ नहीं है । मर्म को समझो ... हम कह रहे नहीं जायेंगे, इसका मतलब है हम जायेंगे । 

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मुफ्त मंजीरे, मन बाजे छनन छन छन


 


चुप रहने के लिए नहीं कह रहे हैं, बस जरा मौन रखिये । मौन एक साधना है । साधना से मनुष्य का विकास होता है । उसकी सहनशक्ति जो है काफी बढ़ जाती हैं । अभी जो आप बात बात में ततैया की भांति डंक ले कर उचका करते हो ना, ये बीमारी ख़त्म हो जाएगी । बीमार आदमी समाज के लिए अच्छा नहीं होता है । इसलिए आँख कान बंद रखिये और मुंह भी । न देखिये, न सुनिए और न ही बकिये । गाँधी को पढ़ा है ना ? क्या कह गए थे ? बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो । वो लम्बी सोचते थे, जानते थे कि तुम्हारे जैसे लोग रहेंगे खोपड़ी में सफ़ेद बाल की तरह और पूरे सर को बदनाम करेंगे । आप लोग रात में लिखने बैठते हैं, यही समय उल्लुओं का काम पर निकलने का होता है । विकास जैसे अच्छे काम दिन में होते हैं और दिन में आप सो जाते हो ! रात तो बनी ही है बुरे कामों के लिए चाहे लेखन ही क्यों न हो । भ्रष्टाचार अगर दिन में हो तो बताओ क्या उसकी गरिमा रह पायेगी ? दिन में सेवा की जाती है, राजनीति के लिए रात होती है । समझदार वो होता है जो जानता सब है लेकिन मौन रहता है । मंदिर जाते हो न ? भगवान को सब पता होता है, किन्तु कुछ बोलते हैं क्या ? छोटी बड़ी कैसी भी सजा देना होती है तो देते हैं चुपचाप । बगल में बैठा आदमी जेकेट से निकाल कर चोरी से काजू खा लेता है और देखने वाला देख लेता है । जैसे मछली केंचुवा लपकती है और काँटे में फंस जाती है । इसलिए राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर लोग कहते हैं कि आप नेता हों या अधिकारी, दिन में काजू के लिए भी मुंह नहीं खोलना चाहिए । रात है न आजू, बाजू, काजू के लिए ।

और लाख रुपये की बात, तुम्हारे लिखे से किसी का कुछ बदल रहा है क्या ? तुमने कवियों पर कितना व्यंग्य कसा लेकिन क्या असर हुआ ! उल्टा उनकी फसल झूम के आ रही है । देख लेना वह दिन जल्दी आएगा जब फेसबुक का नाम पोएटबुक रखना पड़ेगा । दुनिया की चाल निराली है, वो अपने हिसाब से चलती है । आम जन को दुनिया के हिसाब से चलना होता है । अगर आप बदल सकते तो शुरुवात अपने घर से करते । सुधारक होने का बड़ा भ्रम पाले हो और अपने घर में दो रोटी के लिए मौन साधे रहते हो या नहीं ! बीवी बच्चे आपको देखते सुनते हैं क्या ? वो समझदार है, ज़माने के साथ चल रहे हैं । न बुराई को देखेंगे न बुरे को ।

ठीक है आप बोलते नहीं लिखते हो । और लिखने को लेकर गाँधी जी ने कुछ नहीं कहा है । तो भईया जान लेओ कि गाँधी के ज़माने की बात और थी । लोग पढ़ नहीं सकते थे, सिर्फ सुनते थे । इसलिए तरह तरह की कथा बांची जाती थी । अब लोग शिक्षित हैं, पढ़ते हैं और समझते भी हैं । बांचा बंचायी बंद हो गयी । तुम्हारा लिखा कंकर की तरह आँखों में किरकिरी करता है । ध्यान रखो अब लोककल्याण की राह पर है देश । जब सारे लोग पुष्प वर्षा करने में लगे हैं तुम कंकर फैंक रहे हो !! ना भईया ना, दिल बड़ा करो और जुबान छोटी । लेखकों की सूचि बन रही है, कहो तो नाम लिखवा दें तुम्हारा भी । ले लेना ... मुफ्त मंजीरे मिलेंगे ।  मन बाजे छनन छन छन ... मजे में रहोगे ।

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बुधवार, 3 जनवरी 2024

मन मांगे किस्से परियों वाले


 


 

       सोने के लिए जो बदनाम थे कभी, जाने क्या डर है या चिंता कोई कि इनदिनों आँखों से नींद उड़ी हुई है । कभी कुम्भकर्ण नाम दे दिया था लोगों ने । अब पता नहीं किसके घोड़े बांध लिए हैं सिरहाने । जैसे जैसे रात काली होती है नींद रॉकेट की तरह ऐसी उड़ती है कि सीधे चाँद के ऑर्बिट में नजर आती है । मच्छर महाराज सर पर मंडराते रहते हैं, कहते हैं न सोऊंगा और न सोने दूंगा । इधर जितने बेरोजगार हैं सब चौकीदार हो गए हैं और जागते रहो जागते रहो चिल्लाते रहते हैं । आँख लगे तो कैसे । चैन की नींद सो लिया करते थे लोग, जिसके लिए पता नहीं कौन दोषी हैं । ख्याल आता है कि सुबह होगी तब सो जायेंगे । लेकिन वो सुबह भी नहीं आ रही है ।

          “रात गहरी है चलो मन, तुम्हें बहलाने के लिए एक किस्सा सुनाते हैं । दरअसल तुम्हीं हो जो बार बार बहकते रहते हो । जबसे रेडिओ पर आने लगे हो तुम बहुत वीआइपी हो गए हो । तुम्हारी अदाओं और उछल कूद से हम परेशान होते हैं । मन तुम एक जगह स्थिर और शांत बैठो तो हम नींद ले पायें जरा । खैर, सुनो कहानी । एक समय की बात है एक राज्य था शांतिपुरम । जैसा नाम वैसा गुण, राज्य में शांति और सौहाद्र बहुत था । लोग मिलजुल कर रहते थे और जो मिल जाता था उसमें खुश थे । रातें गहरी नींद वाली और सुबह ऊर्जा से भरी होती थी । एक सांझी जीवनशैली में जी रहे थे लोग । इस बात से राजा वीरचन्द्र को बहुत संतोष था । यही बात कुछ लोगों को पसंद नहीं आ रही थी । उन्होंने हितैषी बन कर प्रजा के बीच पैठ बनाई । पहले विश्वास जीता उसके बाद विवेक भी और मौका मिलते ही इतिहास की ओर रुख मोड़ दिया । धीरे धीरे लोग वर्तमान को भूलने लगे और राजा वीरचन्द्र के शासन को भी । जिस भविष्य को लेकर आमजन सपने बुना करते थे कभी, उससे डरने लगे ।  नतीजा यह हुआ कि जो पीढ़ी भविष्य के निर्माण में लगी थी वह अतीत के खनन में लग गयी । ‘बीत गयी सो बात गयी’ कहने वालों को जनाक्रोश झेलना पड़ा । लोग कालखंडों, मान्यताओं और किताबों में बाँटते गए । पडौसी जो पहले एकदूसरे के सहारे थे अब संदेह करने और डरने लगे । सबसे पहले विश्वास घटा फिर प्रेम और परस्पर आदर भी । जो पहले एक दूसरे को देख कर सुरक्षित मानते थे अब खतरा महसूस करने लगे । समय बीता, जिन्होंने सुरक्षा की गारंटी दी थी वही डर का सबसे बड़ा कारण हो गए । ...”

         “रुको जरा !” अचानक मन बोला । “ये कैसा किस्सा सुना रहे हो ! इसमें नींद कहाँ है ! ? इस तरह की कहानी से किसी को नींद कैसे आयेगी भला ! ... मुझे परियों वाली कहानी सुनाओ ताकि सुकून मिले और कुछ सपने भी देख सकूँ ।“

          “ किस्सों वाली परियां अब कहाँ हैं मन । वे अब बाज़ार में हैं, मॉल में हैं, पोस्टर और विज्ञापनों में हैं । परियां अब प्रोफेशनल हैं, आँखे बंद करने से नहीं कांट्रेक्ट साइन करने के बाद ही आती जाती हैं कहीं भी । किसीने कभी कहा था कि बड़े सपने देखो । हम लम्बे सपने देखने लगे हैं, कलयुग से सतयुग तक । जल्द ही युवक भूल जायेंगे कि रोजगार किसे कहते है ! जीवन का आधार मुफ्त का राशन होगा और जीवन किसका होगा पता नहीं । ... यही चिंता है और यही डर ।“

         ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती ; कोई सूरत नजर नहीं आती ।

         मौत का एक दिन मुअय्यन है ; नींद क्यों रात भर नहीं आती ।“

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बुधवार, 27 दिसंबर 2023

वो आधा काम करता है आधा भूल जाता है ।



 



“देखो साहब ऐसा है कि समय जो है एक सरीखा पड़ा नहीं रहता है । वह करवट ले रहा है । करवट करवट होती है, इसमें आगे पीछे नहीं देखा जाता है । करवट हमेशा आगे नहीं ले जाती है, पीछे भी लाती है । हमें समय के साथ चलना होता है । रख सको तो उसकी चाल पर नजर रखो । कब किसकी उड़ कर लग जाए कहा नहीं जा सकता है । जब हवाएं चलती हैं, तूफान सा उठता है तो प्रायः जमीन की धूल उड़ कर गुम्बद पर बैठ जाती है । व्यवस्था है प्रकृति की, सिस्टम भी कह सकते हैं इसे । गहरा सोचने वाले विद्वान् लोग लोकतंत्र भी कह देते हैं कभी कभी । बोध कथा में कहा गया है कि जब तक झाड़ पोंछ नहीं होती वो धूल वहीं  बैठी रहेगी । और सिस्टम में झाड़ पोंछ कोई रोज का काम थोड़ी है, कोई निमित्त हो, कोई मुहीम चले तभी साफ सफाई की जाती है । लेकिन सफाई होती जरुर है । जैसे दीवाली के समय हर आदमी सफाई कर्मी हो जाता है तब कहीं जा कर उजाला एक पर्व बनता है ।  तब तक इंतजार करो, आयेंगे अच्छे दिन भी । “ जगतराम बोले ।

भगतराम जरा व्यावहारिक हैं, वे समझाते हैं -  “भाई साहब खांमखां चिंता का टोकरा सर पर उठाए रहते हैं आप ! आपका क्या लेना देना सरकार से या लोकतंत्र से ! हवाओं से या तूफ़ान से !! वोट देना था दे दिया, समझो हेडेक ख़तम, आराम से बैठो । अब ब्लड प्रेशर की गोली लो और लगो अपने काम धंधे से । इसके आलावा कोई चारा नहीं  है समझदार आदमी के पास । आपको राजधानी की तरफ देखने की जरुरत ही क्या है । जिन्हें चुना गया है वो अपना का करेंगे आप अपना करो मजे में । राजनीति है भाई कोई मामूली चीज नहीं । समझो कि इन्सान के बस की तो बात ही नहीं है , देवताओं का काम है ये । पढ़े सुने नहीं हो क्या कि कितनी राजनीति करना पड़ती थी उन्हें देवता बने रहने के लिए । कितना गिरना उठना पड़ता है हम आप क्या जानें । आम आदमी इसमें मगजमारी करने लगेगा तो अपनी रोजी रोटी ख़राब कर लेगा । लोग कमाते तो खूब हैं  लेकिन जाता किधर है ये नहीं पता पड़ता हैं । सोचना है तो इस पर सोचो । कमाई का पचास साठ परसेंट तो टेक्स में देना पड़ता है । विश्वास न हो तो जोड़ लेना किसी दिन । माचिस की डिबिया जैसी मामूली चीज खरीदते हो उस तक में टेक्स देना होता है । पिछले साल आपने स्कूटर खरीदा है तो अच्छा ख़ासा टेक्स दिया है । अब उसे चलाने का, मतलब ड्राइविंग लायसेंस, सड़क पर चलने का रोड़ टेक्स, पेट्रोल का टेक्स, टूटफूट यानी पुर्जों पर टेक्स, पार्किंग शुल्क, दायें बाएं मुड़ गए तो तरह तरह के फ़ाईन ! तनखा पर इनकम टेक्स, रोटी, कपड़ा, दवाई, मिठाई कुछ भी लिया तो सब पर खासा टेक्स है । लेने वाला श्री भगवान । बड़ी जिम्मेदारी और महंगा काम है एक ईमानदार नागरिक होना । पहले जिल्लेसुभानी को चुनों, फिर डायरेक्ट इनडायरेक्ट उनके गाड़ी घोड़े, सूट शेरवानी, जेकेट जूते सबकी व्यवस्था करो । देखा जाये तो इतना सब देने वाला नागरिक किसी शहंशाह से कम नहीं है । किन्तु वोट समर्पण के बाद कौन मानता है उसे  ! मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई ; जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई । खुद ही मान लो, कोई खुशफहमी तो जरुरी है जीने के लिए । “

“ठीक है जी, मान लेते हैं । कहने वाले कहते हैं कि भगवान सब देखता है । उसकी मर्जी से ही पत्ता खड़कता है । वो चाहे तो रंक को राजा बना दे या राजा को रंक ।  देखिये ना वो आधा काम करता है आधा भूल जाता है ।  चलिए कोई बात नहीं, यही मान लेते हैं कि भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं । ... किस किस को याद कीजिये, किस किस को रोइए, आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक कर सोइये । मुंह ढँक कर सोने का मौसम है ।  “

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हम इन्सल्ट न्यू इयर मना लेंगे



“देखो यार राम परसाद अभी हमने सोचा नहीं है कि नया साल कैसे मनावें । पिछली बार जो तुम्हारे साथ मनाया था उसे आज तक हम भूले नहीं हैं । हालाँकि हमने कोशिश बहुत की कि भूल जाएँ पर सफल नहीं हुए । गलत मत समझ लेना, हमारा मतलब है कि तुमने खूब इंज्वॉय किया यह हम नहीं भूल पाते हैं । इंज्वॉय तो हमने भी किया था, जब तक कि बिल नहीं देना पड़ा था जीएसटी के साथ । नए साल की ख़ुशी में तुम पर्स घर पर ही भूल आये थे ... याद है ना ? उस दिन लगा कि कमबख्त हमारी यादाश्त अच्छी क्यों है । हम मूरख हैं बैठे बिठाये हेप्पी न्यू ईयर हो गया हमारा । वो तो अच्छा हुआ घर में किसी को पता नहीं चला वरना किस किस को बताते कि हम पर क्या गुजरी नए साल में । ... चलो वो बात तो आई गयी हुई । वो क्या है ना अपने यहाँ रिवाज है कि नया साल आता है तो सब लोग अपना भविष्यफल पढ़ते हैं ।  कल हमने भी पढ़ लिया । हमारे लिए साफ लिखा था कि पिछली गलतियाँ नहीं दोहराएँ । पीने-खाने के मामले में सावधान रहें और मुफ्तखोर यार दोस्तों से बच कर रहें । सो इस बार मजबूरी है राम परसाद । अव्वल तो हम मना ही कर रहे हैं सबको, लेकिन नहीं माने तो इस बार पूरी याद से हम पर्स भूलने वाले हैं । क्या कहते हो ?”

“हम पर्स भूल आये थे क्या !? अच्छा !!” राम परसाद बोले ।

“वैसे देख लो इस बार चौतरफा माहौल ये है कि एक जनवरी हमारा नया साल नहीं है । दुनिया का हो तो हो उससे हमको क्या है । दुनिया से हमें क्या लेना देना, मेड इन चाइना, मेड इन जापान अलग बात है । ये इकोनामिक्स का मामला है संस्कृति का नहीं । हम दुनिया के साथ नहीं देस के साथ रहेंगे, संस्कृति बड़ी चीज है भाई । तो राम परसाद जान लेओ कि इस बार नया साल सेलिब्रेट नहीं करने वाले हैं । हमारा तो तुम्हारे लिए भी यही सुझाव है कि नए साल के नाम पर कुछ मत मनाओ । पीयो-खाओ मजे में और लोगों बताओ कि ये जो आ रहा है ना नया साल वो हमारा नहीं है । हम इसे नहीं मानते हैं, और इसकी बेइज्जती के लिए पी-खा रहे हैं । लोग भले ही हेप्पी न्यू इयर मना रहे हों पर हम इन्सल्ट न्यू इयर मना लेंगे । दूसरो की इन्सल्ट करने में कितना आनंद आता है यह टीवी के लोकप्रिय सीरियलों से सबको पता है । तो राम परसाद, करो यार तुम भी नए साल की इन्सल्ट का जश्न । तो बताओ किधर आ जाएँ ? आखिर तुम्हारी बात तो रखना ही पड़ेगी, लंगोटिया हो ना हमारे ।  और फिर लिए दिए का हिसाब यहीं होता है संसार में । अपने दिए को ले लेना तो व्यवहार है समाज का ।  तुम तो जानते हो कोई प्रेम से बुलाये तो हम मना नहीं कर पाते हैं ।“

 राम परसाद बोले – “ अरे यार हम तो वैसे ही पूछ रहे थे । दरअसल इस बार हम भी राष्ट्रवादी बन गए हैं । नया साल नहीं मनाने वाले हैं । चिकन अलग चीज है, अंडे वाला केक खा कर हेप्पी न्यू इयर बोल कर अपने को भ्रष्ट थोड़ी करेंगे । किसी को पता पड़ गया तो कैसे शुद्धिकरण हो जाएगा पता नहीं । हमारे मोहल्ले में भजन संध्या रखी है और भंडारा भी है । इधर ही आ जाओ, भजन-भंडारा हो जायेगा और तुम्हारा लेन देन भी बराबर हो जाएगा ।“ ­                                    ----X ----- 

बुधवार, 13 दिसंबर 2023

तुम बस चलते रहो छोटू जी


 


छोटू जी छोटे हैं और बड़कू जी बड़े । बड़कू जी आगे चल रहे हैं और छोटू जी पीछे पीछे । दोनों में मित्रभाव कभी कभी सर उठा लेता है लेकिन जल्दी ही वे भूल सुधार लेते हैं । वे  एक साथ भी चल सकते हैं लेकिन अनुशासन से बंधे हुए हैं । दोनों दिल्ली जाने के लिए निकले हुए हैं ।  “तुम्हें पता है दिल्ली कहाँ है ?” अचानक छोटूजी ने बड़कूजी से पूछा ।

“ इसमें पता करने की क्या बात है । दिल्ली दिल्ली में ही होगी और कहाँ जाएगी !!” बड़कू ने अपने बड़प्पन के साथ कहा ।

“मेरा मतलब है बड़कूजी कि हम लोग दिल्ली जा रहे हैं तो हमें ठीक से पता होना चाहिए कि दिल्ली कहाँ है । इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारी दिशा गलत तो नहीं है । “

“दिशा विशा की चिंता छोड़ो छोटू जी । बस इतना याद रखो कि हमारी दिशा सुनिश्चित है । ... मात्र दिल्ली के लिए हम अपनी दिशा नहीं बदल सकते हैं ।“

“मैंने तो समान्य सी बात पूछी है ।  दिल्ली पहुँचने के लिए हमें दिल्ली की दिशा में ही तो चलना होगा ! वरना पहुंचेंगे कैसे ?!”

“नेतृत्व बड़ी चीज होती है छोटू जी । नेतृत्व पर भरोसा रखो । जरूरत पड़ी तो वे हमारी दिशा में कई दिल्लियां बनाते चलेंगे । हमें केवल चलने और चलते रहने के निर्देश हैं । इसलिए चलते चलो, चलते चलो ।“ बड़कूजी ने अपना अनुभव रखा ।

“फिर भी मैं सोचता हूँ कि एक बार किसी से दिल्ली का पता पूछ लेने में कोई हर्ज नहीं है ।“ छोटू को समाधान चाहिए था ।

“छोटू जी तुम सोचते हो ! ... अभी तक !! ... इसका मतलब यह है कि तुम्हारा संस्कार नहीं  हुआ ठीक से । सोचना बंद करो तुरंत ...  वरना थर्ड डिग्री संस्कार के लिए तैयार रहो ... और हाँ एक बात साफ समझ लो, हमारी दिल्ली इतिहास में है । हमें इतिहास में जाना पड़ेगा । मानो कि इतिहास ही हमारी दिशा है ।“

“कुछ समझा नहीं ! हमें इतिहास में क्यों जाना पड़ेगा बड़कूजी !!?”

“क्योंकि हम इतिहास में नहीं हैं और लोग बार बार हमें इतिहास में ढूंढते हैं । आधुनिक शिक्षा ने लोगों की समझ और सोच को विकृत कर रखा है । जो इतिहास में नहीं हैं उन्हें वर्तमान में भी नकार रहे हैं । ऐसे लोगों को गोली मार कर हे-राम कर देना चाहिए । “

“लेकिन जब हम इतिहास में हैं ही नहीं तो इतिहास में जाएंगे कैसे ?!!”

“इतिहास में सेंध मार कर । हमें इतिहास बदलना होगा और अपने लिए जगह बनानी होगी । याद रखो, जगह बनाने से ही बनती है । नेतृत्व पर विश्वास रखो और तुम बस चलते रहो ।“

“मैं चल तो रहा हूँ बड़कू जी । लेकिन पथ समझ में नहीं आ रहा है ..।“

“समझने की कोशिश करोगे तो चलोगे कैसे छोटू जी !! ... लक्ष्य चलने से मिलता है, समझने के प्रयास से केवल भ्रम पैदा होता है । ... चलो कि जैसे बिना गाड़ीवान के बैल चलते रहते हैं गाड़ी में ।“

“बड़कू जी तुम्हें विश्वास है दिल्ली आ जाएगी ?”

“दिल्ली नहीं आएगी छोटू जी ... हमें दिल्ली चल कर जाना होगा । तुम बस चलते रहो ।“

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चिड़ियाघर में भालू से एक मिडिया बाईट


 



जिसके हाथ में चैनल का माइक हो उसके पास किसी के भी मुंह में घुस जाने का नेशनल परमिट होता है । माइक आगे करके वे इतना बोल दें कि खुल जा सिम सिम ... बस काफी है । बंद मुंह खुल जाता है । प्रिंस सीनियर बेरोजगार है, अभी अभी उसने माइक पकड़ा है और चैनल ने प्रेक्टिस के लिए उसे राष्ट्रीय चिड़ियाघर में भेजा है । उसे कुछ सीखना हैं, जानवरों से बात करना है ।

सबसे पहले भालू का मुंह सामने आया । खुलते ही उसने आपत्ति जताई कि ये चिड़ियाघर क्यों है ! इसमें ज्यादातर जानवर उड़ने वाले नहीं हैं । चाहे तो जन्तुवार-गणना करवा ले सरकार । थोड़े से तोते कबूतरों के कारण पूरा इलाका चिड़ियाघर कैसे हो गया ।  इसका नाम बदलना चाहिए । लोगों के सामने चलेफिरें, उनका मनोरंजन करें हम और नाम चिड़ियाघर !! सरकार को इस मामले को संवेदनशील मुद्दों में शामिल करना चाहिए ताकि सख्ती के साथ कदम उठाया जा सके ।

“अगर नाम नहीं बदला तो आप लोग आन्दोलन करोगे क्या ?” प्रिंस ने पूछा ।

“लगता है तुम नए नए माइक पकड़े हो । जानवर आन्दोलन नहीं करते हैं , वे सिर्फ मांग रखते हैं । सिस्टम में मांग रखने का अधिकार सबको है, जानवरों को भी । तुम देख लो यहाँ नब्बे प्रतिशत बिना पंख वाले हैं ।“

“अगर आपकी मांग नहीं मानी गयी तो ?”

“दरअसल हमारी मांग मांग नहीं एक आइडिया है विकास का । सरकार का ध्यान खींचना चाहते हैं । आखिर पशु संग्रहालय का भी योगदान होना चाहिए इतिहास के नए संस्करण में ।  हमें ख़ुशी होगी ।“

“आपको ख़ुशी होती है !? यहाँ कैद हो, पिंजरों में रहते हो, पता नहीं खाने को ठीक से मिलता है या नहीं !”

“हम खुश हैं । कैद हुए तो क्या हुआ मुफ्त का राशन मिल रहा है । काम का कोई बर्डन नहीं है । मजे में खाते रहो और पड़े रहो । बस जिन्दा रहो ताकि वक्त जरुरत देने वालों के काम आ सको ।“

“और ये पिंजरे ? इसमें बंद कर देते होंगे आप लोगों को ?”

“पिंजरे नहीं ये व्यवस्था है, घर हैं हमारे । मुफ्त मिले तो पिंजरे भी सुख देते हैं । मजा ही मजा है । “

“ऐसा पता चला है कि ये पिंजरे नहीं विचारधारा है कोई । जिसमें आपको कैद किया जा रहा है । धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी आप लोगों को । फिर इसके बिना रह नहीं सकोगे ?” प्रिंस ने गहरा सवाल किया ।

“जानवरों की कोई विचारधारा नहीं सिर्फ भूख होती है । दिन में पेट भरने की व्यवस्था हो जाए तो और कुछ नहीं चाहिए । रात में मस्त सो जाओ मजे में । “

“और देश ?”

“गरीबों के लिए क्या देश और क्या दुनिया । क्या जाति और क्या धरम । जो भी है बस राशन है । गेट खोल भी दो तो भी हम बाहर नहीं जाने वाले हैं । हम अमीरों, बड़े लोगों के लिए हैं । वे माई बाप, प्रभु, भगवान हमारे । वे आते हैं हमें देखते हैं, कुछ खाने को देते हैं । और हमें क्या चाहिए देश से या सरकार से । हमारा भी फर्ज बनता है कि जब जब भी मौका मिले उनके काम आ जाएँ । वो हमारे लिए हों न हों हम उनके लिए हैं ।“

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मंगलवार, 28 नवंबर 2023

फंस गए फजीयत में फूफाजी

 




बड़े दिनों के बाद डब्बू का फोन है, बड़े साले साहब का मंझला बेटा ।  बोला – “हेल्लो फूफाजी, कैसे हैं आप ? तबियत तो ठीक है न ?”

“हाँ डब्बू, छत पर धूप ले रहे हैं, और तबियत भी ठीक ही है । बस जोड़ों में दर्द रहता है । गठिया बताया है डाक्टर ने । लेकिन तुम्हारी बुआ को लगता है कि नौटंकी है । कहती हैं कुछ काम घाम नहीं करता हूँ इसलिए जोड़ों में सूजन चढ़ गयी है । अब बताओ कल जबरदस्ती छत की झाड़ू लगवाई । बुआ तो खुश है पर घुठने और कमर नाराज चल रहे हैं । समझ में नहीं आता किसकी सुनूँ, डाक्टर की या बुआ की । डाक्टर तो दस मिनिट देखता है, इनके पंजे में तो चौबीस घंटे रहना पड़ता है । आज बिलकुल चला नहीं जा रहा है और ये सामने झोला पटक गयी हैं कि बाज़ार जाओ और सब्जी भाजी ले आओ । समझ में नहीं आ रहा है कि इलाज किसका करावाऊँ । पड़ौस में अगरवाल साहब रहते हैं । बोलते हैं गठिया का ही करवा लो, ठीक हो जाने के चांस भी रहते हैं । अभी जाऊंगा सब्जी लेने लेकिन मुझे पता है कि मेरी लाई सब्जी इनको पसंद नहीं आएगी । बहाना चाहिए इन्हें । डांट डपट कर पूरी खर्च हो लें तब ही औरत से इन्सान बन पाती हैं । तुम तो जानते हो इनकी दिमागी ताकत । कहती है हमारी अम्मा ने बचपन में बादाम खूब खिलाई है । अब देखो भाई किया धरा अम्मा का भुगत हम रहे हैं । दिमाग इनका पजल गेम से ज्यादा जटिल है । एक तरफ से मिलाओ तो दूसरी तरफ से बिगड़ जाता है । हालत ये है कि न पूरे पूरे कमजोर हो पाते हैं न ही ताकतवर । न जीने में न मरने में, अनारकली बना के रखा है हमें । दूध से सारी मलाई खेंच कर घी बना लेती हैं । तीन बार एक चम्मच घी मांगों तो एक बार आधा चम्मच देती हैं । सारा घी भगवान के दीपक को जाता है । थोड़े से घी के चक्कर में भगवान भी तुम्हारी बुआ की तरफ हैं । कभी हिम्मत की भी कि आज जरा डपट दें उनको, तो बुखार पहले चढ़ जाता है । मामला उलट जाता है , दिन में तीन बार उनकी डांट के साथ पेरासेटामाल खाना पड़ जाती है । अब तुम तो जानते हो कि पांडव के साथ भगवान थे तो सौ भाई और बड़ी सेना भी हार गयी थी । इधर हम तो अकेले हैं । रोज गीता पढ़ते हैं लेकिन युद्ध के लिए जरुरी हिम्मत पैदा नहीं हो पाती है । अब सोच रहे हैं कि घी का दिया हम भी लगाया करें । लेकिन किचन में घी पता नहीं कहाँ रखा रहता है कि ढूंढते रहो मिलता ही नहीं । एक बार घी ढूंढते रंगे हाथ पकड़ लिया तो तीन दिनों तक जमानत नहीं मिली । थाने में होते तो तीन घंटे में मिल जाती । पिछले दिनों सरकार ने महिलाओं के पक्ष में बिल पास करके उन्हें और ताकतवर बना दिया । इधर राज्य सरकार रिश्तेदारी बना रही है सो अलग । अब स्थिति देखो, भगवान इनके  सरकारें भी इनकी ! ऐसे में एक बेचारा फूफा क्या कर सकता है सिवा गरल पीने के । ... तुम बताओ , तुमने कैसे फोन किया ?”

“कुछ नहीं फूफाजी । बस आपके हालचाल पूछना थे । “

“डब्बू एक तुम्हीं हो हमारी ससुराल में जो हाल पूछ लेते हो । बाकी तो सारे मजे लेने के लिए फोन करते हैं । जवाई हैं सो अपनी दुर्गति बताने में लाज आती है । इसी का फायदा उठाया जाता है । बोलें भी तो क्या फायदा, उधर से कोई सहायता तो मिलना नहीं है । उल्टा अगर तुम्हारी बुआ जान गयीं कि क्या कुछ बोला है तो उनके पास अपनी ईडी है पक्के बाँस की । तुम्हारे भाई चिंटू की शादी में जो हम रूठे थे तो आज बता दें तुमको, बुआ का ही आदेश था । बोली थीं ससुराल में शादी है थोडा मुंह फुला कर बैठना तो नेग एक सौ एक मिलेगा वरना ग्यारह में निबटा देंगे । बोलीं मैं खूब जानती हूँ अपनी भौजाइयों को, एक से एक छंटी हुई हैं । तीन चार साल हुए सावन में मैके गयीं थीं । बुलवा लिया था तुम्हारे पापा ने । इधर क्या तो वक्त गुजरा बिंदास । हमारे भी कोपलें फूट आयीं, रेगिस्तान में हरियाली छाई, कुछ फूल भी खिले । लेकिन बादाम खाया दिमाग हैं न बुआ का । अपनी भौजाइयों से रूठ आयीं किसी बात पर । अब भाइयों की हिम्मत नहीं कि दोबारा बुला लें । हरियाली फिर रेत रेत हो गयी और आज तक एक बीज अंकुरित नहीं हुआ । अब क्या कहें, हम तो किसी से कुछ कहते नहीं । तुम चिंता नहीं करना बेटा । गब्बर से हमें एक ही आदमी बचा सकता है खुद गब्बर । ... अब फोन रखें कि कुछ और सुनोगे ?”

“अब रख ही दो फूफाजी । हम नीचे कमरे से बोल रहे हैं, फोन स्पीकर पर है और बुआ पास ही बैठी हैं ।“

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मकई राम का भुट्टा हो जाना






मकई राम की कथा सुनाने से पहले आपको बता दूँ कि मैं ऊंच-नीच नहीं मानता हूँ । जात-पांत भी नहीं । यही बात मिठाई पर भी लागू होती है । जो मीठा है वो मिठाई है मेरे लिए । और जो मिठाई है उसका दिल से स्वागत है चाहे वो सोन पापड़ी ही क्यों न हो । हालाँकि इनदिनों सोन पापड़ी बड़ी बदनाम चल रही है । कोई घर में घुसने नहीं दे रहा बेचारी को ।  अगर किसी तरह घुस गयी तो जल्द से जल्द निकाल बाहर करने की जुगत में लग जाता है । कोई कितने ही प्यार से लेकर आये लेने वाले के कलेजे से धुंवा उठता ही है । दोस्त हो, रिश्तेदार हो या कोई प्रिय पात्र, सोन पापड़ी सभी के किये धरे पर पानी फेर देती है ।

बीस वर्षों से दफ्तर में त्रियुगी नारायण ‘हाजिर-सेवक’ लगे हुए हैं । हाजिर-सेवक वही जिसको चालू भाषा में लोग चपरासी कहते हैं । पहले तो दिक्कत थी, खुद उन्हें भी अच्छा नहीं लगता था । लेकिन वेतनमान बदले तो अच्छी तनख्वाह हाथ लगने लगी । तब समझ में आया कि जमाना पद को नहीं पैसे को देख कर इज्जत देता है । उनके पास भी बार त्यौहार सोन पापड़ी घर आने लगी । और वे भी मौका अवसर देख कर दूसरों को देने लगे ।

इसी बीच दफ्तर में मकई राम अफसर हो कर आए । हप्ता पंद्रह दिन नरम रहे लेकिन जैसे जैसे हवा लगी भुट्टा होने लगे । लोग चपेट में आये तो दफ्तर में सबको आश्चर्य हुआ । कुछ को गुस्सा भी आया । मरने वाले का हाथ पकड़ा जा सकता है , बोलने वाले की जुबान नहीं । आपसी बातचीत में साथी भरोसे का हो तो मकई राम के लिए गलियां भी चलने लगीं । लेकिन त्रियुगी नारायण इस मामले में अलग धारणा रखते थे । उनका कहना है कि मकई राम का कोई दोष नहीं है । दोष दफ्तर की हवा का है । किसी किसी को ये हवा सूट नहीं करती है । यहाँ की हवा की तासीर ऐसी है कि अच्छे भले आदमी का दिमाग खराब हो जाता है । त्रियुगी की इस धारणा का एक कारण यह भी है कि मकई राम उन्हें जब भी कोई काम कहते हैं ‘जी’ लगा कर कहते हैं । जैसे – “त्रियुगी नारायण जी, ये फ़ाइल गुप्ता को दे आओ और कह देना शाम तक कम्प्लीट कर दें ।“  त्रियुगी ने इस ‘जी’ को दिल से लगा किया है । गरीब का दिल हमेशा बड़ा होता है, मकई राम को भगवान का अवतार मानने में उन्हें अभी भी संकोच नहीं है ।

दिवाली आ गयी । दफ्तर ने तय किया कि कोई मकई राम को घास नहीं डालेगा । अगर मज़बूरी गले पड़ ही गयी हो तो एक ‘हेप्पी दिवाली’ फैंक कर आगे बढ़ जाया जाये । इस मोर्चे में त्रियुगी नारायण शामिल नहीं हुए । उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन जमाना अब अच्छे लोगों की बात कान पर कहाँ रखता है । दफ्तात में जिसके भी सामने मौका आया ‘टच एंड गो’ फार्मूले के तहत हेप्पी दिवाली बोल कर रॉकेट हो लिया ।

जैसा कि बताया है त्रियुगी नारायण का दिल बड़ा है । उसने देखा कि मकई राम के लिए यह समय चुनौती पूर्ण है । बात को सम्हालने के लिए उसे ही कुछ करना चाहिए । अगली सुबह वह सोन पापड़ी का पेकेट ले कर मकई राम के घर पहुँच गए । मकई राम शायद दफ्तर वालों की बेरुखी को महसूस किये बैठे थे । ऐसे में सोन पापड़ी के पेकेट को देख कर सुतली बम की तरह फट गए । उन्होंने पेकेट हाथ में नहीं लिया उस पर थप्पड़ की तरह मार दिया । पेकेट टूट गया और सोन पापड़ी अपने बिखराव के साथ दूर जा गिरी । त्रियुगी नारायण इस घटना के लिए तैयार नहीं थे । तभी मकई राम कड़के – “ ये क्या त्रियुगी !! तुम सोन पापड़ी ले कर आ गए ! क्या तुम्हें पता नहीं कि बड़े अधिकारियों के यहाँ मातहतों को सोन पापड़ी ले कर नहीं जाना चाहिए ! अपमान करते हो !!” त्रियुगी नारायण के लिए खून का घूंट था । चुपचाप चले आए ।

दीवारों के कान होते ही हैं । दूसरे दिन बात दफ्तर में पहुँच गयी । आखिर साथियों ने त्रियुगी नारायण को घेरा । ये तुम्हारी बेइज्जती नहीं है हम सबका अपमान है । धूल में मिला आये सारी इज्जत कर्मचारियों की ! त्रियुगी भला आदमी तो है ही, बोला – “ हमारा या हम लोगों का कोई अपमान नहीं हुआ है । दरअसल अपमान तो सोन पापड़ी का हुआ है । हाँ यह बात जरुर है कि मकई राम जी को सोन पापड़ी के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए । वो तो अच्छा है कि सोन पापड़ी में जान नहीं होती है वरना आत्महत्या कर लेती ।“ सारे लोग उनका मुंह देखते रह गए । किस मिटटी का बना है यार ये आदमी !!  बोले – भईया त्रियुगी, मरने वरने की बात मत करो ... रुलाओगे क्या ।“

 

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